कर्नाटक विधानसभा चुनाव के लिए नाम वापसी के
बाद अब मुकाबले साफ हो गए हैं। वहाँ दो नहीं तीन राजनीतिक शक्तियाँ मुकाबले में हैं।
कांग्रेस, बीजेपी और जेडीएस। जेडीएस के साथ बहुजन समाज पार्टी भी चुनाव मैदान में
है, जिसके 18 प्रत्याशी मैदान में है। जेडीएस और बसपा-गठबंधन के निहितार्थ चुनाव
परिणाम आने के बाद बेहतर समझ में आएंगे, क्योंकि मुकाबला केवल उन 18 सीटों पर ही
महत्वपूर्ण नहीं होगा, जहाँ बसपा चुनाव लड़ रही है। कर्नाटक में दलित-वोटरों की
संख्या सबसे ज्यादा है, तकरीबन उतनी ही, जितनी उत्तर प्रदेश में है। कई मानों में कर्नाटक की सामाजिक-संरचना उत्तर प्रदेश जैसी है। बीएसपी वहाँ प्रवेश करना चाहती है।
राज्य में ही नहीं राष्ट्रीय राजनीति में अबकी
बार बीजेपी के हिन्दुत्व की परीक्षा है। दक्षिण भारत के इस हिस्से में अतीत में
काफी धर्मांतरण हुआ है। खाड़ी देशों में रोजगार के कारण यहाँ का मुस्लिम-समुदाय
समृद्ध है। राज्य में तीन राजनीतिक शक्तियों के कारण चुनाव-परिणामों को लेकर संदेह
है कि वह किसी एक पक्ष में जाएंगे भी या नहीं। राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से ये
चुनाव कांग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए जीवन और मरण का सवाल बने हुए हैं। यह चुनाव
इस साल राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव परिणामों को प्रभावित ही नहीं
करेगा, बल्कि सन 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए भी महत्वपूर्ण साबित होगा। बीजेपी जीती
तो तीनों हिन्दी राज्यों में बीजेपी के चुनाव-प्रचार में जान पड़ेगी। नहीं जीती तो
सम्भव है कि लोकसभा चुनाव समय से पहले हो जाएं।
कांग्रेस के पास आखिरी मौका है। कर्नाटक भी गया,
तो सब कुछ गया। पार्टी के काफी आर्थिक-संसाधन यहाँ से आ रहे हैं। महाराष्ट्र खोने के
बाद कर्नाटक का ही सहारा था। त्रिशंकु विधानसभा बनी तब भी कांग्रेस की कोशिश होगी
कि सत्ता हाथ में रहे। व्यक्तिगत रूप से राहुल गांधी के लिए यह सबसे बड़ी परीक्षा
है। उनके पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद यह पहला चुनाव है। यह साबित होना है कि वे चुनाव
जिताऊ नेता हैं या नहीं।
राहुल की परीक्षा के अलावा कर्नाटक में
कांग्रेस की सामाजिक-फॉर्मूले की परीक्षा भी है। पार्टी ने गुजरात चुनाव में परस्पर
विरोधी सामाजिक समूहों को जोड़ा, जिनमें दलित, ओबीसी और पाटीदार जैसे अगड़े भी थे।
वहाँ राहुल गांधी ने अपनी हिन्दू-मुखी छवि भी बनाई। कर्नाटक में वे इसे आगे
बढ़ाएंगे। इसमें सफलता मिलेगी या नहीं, यह देखना है।
कर्नाटक में कांग्रेसी
आशा के केन्द्र हैं मुख्यमंत्री सिद्धरमैया।
पिछले एक साल से वे राज्य की जातीय-साम्प्रदायिक और क्षेत्रीय संरचना के हिसाब से
जो समीकरण बैठा रहे हैं, वे बेहद जटिल हैं। राज्य में लिंगायत और वोक्कालिगा दो
प्रभावशाली और सवर्ण जातियाँ हैं। सिद्धरमैया स्वयं ओबीसी कुरबा जाति से ताल्लुक
रखते हैं। कुछ समय पहले तक वे खुद को नास्तिक बताते थे, पर इधर उन्होंने खुद को
अध्यात्मिक बताना शुरू किया है। सभी सामाजिक-समूहों और सभी प्रवृत्तियों का लाभ
उठाने की कोशिश में वे खुद फँस गए हैं।
सिद्धरमैया का बुनियादी फॉर्मूला है अल्पसंख्यक, हिन्दू
दलित और पिछड़ी जातियाँ। इस चुनाव की तैयारी उन्होंने सन 2015 से शुरू कर दी थी,
जब उन्होंने राज्य की जातीय जनगणना कराई। उसके परिणाम कभी घोषित नहीं हुए, पर
सिद्धरमैया ने पिछड़ों और दलितों को 70 फीसदी आरक्षण देने का वादा जरूर किया। हालांकि
आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं किया जा सकता, पर उन्होंने कहा कि हम इसे 70 फीसदी
करेंगे। ऐसा तमिलनाडु में हुआ है, पर इसके लिए संविधान के 76 वां संशोधन करके उसे
नवीं अनुसूची में रखा गया है, ताकि अदालत में चुनौती नहीं दी जा सके। सिद्धरमैया
को इस मामले में केन्द्र का सहयोग नहीं मिलेगा।
सिद्धरमैया ने चुनाव
के ठीक पहले लिंगायतों को अलग धर्म के रूप में मान्यता देने की पहल की। उनकी इस पहल
का असर क्या पड़ा यह देखना होगा। फिलहाल पहली नजर में बजाय फायदा मिलने के नुकसान
होता नजर आ रहा है। कन्नड़-गौरव, हिन्दी-विरोध और उत्तर-दक्षिण भावनाओं को भड़काने
स कन्नड़-प्रेमियों का समर्थन उन्हें कितना मिला कहना मुश्किल है, पर बेंगलुरु
जैसे शहर में जहाँ हिन्दी-भाषी वोटर भी आ गया है, इसकी प्रतिक्रिया भी होगी। इसके
अलावा कांग्रेस को हिन्दी-राज्यों में नुकसान होगा। सिद्धरमैया खुद दो जगह से
चुनाव लड़ रहे हैं। साफ है कि अपना चुनाव जीत पाने के प्रति वे आश्वस्त नहीं हैं।
राहुल गांधी के लिए कर्नाटक हल्दीघाटी के मैदान
जैसा है। पार्टी का चुनाव घोषणापत्र उन्होंने खुद आकर जारी किया है। वे राज्य के
दूर-दराज इलाकों में रैलियाँ कर रहे हैं। पार्टी के घोषणापत्र में वायदा किया गया
है कि किसानों की आमदनी दुगनी करेंगे। ऐसा ही वायदा मोदी की केन्द्र सरकार का है। किसानों
की आय के लिए आयोग और कृषि कॉरिडोर बनाने का वादा भी है। सत्ता में आए तो पांच साल
में एक करोड़ नौकरियां देंगे। आईटी के क्षेत्र में नई पहल शुरू होगी, ताकि राज्य का
आर्थिक स्तर 60 अरब डॉलर से बढ़कर 300 अरब डॉलर हो जाएगा।
कर्नाटक में बीजेपी की तरफ से अमित शाह लम्बे
समय से सक्रिय हैं। पार्टी ने लिंगायत नेता बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद का
प्रत्याशी घोषित किया है। नरेन्द्र मोदी का कर्नाटक अभियान 1 मई से शुरू होने जा
रहा है। राज्य में मोदी की 15 रैलियां होंगी। जाहिर है इस दौरे के साथ ही कर्नाटक
का चुनाव प्रचार अपने चरम पर होगा। बीजेपी को मोदी लहर और येदियुरप्पा के लिंगायत
कार्ड के जरिए सत्ता में वापसी की पूरी उम्मीद है।
राज्य में 35 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां
मुसलमानों की आबादी बीस प्रतिशत या उससे ज़्यादा है। इस वोट पर कांग्रेस के अलावा जेडीएस
की निगाहें भी हैं। दक्षिण कर्नाटक के जिलों में खाड़ी देशों में काम करने वाले
मुसलमानों के परिवार रहते हैं। इनके बीच 'पॉपुलर
फ्रंट ऑफ़ इण्डिया' यानी पीएफआई भी सक्रिय है, जिसपर लव
जेहाद के मार्फत धर्मांतरण को बढ़ावा देने का आरोप है। इसकी प्रतिक्रिया में इस
इलाके में हिन्दूवादी संगठन भी सक्रिय हैं। इन बातों से बीजेपी की
राष्ट्रीय-राजनीति भी प्रभावित होती है।
चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण संकेत कर रहे हैं कि राज्य
में त्रिशंकु विधानसभा आने के आसार हैं। ऐसे में राज्य की तीसरी ताकत जेडीएस की
भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाएगी। एचडी देवेगौड़ा के पुत्र कुमारस्वामी के महत्व
को कम करके नहीं आंकना चाहिए। तीनों ही ताकतें राज्य की सत्ता में किसी न किसी रूप
में भागीदार रहीं हैं। बहरहाल स्थानीय राजनीति के लिए जो है सो है, यह विधानसभा
चुनाव राष्ट्रीय राजनीति के लिए बहुत महत्वपूर्ण साबित होगा।
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