Saturday, May 13, 2017

मोदी का भाग्य और विरोधी छींकों का टूटना

लोकसभा चुनाव जीतने भर से किसी राजनीतिक दल का देशभर पर वर्चस्व स्थापित नहीं हो जाता। सन 1977, 1989 और 1996-97 और उसके बाद 1998-2004 तक किसी न किसी रूप में गैर-कांग्रेसी सरकारें दिल्ली की गद्दी पर बैठीं, पर राष्ट्रीय राजनीति पर कांग्रेस का वर्चस्व एक हद तक बना रहा। इसकी वजह थी राज्यों की विधानसभाओं पर कांग्रेस की पकड़। इस पकड़ के कारण राज्यसभा में भी कांग्रेस का वर्चस्व बना रहा। यानी विपक्ष में रहकर भी कांग्रेस प्रभावशाली बनी रही। पर अब वह स्थिति नहीं है।

पिछले तीन साल में केवल संसद और सड़क पर ही नहीं, देश के गाँवों और गलियों तक में विपक्ष की ताकत घटी है। राजनीतिक प्रभुत्व की बात है तो बीजेपी फिलहाल सफल है। पिछले तीन साल में उसने अपनी स्थिति बेहतर बनाई है। जबकि विपक्ष में बिखराव नजर आ रहा है। नोटबंदी के बाद से यह बिखराव और स्पष्ट हुआ है। अभी तक कांग्रेस राज्यसभा में अपनी बेहतर स्थिति के कारण एक सीमा तक प्रतिरोध कर पाती थी, यह स्थिति अब बदल रही है। अगले साल राज्यसभा के चुनाव के बाद स्थितियों में गुणात्मक बदलाव आ जाएगा।
लोकसभा में कांग्रेस 1977, 1989 और 1996 के बाद से कई बार अल्पमत रही है, पर राज्यसभा में उसका वर्चस्व हमेशा रहा है। यानी राज्यों में उसकी हमेशा बेहतर रही। अब पहली बार ऐसा मौका आया है, जब राज्यों की विधानसभाओं में कांग्रेस का संख्याबल भारतीय जनता पार्टी का करीब आधा रह गया है, जो अब राज्यसभा में दिखाई पड़ेगा। हाल में हुए पाँच विधानसभाओं के चुनावों के ठीक पहले देशभर में कुल 4120 विधायकों में से भाजपा के 1096 विधायक थे। अब उनकी संख्या 1400 से ऊपर हो गई है। इन चुनावों के पहले कांग्रेसी विधायकों की संख्या 819 थी जो अब 800 से नीचे चली गई है।

विपक्ष माने क्या?


बीजेपी के मुकाबले राष्ट्रीय स्तर पर केवल कांग्रेस के पास ही विचार और संगठन शक्ति है। पिछले तीन साल में जहाँ-जहाँ कांग्रेस कमजोर हुई है, वहाँ-वहाँ बीजेपी ने उसकी जगह ली है। क्या यह केवल साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के कारण हुआ है? क्या मोदी के विकास के एजेंडा या यह जादू है? क्या यह मजबूत नेता का चमत्कार है? कांग्रेस के विचारकों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि सन 2009-2014 तक के उनके कार्यकाल में ऐसा क्या हुआ, जिसके कारण ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ की स्थिति आ गई। उसके बाद ही हमें ‘उत्तर 2014’ पर विचार करना चाहिए।

कुछ लोग मानते हैं कि नरेन्द्र मोदी के भाग्य से छींके टूटते ही जा रहे हैं। उत्तराखंड में कांग्रेस के भीतर टूट हुई। असम के कांग्रेसी नेतृत्व का महत्वपूर्ण धड़ा अपने आप भाजपा के साथ चला गया। अरुणाचल में कांग्रेस गई, मणिपुर में गई। गोवा में क्या हुआ, किसी को समझ में नहीं आया। सिवा पंजाब के कहीं से ‘खुशखबरी’ नहीं है।

पार्टियों की अंतर्कलह

उत्तर प्रदेश के चुनाव के ठीक पहले समाजवादी पार्टी को अंतर्कलह ने घेर लिया। परिवार के भीतर घमासान शुरू हुआ, जो पार्टी को ले डूबा। इधर दिल्ली में आम आदमी पार्टी के भीतर सिर-फुटौवल शुरू हो गया है। बसपा जैसे लौह-अनुशासन वाली पार्टी में मायावती की फज़ीहत करने के लिए नसीमुद्दीन जैसे नेता सामने आए हैं, जो उनके सबसे करीबी ‘वफादार’ हुआ करते थे। धुर दक्षिण में अम्मा की पार्टी में अंदरूनी फज़ीहत चल रही है।

इसे छींका टूटना कहें या राजनीतिक वास्तविकताओं का प्रस्फुटन? इन पार्टियों के अंतर्विरोध खुल रहे हैं। हाल में कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने संवाददाताओं से कहा, कांग्रेस में शुरू से ही वरिष्ठ और युवा पीढ़ी मिल-जुल कर जिम्मेदारी संभालती आई है। हम साख और अनुभव रखने वाले को खारिज कर उन्हें कोप भवन नहीं भेजते और उसे मार्गदर्शक मंडल नहीं कहते। उनका साफ संकेत भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी को लेकर था।

सुरजेवाला जो भी कहें, उनकी पार्टी का गुब्बारा भी फूट सकता है। उनके यहाँ भी नाराज वरिष्ठ बैठे हैं। नरेन्द्र मोदी की सफलताएं मार्गदर्शक मंडल के अंतेवासियों के गुस्से को बाहर निकलने का मौका नहीं दे रहीं हैं। जबकि उनके विरोधी दलों के अंतर्विरोध खुलते जा रहे हैं। एनडीए सरकार के तीन साल पूरे होने जा रहे हैं। अभी तक लगता नहीं कि मोदी की लोकप्रियता में कमी आई है। इसमें कुछ मोदी का व्यक्तिगत चमत्कार है और कुछ विपक्ष की विफलता।

नीतिगत विमर्श से पलायन

नीतियों के स्तर पर मोदी सरकार के तीन मुख्य स्तम्भ हैं। आर्थिक, विदेश और सुरक्षा। तीनों को लेकर तमाम विवादास्पद फैसले हुए हैं, पर सरकार उन सबसे बाहर निकल आती है। मोदी सरकार ने भूमि-अधिग्रहण की दिक्कतों को लेकर शुरुआत की। विपक्ष ने उसके संशोधनों को राज्यसभा में रोक लिया। एक लम्बी प्रक्रिया के बाद अब संसद के संयुक्त अधिवेशन की नौबत आ रही है। कांग्रेस पार्टी को अंततः जीएसटी का दरवाजा खोलना पड़ा। सरकार ने बजट पेश करने की तारीख बदल दी। अब शायद वित्तवर्ष भी बदलेगा।

विरोधी दलों ने संसद के भीतर और बाहर केवल शोर को राजनीतिक विमर्श माना। संसद में स्वस्थ और शालीन बहसों का दौर शायद खत्म हो चुका है। यह रास्ता लम्बा है, पर पार्टियाँ यदि सकारात्मक रूप से राष्ट्रीय विमर्श में भाग लेतीं तो उनकी बेहतर पहचान बनती। कांग्रेस को लगता था कि नोटबंदी के कारण भाजपा का पहिया उल्टा चलने लगेगा, ऐसा नहीं हुआ। सीमा पर पाकिस्तानी गतिविधियों से लेकर कुलभूषण जाधव तक हर मामले में बीजेपी अपने पक्ष में जनमत बनाने में कामयाब है।

सन 2014 के बाद से विधानसभाओं के जो चुनाव हुए हैं, उनमें सन 2015 में दिल्ली और बिहार विधानसभाओं के चुनावों के अलावा बीजेपी को कहीं ऐसी पराजय का सामना नहीं करना पड़ा, जिससे एंटी इनकम्बैंसी का पता लगे। मोदी के चेहरे पर बीजेपी ओडिशा, महाराष्ट्र और दिल्ली के स्थानीय निकाय चुनावों में जीत हासिल करने में कामयाब रही है।

कांग्रेसी दुविधाएं

बीजेपी को चुनौती देने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी कांग्रेस पर है। पार्टी तय नहीं कर पाई है कि क्या उसे वैचारिक रूप से अपने रास्ते को बदलना चाहिए। उसके पैरों को नेतृत्व-सम्बद्ध भँवरों ने लपेट रखा है। राहुल गांधी उस मानसिक घेरे से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं, जो उन्हें अध्यक्ष बनने से रोक रहा है। चुनाव आयोग के लगातार दबाव के बावजूद कांग्रेस के आंतरिक चुनाव टलते जा रहे हैं। औपचारिक रूप से पार्टी अध्यक्ष का चुनाव 16 सितंबर से 15 अक्टूबर के बीच कराया जाएगा। पर राहुल गांधी का अनिश्चय कायम है। पार्टी कार्यसमिति ने नवंबर 2016 की बैठक में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर उनसे पार्टी की कमान संभालने का अनुरोध किया था। उस समय वरिष्ठ पार्टी नेता एके एंटनी ने कहा था कि राहुल के लिए कांग्रेस अध्यक्ष बनने का यह सही समय है।

पार्टी ने संगठन में बड़े बदलाव की प्रक्रिया शुरू कर दी है। उत्तराखंड और पंजाब में नए अध्यक्षों की नियुक्ति की गई है। राजस्थान में अविनाश पांडे को नया प्रभारी महासचिव बनाया गया है, जहाँ अगले साल चुनाव होने हैं। इस साल के अंत में हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधान सभाओं के चुनाव हैं। सन 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले 2018 में जिन राज्यों के विधानसभा चुनाव होंगे, उन सब में कांग्रेस की परीक्षा है।

छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक इन चारों राज्यों से में बीजेपी और कांग्रेस दोनों की इज्जत दाँव पर होगी। मोटे तौर पर अगले लोकसभा चुनाव के पहले जिन छह विधानसभाओं के चुनाव होने वाले हैं, उन सब में कांग्रेस की अग्नि-परीक्षा है। हिमाचल और कर्नाटक में कांग्रेस की सरकारें हैं। सवाल है कि क्या पार्टी अपनी सरकारों को बचा पाने में कामयाब होगी? या यहाँ भी उसकी हार होगी?

कर्नाटक में हार का मतलब ज्यादा बड़ा होगा, क्योंकि अभी तक दक्षिण में कांग्रेस की इज्जत वहीं पर बची है। दूसरी ओर पार्टी के पास छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में वापसी का मौका भी है। कांग्रेस की सबसे अच्छी सम्भावनाएं छत्तीसगढ़ में हैं, जहाँ पिछले विधानसभा चुनाव में वह जीतते-जीतते हार गई थी।

राष्ट्रपति चुनाव से जुड़ी विपक्षी एकता

सन 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस गैर-भाजपा महागठबंधन में शामिल हुई। हालांकि उसमें उसे बड़ा राजनीतिक लाभ नहीं मिला, पर विपक्षी एकता के कुछ सूत्र जरूर उसके हाथ आए। इन्हीं सूत्रों के सहारे उसने इस साल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन स्थापित किया, पर सफलता के बजाय इतिहास की सबसे बड़ी विफलता मिली।

गठबंधन राजनीति उतनी सरल नहीं है, जितनी दूर से लगता है। इतनी बड़ी संख्या में पार्टियों का होना, बताता है कि किसी न किसी वजह से राजनीतिक हित इतनी बड़ी संख्या में हैं कि उन्हें एक नहीं किया जा सकता। वैचारिक अनेकता के कारण हमारी सामाजिक विविधता में भी छिपे हैं।

बहरहाल अब कांग्रेस राष्ट्रपति चुनाव के लिए विपक्षी एकता का प्रयास कर रही है। इस एकजुटता की कोशिश का असली मकसद भी 2019 के लोकसभा चुनाव हैं। भाजपा को रोकने और कांग्रेस को बचाने काराष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित

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