Tuesday, September 22, 2015

नेताजी को लेकर इतनी ‘गोपनीयता’ ठीक नहीं


हो सकता है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस को लेकर जो संदेह व्यक्त किए जा रहे हैं वे निर्मूल साबित हों, पर यह बात समझ में नहीं आती कि सत्तर साल बाद अब वे कौन से रहस्य हैं जिनके सामने आने से हमारे रिश्ते दूसरे देशों से बिगड़ जाएंगे। पारदर्शिता का तकाजा है कि गोपनीयता के वर्ष तय होने चाहिए। तीस-चालीस या पचास साल क्या इतिहास पर पर्दा डालने के लिए काफी नहीं होते? यदि ऐसा रहा तो दुनिया का इतिहास लिखना मुश्किल हो जाएगा। दूसरी ओर अतिशय गोपनीयता कई तरह की अफवाहों को जन्म देती है, जो हमारे हित में नहीं है।

अब जब पश्चिम बंगाल सरकार ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवन से जुड़ी फाइलों को सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत कर दिया है, भारत सरकार पर इस बात का दबाव बढ़ेगा कि वह अपनी फाइलों को भी गोपनीयता के दायरे से बाहर लाए। यह बात इसलिए जरूरी लगती है क्योंकि बंगाल की फाइलों की शुरुआती पड़ताल से यह संदेह पुख्ता हो रहा है कि नेताजी का निधन 18 अगस्त 1945 को हुआ भी था या नहीं। फाइलों के 12,744 पृष्ठ पढ़ने और उनका निहितार्थ समझने में समय लगेगा, पर राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि मैंने उसमें से कुछ फाइलें पढ़ीं। उन फाइलों के अनुसार 1945 के बाद नेताजी के जिंदा होने की बात सामने आई है।
ममता बनर्जी ने यह भी कहा कि फाइलों से पता चला है कि नेताजी की जासूसी भी होती थी। जासूसी कौन करता था और क्यों करता था, इसे समझने की जरूरत है। नेताजी हमारे राष्ट्रीय इतिहास का हिस्सा रहे हैं। उस इतिहास की पूरी छानबीन करने की माँग में क्या गलत है? इस तथ्य की पुष्टि करने की जरूरत भी है कि क्या महात्मा गांधी के पास नेताजी के बाबत कोई जानकारी थी। एक बार गांधी जी ने कहा था कि मेरा मन नहीं कहता कि सुभाष बोस का निधन हो गया है। उन्होंने कभी यह भी कहा था कि बोस परिवार को उनका श्राद्ध नहीं करना चाहिए क्योंकि उनकी मौत को लेकर एक प्रश्न चिह्न लगा हुआ है। बाद में उन्होंने अपनी बात को बदल दिया था।

नेताजी को लेकर पिछले दस साल से संशय भरे सवाल उठाए जा रहे हैं। पिछले साल पत्रकार अनुज धर ने नेताजी पर लिखी किताब ‘नेताजी रहस्य गाथा’ में इस बात को पूरे विश्वास के साथ लिखा कि गांधीजी के पास कुछ सूचना थी। अनुज धर को लगता है कि गांधीजी को शिकागो ट्रिब्यून के पत्रकार अल्फ्रेड वैग से कुछ सूचना मिली होगी जो ताइवान गए थे। अल्फ्रेड वैग के अनुसार ऐसी दुर्घटना नहीं हुई थी। लम्बे अरसे से देशवासी जानना चाहते हैं कि सुभाष चन्द्र बोस का क्या हुआ? क्या वे विमान दुर्घटना में मारे गए थे, या रूस में उनका अंत हुआ? या फिर सन् 1985 तक वे गुपचुप गुमनामी बाबा बनकर उत्तर प्रदेश के अयोध्या शहर में रहे?

पिछले साल 16 जनवरी 2014 को कलकत्ता हाईकोर्ट ने नेताजी के रहस्य से जुड़े खुफिया दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की माँग वाली जनहित याचिका पर सुनवाई के लिए स्पेशल बेंच के गठन का आदेश दिया था। अब पश्चिम बंगाल सरकार ने अपनी पहल पर ये दस्तावेज जारी कर दिए हैं, पर जब तक केंद्र सरकार अपने पास उपलब्ध दस्तावेजों को सार्वजनिक नहीं करेगी इसके सारे पहलुओं पर रोशनी नहीं पड़ पाएगी।

द्वितीय विश्वयुद्ध में हिरोशिमा और नगासाकी एटम गिरने के बाद 15 अगस्त 1945 को जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया। समर्पण की औपचारिकता 2 सितम्बर को हुई थी। समर्पण के ठीक तीन दिन बाद नेताजी के विमान की दुर्घटना हुई। माना जाता है कि नेताजी के लिए जापान से निकलना जरूरी हो गया था। उन्होंने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था। 18 अगस्त 1945 को वे हवाई जहाज से मंचूरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गए। और फिर वे कभी नहीं दिखाई दिए। 23 अगस्त 1945 को जापानी मीडिया में इस आशय की खबरें आईं कि नेताजी एक बड़े बमवर्षक विमान से आ रहे थे कि 18 अगस्त को ताइहोकू हवाई अड्डे के पास उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। वे गम्भीर रूप से जल गए थे। उन्हें ताइहोकू सैनिक अस्पताल ले जाया गया जहाँ उनका निधन हो गया। सितम्बर के मध्य में उनकी अस्थियाँ संचित करके जापान की राजधानी तोक्यो के रेंकोजी मन्दिर में रख दी गईं।

स्वतन्त्रता के बाद भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए 1956 में शाहनवाज आयोग और 1970 में जीडी खोसला आयोग का गठन किया। दोनों का निष्कर्ष था कि नेताजी का निधन उस विमान दुर्घटना में ही हुआ था। पर इस कहानी को लेकर अविश्वास पहले दिन से था। कई तरह की साजिशों के अंदेशे पहले दिन से थे। तीन सदस्यीय शाहनवाज आयोग में सुभाष बोस के भाई सुरेश चंद्र बोस भी सदस्य थे, जिन्होंने आयोग की अंतिम रिपोर्ट में दस्तखत करने से इंकार कर दिया था और अपनी अलग रिपोर्ट जारी की।

इन विवादों को देखते हुए ही शायद खोसला आयोग ने यह साबित करने की कोशिश भी कि यह विवाद राजनीतिक कारणों से खड़ा किया जा रहा है। बहरहाल विवाद खत्म नहीं हुए और सन 1999 में जस्टिस एमके मुखर्जी आयोग को जाँच का काम सौंपा गया, जिसने साफ तौर पर कहा कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। इसके पहले के दो आयोग कांग्रेस सरकारों ने गठित किए थे। मुखर्जी आयोग एनडीए सरकार ने बनाया था, पर उसकी रिपोर्ट तब आई जब देश में कांग्रेस सरकार थी। सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।

क्या इन बातों से निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं? पर निष्कर्ष निकालने के पहले दस्तावेजों को देश के सामने रखना चाहिए। दिक्कत यह है कि पिछले साल लोकसभा चुनाव होने के पहले तक भाजपा की ओर से फाइलों को सार्वजनिक करने की माँग की जाती थी। पर सरकार बनने के बाद भाजपा नीत सरकार ने नेताजी से जुड़ी 39 गोपनीय फाइलों को सार्वजनिक करने से इनकार कर दिया। पिछले साल जनवरी में लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अपनी कटक यात्रा के समय नेताजी की 117वीं जयंती के मौके पर मांग की थी कि संप्रग सरकार उनसे जुड़े रिकॉर्ड को सार्वजनिक करे। प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने कुछ समय पहले एक आरटीआई अर्जी के जवाब में स्वीकार किया था कि बोस से जुड़ी 41 फाइलें हैं जिनमें से दो गोपनीय की सूची में नहीं हैं। इन्हें सार्वजनिक करने से इंकार कर सरकार ने कहा कि इन फाइलों में दर्ज दस्तावेजों के खुलासे से दूसरे देशों के साथ रिश्ते प्रतिकूल तरीके से प्रभावित होंगे।

फाइलों को सार्वजनिक करना तो दूर की बात है सरकार इन फाइलों की सूची भी देने को तैयार नहीं है। आखिर कौन सा रहस्य है इन फाइलों में? सवाल रहस्य का ही नहीं पारदर्शिता का है। भारत सरकार इस मामले में रूस सरकार से हुए पत्राचार को भी जारी करने को तैयार नहीं है। बंगाल सरकार की फाइलें सामने आ गईं हैं, पर लगता नहीं कि इनसे कोई बड़ी बात निकलेगी। असल जानकारी दिल्ली, लंदन, वॉशिंगटन और मॉस्को में है। उसे सामने आना चाहिए।हरिभूमि में प्रकाशित

4 comments:

  1. इस बात से मैं भी पूर्णत: सहमत हूँ!

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  2. Bilkul sahi likha hai aapne sir. I fully agree and I wonder why such an attitude.

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  3. भावपूर्ण प्रस्तुति.
    कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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  4. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन रामधारी सिंह 'दिनकर' और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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