Sunday, September 13, 2015

युवा वोटर करेगा बिहार का फैसला



इसी शुक्रवार की बात है। एक चैनल ने बिहार को लेकर एक कार्यक्रम किया, जिसमें लालू यादव नौजवानों के बीच थे। लालू ने अपने लम्बे भाषण के दौरान अपने भावुक अंदाज में नौजवानों से पूछा, आप जातिवाद में यकीन करते हैं? एक स्वर में जवाब आया, ‘नहीं।’ लालू शायद इस जवाब की उम्मीद से नहीं गए थे। पर वे भी अनुभवी राजनेता है। उन्होंने अपने सवाल को फिर से पैकेज किया और बोले, ‘जाति का सवाल प्रासंगिक है या नहीं?’ इसपर फिर एक स्वर से जवाब आया, ‘जाति प्रासंगिक नहीं है।’ इस पर लालू ने कहा, मैं आपकी राय का आदर करता हूँ। इसके बाद उन्होंने बिहार में जाति की प्रासंगिकता पर कुछ बातें कहीं। खासतौर से पिछड़ी जातियों के सशक्तीकरण को लेकर उन्होंने लोहिया जी के विचारों से नौजवानों को अवगत कराया। शायद नौजवान फिर भी उनकी बात से संतुष्ट नहीं थे। एक लड़की ने कहा, आप जातिवाद कर रहे हैं। इस पर लालू ने ऊँचे तेवर से कहा, मैं जातिवाद नहीं कर रहा हूँ, बल्कि हाशिए पर जा चुके लोगों की बात को उठा रहा हूँ।


या तो ऑडियंस सही नहीं थी या लालू अपनी बात को सही तरीके से नहीं रख पाए, इस कार्यक्रम का असर वही नहीं रहा जो लालू चाहते रहे होंगे। पर इसका मतलब यह नहीं कि बिहार का युवा वर्ग जाति के संदर्भ में नहीं सोचता। देखना है कि राज्य में इस बार असली मुद्दा क्या बनेगा। जाति, सम्प्रदाय, विकास या कुछ और। इतना जरूर लगता है पिछले चुनावों के मुकाबले इस बार युवा वोटर की भूमिका सबसे ज्यादा होगी। राज्य में 18 से 40 की उम्र वाले वोटरों की संख्या लगभग 62 प्रतिशत हैं। बिहार में 2010 के विधानसभा चुनाव में वोटरों की संख्या थी 5,51,20,656 जो बढ़कर इसबार 6,65,26,658 हो गई है। औसतन 50 हजार नए युवा वोटर हरेक विधानसभा क्षेत्र में आए हैं। उनकी भूमिका महत्वपूर्ण होगी, उनके मुद्दे भी महत्वपूर्ण होंगे। शिक्षा और रोजगार। बिहार के विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की कमी का मुद्दा जस का तस है। राज्य में आखिरी बार विवि शिक्षकों की नियुक्ति 2003 में हुई थी तब 1050 शिक्षकों की नियुक्ति हुई थी। इसके बाद से कभी नियुक्ति नहीं हुई और 6 हजार शिक्षकों के लिए पद खाली हैं।

पर बिहार अपने जातीय गठबंधनों के लिए जाना जाता है। यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि उसकी यह प्रवृत्ति एक झटके में दूर हो जाएगी। सम्भव है कि जाति की राजनीति में कुछ हेर-फेर हो। ये हेर-फेर महागठबंधन और एनडीए के जातीय गठबंधनों का भी हो सकता है और मुद्दों का भी। पर बिहार के सारे विश्लेषण जाति केंद्रित हैं। देश के सभी इलाकों में, जिनमें बिहार भी शामिल है तकरीबन दस फीसदी वोटर ऐसा है जो जाति या धर्म के आधार पर वोट नहीं करता। उसका फैसला सारे चुनाव पर असर डालेगा। यह चुनाव नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार और शायद सोनिया गांधी की प्रतिष्ठा से जुड़ा है। हालांकि कांग्रेस का बिहार में कोई बड़ा दाँव नहीं है, पर पिछले एक साल में कांग्रेस ने मोदी को हराने की रणनीति विकसित की है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की अप्रत्याशित जीत के पीछे एक कारण यह भी था कि कांग्रेस ने मोदी को हराने का निश्चय कर लिया था। यदि बिहार में भी मोदी की पराजय होती है तो शेष देश में संदेश जाएगा कि मोदी का उतार शुरू हो चुका है।

वरिष्ठ पत्रकार कमर वही नकवी ने लिखा है, लोग पूछते हैं कि चुनाव जीत कौन रहा है! लेकिन यहाँ (बिहार में) सवाल उलटा है कि चुनाव हार कौन रहा है? बिहार के धुआँधार का अड़बड़ पेंच यही है! चुनाव है तो कोई जीतेगा, कोई हारेगा। लेकिन बिहार में इस बार जीत से कहीं बड़ा दाँव हार पर लगा है! जो हारेगा, उसका क्या होगा?...नरेन्द्र मोदी और नीतीश के बीच यह दूसरा महायुद्ध है। पहले में नीतीश बुरी तरह खेत रहे... अब पन्द्रह महीने बाद पाटलीपुत्र की दूसरी लड़ाई में अगर नीतीश फिर हार गए तो?...उधर नरेन्द्र मोदी-अमित शाह की जुगल जोड़ी! केजरीवाल की झाड़ू से दिल्ली से बुहार दिए जाने के बाद अपनी अगली लड़ाई में बीजेपी अगर बिहार विधानसभा चुनाव में भी हार गई तो क्या मुँह रह जाएगा? ...बिहार में हार होती है तो अमित शाह की 'चुनावी जादूगरी' का वह मिथक ध्वस्त हो जाएगा, जो महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर में मिली लगातार जीत से बना था।

चुनाव की घोषणा होने के बाद मीडिया हाउसों ने परिणामों के जो पहले अनुमान जारी किए हैं वे स्थिति को बजाय सुलझाने के उलझा रहे हैं। हार और जीत के दोनों तरफ के अनुमान हैं। कोई साफ तस्वीर नहीं है। सामाजिक गणित देखें तो महागठबंधन की स्थिति अच्छी नजर आएगी, क्योंकि ओबीसी, दलित और मुसलमान उसके साथ हैं। जनता परिवार के एक होने की कोशिशों के पीछे सबसे बड़ी वजह नरेंद्र मोदी हैं। बीजेपी के बढ़ते असर को रोकने के लिए एक छतरी की परिकल्पना बिहार में अगस्त 2014 में हुए उप-चुनाव में सफल हुई थी, जब मोदी लहर के उस दौर में बीजेपी-विरोधी गठबंधन 10 में से 6 सीटें निकाल ले गया। इसके बाद सितम्बर 2014 में उत्तर प्रदेश में 11 सीटों पर उपचुनाव हुए, जिनमें भाजपा को केवल तीन सीटें मिलीं।

पिछले लोकसभा चुनाव में बिहार में भाजपा का मुकाबला बिखरे विपक्ष से था। एनडीए को 40 में से 31 सीटें मिलीं। इनमें भाजपा की 22 सीटें थीं। यूपीए को 7 और जेडीयू को 2 सीटें मिलीं। महागठबंधन में अब एनसीपी नहीं है, पर जेडीयू है, जिससे जातीय संरचना बेहतर हो गई है। पर क्या इससे बुनियादी फर्क पड़ेगा? सीएसडीएस-लोकनीति का विश्लेषण है कि महागठबंधन में शामिल दलों के बिखरे वोटों को जोड़ लिया जाता तो विधानसभा की 73+17 यानी 90 सीटों पर एनडीए और 29+43+22 यानी 94 सीटों पर महागठबंधन की जीत सम्भव थी। शेष 59 सीटों में वोटों का अन्तर दस फ़ीसदी से कम था। यहाँ नतीजे बदल सकते हैं। इनमें से आधी सीटों पर दलितों की आबादी ज़्यादा है। इसका व्यावहारिक अर्थ सीटों के बँटवारे से पता लगेगा। फिर वोट काटने वाली ताकतें सक्रिय होंगी।

सन 2010 के विधानसभा चुनाव में सपा ने 146 सीटों पर चुनाव लड़ा था। सभी सीटों पर उसकी जमानत जब्त हुई थी। उसे कुल वोटों का 0.55 फीसदी वोट ही मिला था। इस बार आखिरी मौके पर समाजवादी पार्टी ने महागठबंधन से हाथ खींच लिया है। भाजपा की रणनीति में महागठबंधन का खेल बिगाड़ने के लिए असदुद्दीन ओवेसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन तथा पप्पू यादव का जन अधिकार मोर्चा भी है। दलितों को वोट खींचने के लिए बीजेपी के पास पासवान और जीतन राम माँझी हैं। बिहार में 16 फीसदी दलित वोट और 17 फीसदी मुस्लिम वोट है। भाजपा की रणनीति होगी कि मुस्लिम वोट एकमुश्त महागठबंधन को न मिले और महागठबंधन की कोशिश होगी कि मुसलमानों को यह बात समझाई जाए कि मोदी से बचना है तो हमारा साथ दो। सवाल यह भी है कि क्या मुसलमान मोदी से वास्तव में डरते हैं। बिहार कई सवालों का जवाब देगा।हरिभूमि में प्रकाशित


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