Saturday, May 20, 2017

क्या तैयारी है मोदी के मिशन 2019 की?

नरेन्द्र मोदी महाबली साबित हो रहे हैं। उनके रास्ते में आने वाली सारी बाधाएं दूर होती जा रही हैं। लोगों का अनुमान है कि वे 2019 का चुनाव तो जीतेंगे उसके बाद 2024 का भी जीत सकते हैं। यह अनुमान है। अनुमान के पीछे दो कारण हैं। एक उनकी उम्र अभी इतनी है कि वे अगले 15 साल तक राजनीति में निकाल सकते हैं। दूसरे उनके विकल्प के रूप में कोई राजनीति और कोई नेता दिखाई नहीं पड़ता है। यों सन 2024 में उनकी उम्र 74 वर्ष होगी। उनका अपना अघोषित सिद्धांत है कि 75 वर्ष के बाद सक्रिय राजनीति से व्यक्ति को हटना चाहिए। इस लिहाज से मोदी को 2025 के बाद सक्रिय राजनीति से हटना चाहिए। बहरहाल सवाल है कि क्या उन्हें लगातार सफलताएं मिलेंगी? और क्या अगले सात साल में उनकी राजनीति के बरक्स कोई वैकल्पिक राजनीति खड़ी नहीं होगी?


फिलहाल सवाल है कि क्या वे 2019 के चुनाव में भी जीतकर आएंगे? और उसके जीत को हासिल करने के लिए वे क्या करेंगे? इस लिहाज से अब उनके पिछले तीन साल से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं अगले दो साल। उनके लिए ही नहीं उनके विरोधियों के लिए भी, क्योंकि उसके बाद वे कुछ नहीं कर पाएंगे। इसलिए अगले दो साल यह देखना होगा कि यह प्रतिद्वंद्विता किस दिशा में जाएगी। 

चुनाव के नजरिए से देखें तो अब दो साल भी बाकी नहीं हैं। सन 2018 के अंतिम दिनों में चुनाव के ढोल बजने लगेंगे। पक्ष और विपक्ष के चुनावी गठबंधन उस वक्त तक लगभग तय हो चुके होंगे। राष्ट्रीय राजनीति के ज्यादातर बड़े सवाल उभर कर सामने आ चुके होंगे। यानी कि केवल यही साल बचा है, जो 2019 की राजनीति की दिशा तय करेगा। यह दिशा केवल मोदी सरकार से नहीं जुड़ी है, बल्कि इसमें काफी बड़ी भूमिका विपक्ष की भी होगी।

चुनाव के बाद चुनाव

अगले दो साल में अलग-अलग मैदानों पर होने वाली गतिविधियाँ राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करेगी। पहली गतिविधि है चुनावों की। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के चुनावों की गतिविधियाँ शुरू हो चुकी हैं। इसका गणित एनडीए के पक्ष में है, पर विपक्ष इस चुनाव को एकतरफा नहीं जाने देगा। इस हफ्ते ममता बनर्जी ने सोनिया गांधी से मुलाकात की है। राष्ट्रपति पद के चुनाव में एकता की खातिर तृणमूल कांग्रेस और वाममोर्चा आपसी मतभेद भुलाने को तैयार हैं। मोटे तौर पर लगता है कि कांग्रेस, वामदल, तृणमूल कांग्रेस, जेडीयू, राजद, आम आदमी, सपा और बसपा इस काम में एक साथ आएंगे।  

दूसरी तरफ बीजू जनता दल, डीएमके, अन्ना डीएमके, वाईएसआर कांग्रेस और टीआरएस जैसे दल भी हैं। खबरें मिली हैं कि टीआरएस ने एनडीए का साथ देने का निश्चय किया है। जगन मोहन रेड्डी और अद्रमुक के खेमे से भी ऐसे संदेश  हैं। इसलिए अभी कहना मुश्किल है कि राष्ट्रपति चुनाव के लिए कितने दलों की एकता बनेगी। विपक्षी एकता राष्ट्रपति चुनाव जीतने के लिए नहीं 2019 के चुनावी गठबंधन की कोशिश का हिस्सा है। राष्ट्रपति चुनाव के लिए सम्भव है कि ममता और वाममोर्चा एक साथ आ जाएं, पर बंगाल के चुनाव में वे एकसाथ नहीं आएंगे। विरोधी एकता के साथ कार्यक्रमों और विचारों की एकता और नेतृत्व के सवाल भी खड़े होंगे।

राष्ट्रपति चुनाव के बाद साल के अंत में हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधान सभाओं के चुनाव हैं। अगले साल छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक में चुनाव होंगे। यहाँ भी बीजेपी और कांग्रेस दोनों की इज्जत दाँव पर होगी। मोटे तौर पर 2019 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले इन छह विधानसभाओं के चुनाव देश के चुनावी माहौल की जानकारी देंगे।

महागठबंधन के मंसूबे

पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी को सबसे बड़ी सफलता उत्तर प्रदेश से मिली थी। बिहार में भी उसे अपेक्षाकृत बेहतर सीटें मिलीं थीं। इन दोनों राज्यों में उसे विरोधी दलों के बिखराव का लाभ भी मिला था। सन 2015 के विधानसभा चुनाव में विपक्ष की रणनीति बदली और महागठबंधन बना। इससे बीजेपी का गणित उलट गया। उत्तर प्रदेश में इस साल हुए चुनाव में महागठबंधन तो नहीं था, पर सपा और कांग्रेस का गठबंधन जरूर सामने आया था। सम्भव है कि 2019 में बसपा भी इस गठबंधन में शामिल हो जाए। हालांकि उत्तर प्रदेश और बिहार की परिस्थितियाँ एक जैसी नहीं हैं, पर सम्भव है कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी को 2014 जैसी सफलता न मिले।

अगले लोकसभा चुनाव में बीजेपी का सबसे ज्यादा ध्यान दक्षिण भारत पर होगा। दक्षिण के पाँच में से तीन राज्यों में उसे प्रवेश मिला है, पर तमिलनाडु और केरल उसकी पकड़े में नहीं आए हैं। पाँचों राज्यों की 129 सीटों में से 2014 में उसे केवल 21 सीटें मिलीं थीं। कर्नाटक में उसका दखल सबसे ज्यादा है, जहाँ उसकी सरकार भी रह चुकी है। फिलहाल उसकी रणनीति 2018 के विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने की होनी चाहिए। सन 2013 के विधानसभा चुनाव के वक्त नरेन्द्र मोदी का बीजेपी की राष्ट्रीय राजनीति में दखल नहीं था। अब पहला मौका होगा जब नरेन्द्र मोदी के चेहरे को आगे करके पार्टी वहाँ मैदान में उतरेगी।

मोदी के गठजोड़

2019 के लोकसभा चुनाव के साथ ही तेलंगाना और आंध्र प्रदेश विधानसभाओं के चुनाव भी होंगे। उन चुनावों का महत्व राजनीतिक गठजोड़ के लिहाज से है। अभी तक एनडीए और टीडीपी का गठबंधन आंध्र प्रदेश में कायम है। सम्भव है कि तेलंगाना में एनडीए और टीआरएस का गठबंधन स्थापित हो जाए। तमिलनाडु में प्रवेश के लिए बीजेपी की कोशिश होगी कि अन्नाद्रमुक के साथ रिश्ता बने। जयललिता के निधन के ठीक पहले कांग्रेस भी प्रयास कर रही थी कि उसका अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन हो जाए।

अभी कुछ भी स्पष्ट नहीं है, पर अंदरूनी दबावों के कारण अद्रमुक नेतृत्व बीजेपी के साथ जाने का फैसला करे तो आश्चर्य नहीं होगा। चुनाव अभी दूर है, पर राजनीति में दूर की हलचलें भी माने रखती हैं। बीजेपी की 2019 की रणनीति में दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत का महत्व पहले के मुकाबले ज्यादा होगा। पिछले तीन वर्षों में बीजेपी ने असम, मणिपुर और अरुणाचल में पकड़ा बनाई है। सीटों के लिहाज से पूर्वोत्तर ज्यादा महत्वपूर्ण न सही, पर राजनीति के लिहाज से है। इतना ही महत्वपूर्ण उसके लिए बंगाल है।

मुद्दे और मसले

नरेन्द्र मोदी उस दौर में देश का नेतृत्व कर रहे हैं जब भारत का महाशक्ति के रूप में रूपांतरण हो रहा है। इसी दौर में चीन के आर्थिक विकास की गति क्रमशः धीमी होती जाएगा। अगले एक दशक में भारत की अर्थ-व्यवस्था यदि 8-9 फीसदी की दर से विकास करती रही तो हम दुनिया की तीसरा सबसे बड़ी ताकत होंगे। वह तभी सम्भव होगा, जब मोदी सरकार राजनीतिक रूप से सफल होगी। यह सच है कि नरेन्द्र मोदी ताकतवर राजनेता साबित हुए हैं और अभी तक उनका जादू चल रहा है, पर विपक्ष जनता को उनके वादों की याद दिलाता रहेगा। देश को ताकतवर नेता की जरूरत है, इसीलिए उन तमाम वादों-इरादों पर वह ध्यान नहीं देता जिनकी और विपक्ष उसका ध्यान खींचता है।

ऐसा नहीं है कि जमीन पर हालात बेहतर हैं। स्थिति यह है कि मुद्रास्फीति के आँकड़ों में गिरावट के बावजूद खुदरा बाजार की महंगाई में कोई कमी नहीं है। बेरोजगारी बदस्तूर जारी है। कानून-व्यवस्था लंगड़ी है। काला धन अब भी तहखानों में बैठा है, पुराने की जगह नए नोटों की शक्ल में। बल्लीमारान और चाँदनी चौक का हवाला कारोबार जारी है। कश्मीरी आतंकवाद पत्थरबाजी की छत्रछाया में नए जोशो-जुनून के साथ सिर उठा रहा है। माओवादी हमले रुके नहीं हैं। साम्प्रदायिक वैमनस्य बढ़ा है।

आर्थिक संवृद्धि दर में सुधार है, पर सरकार को खुद लगता है कि यह साल जोखिमों से भरा है। बीजेपी ने दो करोड़ नए रोजगार हर साल पैदा करने का वादा किया था। अभी वह वादा ही है। मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्वच्छ भारत, बेटी पढ़ाओ-बेटी बढ़ाओ, स्मार्ट सिटी वगैरह-वगैरह के प्रचार-पटों की धूम है। पर अच्छे दिन का मुहावरा मजाक बनकर रह गया है। इतनी निराशाजनक शब्दावली के बावजूद इस वक्त देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं। चुनावों में एक के बाद एक मिलती सफलता इसका प्रमाण है। पर इतिहास में ऐसा भी हुआ है, जब कहानियाँ देखते ही देखते बदल गईं।



2019 के पहले के महत्वपूर्ण राजनीतिक पड़ाव

2017
राष्ट्रपति चुनाव
एनडीए के प्रत्याशी की जीत तय है, पर विपक्ष एक प्रत्याशी को खड़ा करके एकता का प्रदर्शन करेगा।
हिमाचल और गुजरात विधानसभा के चुनाव
हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की और गुजरात में बीजेपी की परीक्षा।
2018
राज्यसभा चुनाव
उत्तर प्रदेश विधानसभा की बदली तस्वीर से राज्यसभा में बीजेपी की ताकत बढ़ेगी
छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक में विधानसभा चुनाव
इनमें से तीन राज्य बीजेपी के पास हैं। कांग्रेस को इनमें से किसी में भी मिली सफलता भाजपा के लिए खतरा पैदा करेगी। छत्तीसगढ़ में मुकाबला काँटे का हो सकता है। उधर कांग्रेस के सामने कर्नाटक को बचाने की चुनौती




नवोदय टाइम्स में प्रकाशित

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