Thursday, December 24, 2015

संसद केवल शोर का मंच नहीं है

संसद के शीत सत्र को पूरी तरह धुला हुआ नहीं मानें तो बहुत उपयोगी भी नहीं कहा जा सकता. पिछले कुछ वर्षों से हमारी संसद राजनीतिक रोष और आक्रोश व्यक्त करने का मंच बनती जा रही है. वह भी जरूरी है, पर वह मूल कर्म नहीं है.  शीत सत्र में पहले दो दिन गम्भीर विमर्श देखने को मिला, जब संविधान दिवस से जुड़ी चर्चा हुई. अच्छी-अच्छी बातें करने के बाद के शेष सत्र अपने ढर्रे पर वापस लौट आया. सत्र के समापन के एक दिन पहले जुवेनाइल जस्टिस विधेयक के पास होने से यह भी स्पष्ट हुआ कि हमारी राजनीति माहौल के अनुसार खुद को बदलती है.

पिछले शुक्रवार को राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी ने सर्वदलीय सभा बुलाई थी, ताकि सत्र के शेष बचे तीन दिनों में ज्यादा से ज्यादा संसदीय कार्य हो सके. इसमें सहमति बनी कि छह विधेयकों को पास किया जाएगा. इन छह में किशोर न्याय विधेयक का नाम नहीं था. कांग्रेस समेत विपक्ष के ज्यादातर नेता इस विधेयक को प्रवर समिति के पास भेजने के पक्ष में थे. उधर निर्भया मामले में किशोर अपराधी के जेल से छूटने की खबरें आईं. निर्भया के परिवार के सदस्यों ने धरने पर बैठने की घोषणा कर दी. संसद के बाहर जन-रोष बढ़ने पर सारे दलों की राय बदल गई और राज्य सभा ने इसे आनन-फानन पास कर दिया. लोकसभा से यह पहले ही पास हो चुका है.

सरकार ने मंगलवार को राज्यसभा में इस पर चर्चा कराने का फैसला किया. देखते ही देखते वामदलों को छोड़ शेष सभी दलों की राय बदल गई. इससे जुड़े सारे संशोधन वापस ले लिए गए. अब 16 साल से अधिक उम्र के ऐसे अपराधियों पर जघन्य अपराधों के लिए भारतीय दंड संहिता के तहत मुकदमा चलाया जा सकेगा. जघन्य अपराध की मोटी परिभाषा है ऐसे अपराध, जिनमें सात साल या ज्यादा की सज़ा दी जा सकती है. उनपर मुकदमा किशोर न्याय विधेयक के बजाय भारतीय दंड संहिता की धाराओं के तहत चलेगा. इस विधेयक में दूसरी कुछ बातें भी हैं, जो किशोर अपराध के मनोविज्ञान से जुड़ी हैं, पर उनपर न तो संसद में और न बाहर ज्यादा चर्चा हो पाई.
दूसरी तरफ संसद के सामने अभी दूसरे कानून भी पड़े हैं, जिनका देश की प्रशासनिक और आर्थिक व्यवस्था से गहरा रिश्ता है. राज्य सभा में पहले से 18 विधेयक लम्बित हैं, पर उन्हें लेकर जनता का दबाव नहीं है. 

शीत सत्र के समापन के बाद हालांकि अभी पूरा विवरण प्राप्त नहीं हुआ है, पर कहा जा सकता है कि इस साल बजट सत्र के बाद से संसदीय विमर्श में ह्रास आया है. इस साल का बजट सत्र पिछले 15 साल में सबसे अच्छा था. लोकसभा ने अपने निर्धारित समय से 125 फीसदी और राज्यसभा ने 101 फीसदी काम किया. पर मॉनसून और शीत सत्र में कहानी बदल गई. मॉनसून सत्र में लोकसभा में कुल 48 फीसदी समय काम हुआ और राज्यसभा में केवल 9 फीसदी. पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार शीत सत्र में 22 दिसम्बर तक यानी सत्र-समापन के एक दिन पहले तक राज्यसभा में 50 फीसदी काम ही हुआ, जबकि लोकसभा ने इस दौरान 102 फीसदी काम किया.

ऐसा क्यों हो रहा है? क्या इसमें राजनीति की भूमिका है? विधायी कार्य भी तो राजनीति का हिस्सा हैं. विधायी राजनीति पर आक्रोश और विरोध की राजनीति भारी पड़ रही है. शीत सत्र में पिछले सत्र का काफी विधायी कार्य पड़ा था. इनमें तीन अध्यादेशों को क़ानून बनवाने के अलावा आठ बिल लोकसभा में और 11 राज्यसभा में अटके थे. नए-पुराने मिलाकर कुल 35 विधेयक दोनों सदनों के सामने थे. जीएसटी, भूमि अधिग्रहण, ह्विसिल ब्लोवर संरक्षण, भ्रष्टाचार रोकथाम, बैंकरप्सी कोड, रियल एस्टेट रेग्युलेशन, फैक्ट्री संशोधन और आरबीआई एक्ट जैसे कई महत्वपूर्ण विधेयक हैं, जिनका अर्थव्यवस्था से सीधा रिश्ता है.

सत्तापक्ष को सन 2014 के लोकसभा चुनाव में भले ही स्पष्ट बहुमत मिल गया, पर राज्यसभा में वह अल्पमत में है. इस बीच एक बहस यह शुरू हुई है कि राज्यसभा प्रत्यक्ष रूप से चुना गया सदन नहीं है. क्या उसे निम्न सदन के ऊपर महत्व मिलना चाहिए. वित्तमंत्री अरुण जेटली ने एक साक्षात्कार में कहा कि जब एक चुने हुए सदन ने विधेयक पास कर दिए तो राज्यसभा क्यों अड़ंगे लगा रही है? उनके मुताबिक़, इस पर बहस होनी चाहिए कि संसद का ऊपरी सदन क्या सीधे चुने हुए निचले सदन से पारित विधेयकों को रोक सकता है?

संविधान सभा में भी इस बात को लेकर चर्चा हुई थी. दो सदन वाली विधायिका का फैसला इसलिए किया गया क्योंकि इतने बड़े और विविधता वाले देश के लिए संघीय प्रणाली में ऐसा सदन जरूरी था. धारणा थी कि सीधे चुनाव के आधार पर बनी एकल सभा देश के सामने आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए नाकाफी होगी. राज्यसभा भी चुना हुआ सदन है. इसके चुनाव का तरीका लोकसभा से पूरी तरह अलग है. राज्यसभा, संतुलन बनाने वाला या विधेयकों पर फिर से ग़ौर करने वाला पुनरीक्षण सदन है. जवाहर लाल नेहरू ने सदन की ज़रूरत को बताते हुए लिखा है, "निचली सदन से जल्दबाजी में पास हुए विधेयकों की तेजी, उच्च सदन की ठंडी समझदारी से दुरुस्त हो जाएगी."

फिलहाल सरकार राज्यसभा में अल्पमत होने के कारण भूमि अधिग्रहण विधेयक में संशोधन कराने में नाकामयाब रही. जीएसटी विधेयक के साथ भी ऐसा हुआ. पर किशोर न्याय कानून के साथ ऐसा क्यों नहीं हुआ? इसके पीछे शुद्ध व्यावहारिक राजनीति है. जो सवाल जनता को भावनात्मक रूप से भारी लगते हैं वे राजनीति के सवाल भी बन जाते हैं.

मान लिया कि राजनीतिक कारणों से बहुत से विधेयकों को सदन का समर्थन नहीं मिल सकता, पर प्रश्नोत्तर काल में बेरुखी क्यों? लोकसभा में प्रश्नोत्तर काल में जहाँ 87 प्रतिशत समय का उपयोग हुआ, वहीं राज्यसभा में केवल 14 प्रतिशत. प्रश्नोत्तर काल में देश को बहुत सी महत्वपूर्ण जानकारियाँ हासिल होती हैं. महत्वपूर्ण प्रश्नों पर होने वाली चर्चा पर बिताए गए समय को देखेंगे तो स्थिति उत्साहवर्धक नहीं. इस सत्र में लोकसभा ने संविधान पर चर्चा में साढ़े तेरह घंटे और राज्यसभा ने साढ़े अठारह घंटे का समय लगाया.

तमिलनाडु की बाढ़ और सूखे, नेपाल जैसे कुछ मामलों को छोड़ दें तो तमाम मामले संसदीय विमर्श से बाहर मिलेंगे. हाल में दिल्ली में प्रदूषण को लेकर बड़े फैसले हुए, पर संसद में इस विषय पर बड़े सवाल नहीं हुए. महंगाई जैसा विषय भी बड़ी चर्चा का विषय नहीं बना, जबकि इन दिनों अरहर की दाल का बाजार गर्म है. इसमें मीडिया की भूमिका भी है. संसद की बहसें मीडिया की कवरेज का विषय नहीं बनतीं. एक समय तक अखबारों में संसद की कार्यवाही नियमित कवरेज का हिस्सा बनती थी. अब नहीं बनती. किसे जिम्मेदार कहें?

प्रभात खबर में प्रकाशित


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