Monday, August 22, 2011

यह बदलाव की प्रक्रिया है, देर तक चलेगी



अन्ना के अनशन के सात दिन आज पूरे हो जाएंगे। और अभी तक यह समझ में नहीं आ रहा है कि यह कब तक चलेगा और कहाँ तक चलेगा। आंदोलन के समर्थन और विरोध में बहस वह मूल प्रश्नों के बाहर नहीं निकल पाई है। क्या केवल इस कानून से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा? क्या यह सम्भव है कि अन्ना का प्रस्तावित विधेयक हूबहू पास कर दिया जाए? सरकार ने जो विधेयक पेश किया है उसका क्या होगा? क्या सरकार उसे वापस लेने को मजबूर होगी? सवाल यह भी है कि सरकार ने विपक्षी दलों के साथ इस विषय पर बात क्यों नहीं की। क्या वह उनके सहयोग के बगैर इस संकट का सामना कर सकेगी? क्या हम किसी बड़े व्यवस्था परिवर्तन की ओर बढ़ रहे हैं? क्या सरकार आने वाले राजनैतिक संकट की गम्भीरता को नहीं समझ पा रही है?

Sunday, August 21, 2011

आंदोलन तैयार कर रहा है एक राजनीतिक शून्य



लड़ाई का पहला राउंड अण्णा हज़ारे के पक्ष में गया है। टीम-अण्णा ने यूपीए को तकरीबन हर मोड़ पर शिकस्त दे दी है। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के पास कोई बड़ा संगठनात्मक आधार नहीं है और इतने साधन भी नहीं कि वे कोई बड़ा प्रचार अभियान चला पाते। पर परिस्थितियों और उत्साही युवा कार्यकर्ताओं ने कहानी बदल दी। सोशल नेटवर्किंग साइटों और एसएमएस के रूप में मिली संचार तकनीक ने भी कमाल किया। पर यह आंदोलन की जीत ही नहीं, सरकारी नासमझी की हार भी है। उसने इस आंदोलन को मामूली राजनैतिक बाज़ीगरी मान लिया था। बाबा रामदेव के अनशन को फुस्स करने के बाद सरकार का हौसला और बढ़ गया।

शुक्रवार की शाम रामलीला मैदान पर मीडिया से चर्चा के दौरान अरविन्द केजरीवाल ने कहा, हम चुनाव नहीं लड़ेंगे। हम जनता हैं, जनता ही रहेंगे। बात अच्छी लगती है, अधूरी है। जनता के आंदोलन का अर्थ क्या है? इस दौरान पैदा हुई जन-जागृति को आगे लेकर कौन जाएगा? लोकपाल की माँग राजनैतिक थी तो राजनैतिक माध्यमों के मार्फत आती। जनता लोकपाल विधेयक की बारीकियों को नहीं समझती। उसका गुस्सा राजनैतिक शक्तियों पर है और वह वैकल्पिक राजनीति चाहती है। टीम अण्णा का राजनैतिक एजेंडा हो या न हो, पर इतना साफ है कि यह कांग्रेस-विरोधी है। यूपीए और कांग्रेस का राजनीति हाशिए पर आ गई है। और कोई दूसरी ताकत उसकी जगह उभर नहीं रही है। इस समूचे आंदोलन ने जहाँ देश भर को आलोड़ित कर दिया है वहीं राजनैतिक स्तर पर एक जबर्दस्त शून्य भी पैदा कर दिया है। इस आंदोलन से जो स्पेस पैदा हुआ है उसे कौन भरेगा?

Friday, August 19, 2011

यह जनांदोलन है



इस आंदोलन में दस हजार लोग शामिल हैं या बीस हजार. यह आंदोलन प्रतिक्रयावादी है या प्रतिगामी, अण्णा अलोकतांत्रिक हैं या अनपढ़, इस बहस में पड़े बगैर एक बात माननी चाहिए कि इसके साथ काफी बड़े वर्ग की हमदर्दी है, खासकर मध्यवर्ग की। गाँव का गरीब, दलित, खेत मजदूर यों भी अपनी भावनाएं व्यक्त करना नहीं जानता। उनके नाम पर कुछ नेता ही घोषणा करते हैं कि वे किसके साथ हैं। मध्य वर्ग नासमझ है, इस भ्रष्टाचार में भागीदार है, यह भी मान लिया पर मध्यवर्ग ही आंदोलनों के आगे आता है तब बात बढ़ती है। इस आंदोलन से असहमति रखने वाले लोग भी इसी मध्यवर्ग से आते हैं। आप इस आंदोलन में शामिल हों या न हों, पर इस बात को मानें कि इसने देश में बहस का दायरा बढ़ाया है। यही इसकी उपलब्धि है।



अण्णा हजारे के आंदोलन की तार्किक परिणति चाहे जो हो, इसने कुछ रोचक अंतर्विरोध खड़े किए हैं। बुनियादी सवाल यह है कि  इसे जनांदोलन माना जाए या नहीं। इसलिए कुछ लोग इसे सिर्फ आंदोलन लिख रहे हैं, जनांदोलन नहीं। जनांदोलन का अर्थ है कि उसके आगे कोई वामपंथी पार्टी हो या दलित-मजदूर नाम का कोई बिल्ला हो। जनांदोलन को परिभाषित करने वाले विशेषज्ञों के अनुसार दो बातें इसे आंदोलन बना सकतीं हैं। एक, जनता की भागीदारी। वह शहरी और मध्य वर्ग की जनता है, इसलिए अधूरी जनता है। सरकारी दमन भी इसे आंदोलन बनाता है। पर इस आंदोलन का व्यापक राजनैतिक दर्शन स्पष्ट नहीं है। कम से कम वे प्रगतिशील वामपंथी नहीं हैं। इसलिए यह जनांदोलन नहीं है। बल्कि इनमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता घुसे हुए हैं। इस आंदोलन का वर्ग चरित्र तय हो गया कि ये लोग शहरी मध्य वर्ग के सवर्ण और आरक्षण विरोधी आंदोलन चलाने वाले लोग हैं। यह आंदोलन मीडिया ने खड़ा किया है। इसके पीछे भारतीय पूँजीपति वर्ग और अमेरिका है। कुछ लोग इसे अण्णा और कांग्रेस की मिली-भगत भी मानते हैं।

Tuesday, August 16, 2011

जीवंत पत्रकारिता के सवाल


रांची के दैनिक प्रभात खबर की स्थापना करने वाले पत्रकारों के मन में जोशो-खरोश कितना था, इसका आज अनुमान भर लगाया जा सकता है। कारोबारी चुनौतियाँ इस अखबार को खत्म कर देतीं, क्योंकि सिर्फ जोशो-खरोश किसी कारोबार को बनाकर नहीं रखता। अखबार को पूँजी चाहिए। बहरहाल प्रभात खबर का भाग्य अच्छा था और उसे चलाने वाले कृत-संकल्प संचालक और काबिल सम्पादक मिले। मेरे विचार से हरिवंश उस परम्परा के आखिरी बचे चिरागों में से एक हैं, जिनके सहारे हिन्दी पत्रकारिता की राह रोशन हो रही है। वे एक अंतर्विरोध को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं। क्या है वह अंतर्विरोध?

हरिवंश ने इस अंतर्विरोध का जिक्र 14 अगस्त के अपने आलेख में किया है, जिसकी इन पंक्तियों पर गौर किया जाना चाहिएः- एक 20 पेज के सभी रंगीन पेजों के अखबार की लागत कीमत 15 रुपए है. हॉकरों-एजेंटों का कमीशन अलग। पाठकों को ऊपर से पुरस्कार चाहिए। कहा भी जा रहा है कि अखबार उद्योग पाठकों को पढ़ने का पैसा दे रहे हैं। इस पर समाज की मांग कि सात्विक अखबार निकले, पवित्र पत्रकारिता हो। अखबार उपभोक्तावादी समाज, गिफ्ट के लोभी और मुफ्त अखबार चाहनेवाले पाठकों के लिए लड़े? अखबारों की इकोनॉमी, विज्ञापनदाताओं के कब्जे में रहे, पर अखबार समाज के लिए लड़े, यह कामना? क्या इन अंतरविरोधी चीजों पर चर्चा नहीं होनी चाहिए। पाठकों और समाज को इस दोहरे चिंतन पर नहीं सोचना चाहिए। साधन यानी पूंजी पवित्रता से आएगी, बिना दबाव बनाए या बड़े सूद या बड़ा रिटर्न (सूद) की अपेक्षा के, तब शायद साधन यानी पत्रकारिता भी पवित्र होगी। साधन और साध्य के सवाल को अनदेखा कर सही पत्रकारिता संभव है?’

Monday, August 15, 2011

किससे करें फरियाद कोई सोचता भी तो हो


सैंकड़ों नाले करूँ लेकिन नतीजा भी तो हो।
याद दिलवाऊँ किसे जब कोई भूला भी तो हो।



हर साल पन्द्रह अगस्त की तारीख हमें घर में आराम करने और पतंगें उड़ाने का मौका देती है। तमाम छुट्टियों की सूची में यह भी एक तारीख है। सरकारी दफ्तरों, स्कूलों, सार्वजनिक संस्थाओं में औपचारिक ध्वजारोहणों के साथ मिष्ठान्न वितरण की व्यवस्था भी होती है। 26 जनवरी और पन्द्रह अगस्त साल के दो दिन हमने राष्ट्र प्रेम के नाम सुरक्षित कर दिए हैं। तीसरा राष्ट्रीय पर्व 2 अक्टूबर है। एक अलग किस्म की औपचारिकता का दिन। एक बड़ा तबका नहीं जानता कि देश की उसके जीवन में क्या भूमिका है। और देशप्रेम से उसे क्या मिलेगा? करोड़ों अनपढ़ों और गैर-जानकारों की बात छोड़िए।  पढ़े-लिखों के दिमाग साफ नहीं हैं।