Sunday, May 14, 2017

विपक्षी बिखराव के तीन साल

मोदी सरकार के तीन साल पूरे हुए जा रहे हैं। सरकार के कामकाज पर निगाह डालने के साथ यह जानना भी जरूरी है कि इस दौरान विपक्ष की क्या भूमिका रही। पिछले तीन साल में मोदी सरकार के खिलाफ चले आंदोलनों, संसद में हुई बहसों और अलग-अलग राज्यों में हुए चुनावों के परिणामों पर नजर डालें तो यह स्पष्ट होता है कि विरोध या तो जनता की अपेक्षाओं से खुद को जोड़ नहीं पाया या सत्ताधारी दल के प्रचार और प्रभाव के सामने फीका पड़ गया। कुल मिलाकर वह बिखरा-बिखरा रहा।

सरकार और विरोधी दलों के पास अभी दो साल और हैं। सवाल है कि क्या अब कोई चमत्कार सम्भव है? सरकार-विरोधी एक मित्र का कहना है कि सन 1984 में विशाल बहुमत से जीतकर आई राजीव गांधी की सरकार 1989 के चुनाव में पराजित हो गई। उन्हें यकीन है कि सन 2018 में ऐसा कुछ होगा कि कहानी पलट जाएगी। मोदी सरकार को लगातार मिलती सफलताओं के बाद विरोधी दलों की रणनीति अब एकसाथ मिलकर भाजपा-विरोधी ‘महागठबंधन’ जैसा कुछ बनाने की है।
दिल्ली के कॉंस्टीट्यूशन क्लब में इस महीने के शुरू में कांग्रेस, सीपीआई, सीपीएम, एनसीपी, जदयू, बसपा, राष्ट्रीय लोकदल और सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया और लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी जैसी कुछ बड़ी-छोटी पार्टियों की सभा में ‘प्रगतिशील ताक़तों की एकता’ विषय पर हुई चर्चा का सार भी यही था कि साम्प्रदायिकता के उभार के खिलाफ प्रगतिशील ताकतों को एकसाथ आना चाहिए। इस आयोजन के पीछे समाजवादी आंदोलन से जुड़े लोग ज्यादा थे और मौका मधु लिमये की जयंती का था।

यह संयोग नहीं है कि 1967 से अबतक देश में ताकतवर विपक्षी मोर्चा बनाने की सबसे ज्यादा कोशिशें समाजवादी खेमे की ओर से हुईं है। शुरू में यह मोर्चा कांग्रेस-विरोधी था और अब भाजपा-विरोधी। भाजपा को लेकर संशय तब भी था, पर आज वह ‘मूल समस्या है। बहरहाल राष्ट्रीय स्तर के ‘महामोर्चा’ को लेकर संशय आज भी हैं। एक सामान्य समझ है कि भारतीय जनता पार्टी 31 फीसदी वोटों से जीतकर आई है, इसलिए यदि 69 फीसदी की एकता स्थापित कर ली जाए तो बीजेपी को हराना आसान होगा।

यह अंकगणित जितना आसान लगता है, उतना आसान है नहीं। एकता केवल संख्या की नहीं, विचार और राजनीतिक हितों की भी होनी चाहिए। यदि केवल अंकों की बात होती तो राष्ट्रीय स्तर पर केवल दो गठजोड़ ही होने चाहिए। बहरहाल सिद्धांततः एकमत होने के बावजूद विरोधी दल उन कार्यक्रमों और नारों को तैयार नहीं कर पा रहे हैं, जो मोदी के विस्तार को रोकें।

फिलहाल राष्ट्रपति पद के चुनाव में इस एकता को तैयार करने की कोशिश की जा रही है। इस हफ्ते ममता बनर्जी सोनिया गांधी से मिलने दिल्ली आ रहीं हैं। इन पार्टियों की ओर से महात्मा गांधी के प्रपौत्र गोपाल गांधी के नाम पर सहमति बनाने के प्रयास हो रहे हैं। कहा जा रहा है कि राष्ट्रपति पद के चुनाव में एकता की खातिर तृणमूल कांग्रेस और वाममोर्चा आपसी मतभेद भुलाने को तैयार हैं। थोड़ी देर के लिए मान लें कि कांग्रेस, वामदल, तृणमूल कांग्रेस, जेडीयू, राजद, आम आदमी, सपा और बसपा भी एक साथ आ जाएं तब भी यह पूरी तरह विपक्षी एकता नहीं होगी।

बीजू जनता दल, डीएमके, अन्ना डीएमके, वाईएसआर कांग्रेस और टीआरएस जैसे दलों के अलावा छोटे दलों की एक लम्बी कतार और है। इधर खबरें आईं हैं कि टीआरएस ने एनडीए का साथ देने का निश्चय किया है। जगन मोहन रेड्डी और अद्रमुक के खेमे से भी ऐसे संदेश आ रहे हैं। इसलिए अभी कहना मुश्किल है कि राष्ट्रपति चुनाव के लिए कितने दलों की एकता बन पाती है। बहरहाल सैद्धांतिक रूप से यह बड़ा कदम होगा।

विपक्षी एकता राष्ट्रपति चुनाव जीतने के लिए नहीं है। जीत एनडीए प्रत्याशी की होगी, क्योंकि वोट का गणित उसके साथ है। वस्तुतः यह कोशिश 2019 के चुनाव के लिए गठबंधन बनाने की कोशिश का हिस्सा है। इसलिए एक बड़ा सवाल अभी से यह उठेगा कि गठबंधन का नेतृत्व किसके हाथ में होगा। गठबंधन को लोकसभा चुनाव में जीत मिली तो किसका नेता प्रधानमंत्री बनेगा? इसके अलावा आर्थिक और सामाजिक नीतियों की मोटी रूपरेखा क्या होगी?

कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करने के बाद भी इस गठबंधन पर क्षेत्रीय क्षत्रप हावी रहेंगे। यूपीए सरकार की एक बड़ी खामी उसके गठबंधन से भी जुड़ी थी। मनमोहन सिंह इस बात की तरफ कई बार इशारा करते रहे कि हम गठबंधन के कारण मजबूर हैं। इधर क्षेत्रीय पार्टियों के अंतर्विरोध भी उजागर हुए हैं। उत्तर प्रदेश के चुनाव के ठीक पहले समाजवादी पार्टी को अंतर्कलह ने घेर लिया। परिवार के भीतर घमासान शुरू हुआ, जो पार्टी को ले डूबा। दिल्ली में आम आदमी पार्टी के भीतर सिर-फुटौवल है। बसपा जैसे लौह-अनुशासन वाली पार्टी में मायावती की फज़ीहत करने के लिए नसीमुद्दीन जैसे नेता सामने आए हैं, जो उनके सबसे करीबी ‘वफादार’ हुआ करते थे। धुर दक्षिण में अम्मा की पार्टी में अंदरूनी टकराव चल रहा है।

सबसे बड़ा संकट कांग्रेस की क्रमशः घटती ताकत का है। लोकसभा में कांग्रेस 1977, 1989 और 1996 के बाद से कई बार अल्पमत रही है, पर राज्यसभा में उसका वर्चस्व हमेशा रहा है। यानी राज्यों में उसकी हमेशा बेहतर रही। अब पहली बार ऐसा मौका आया है, जब राज्यों की विधानसभाओं में कांग्रेस का संख्याबल भारतीय जनता पार्टी का करीब आधा रह गया है, जो अब राज्यसभा में दिखाई पड़ेगा।

कांग्रेस तय नहीं कर पाई है कि उसका वैचारिक रास्ता सही है या नहीं। उसके सामने नेतृत्व का संकट भी है। राहुल गांधी उस मानसिक घेरे से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं, जो उन्हें अध्यक्ष बनने से रोक रहा है। चुनाव आयोग के लगातार दबाव के बावजूद कांग्रेस के आंतरिक चुनाव टलते जा रहे हैं। औपचारिक रूप से पार्टी अध्यक्ष का चुनाव इस साल 16 सितंबर से 15 अक्टूबर के बीच कराया जाएगा। पर राहुल गांधी का अनिश्चय अभी कायम है।

इस साल के अंत में हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधान सभाओं के चुनाव हैं। सन 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले 2018 में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक में चुनाव होंगे। यहाँ भी बीजेपी और कांग्रेस दोनों की इज्जत दाँव पर होगी। मोटे तौर पर अगले लोकसभा चुनाव के पहले जिन छह विधानसभाओं के चुनाव होने वाले हैं, उन सब में कांग्रेस की अग्नि-परीक्षा है। क्या कांग्रेस इसके लिए तैयार है?हरिभूमि में प्रकाशित

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-05-2017) को
    टेलीफोन की जुबानी, शीला, रूपा उर्फ रामूड़ी की कहानी; चर्चामंच 2632
    पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’अफवाहों के मकड़जाल में न फँसें, ब्लॉग बुलेटिन पढ़ें’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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