Tuesday, October 14, 2025

भारत-तालिबान के बीच बढ़ती गर्मजोशी और कुछ असमंजस


तालिबान के साथ सांस्कृतिक-अंतर्विरोधों की थोड़ी देर के लिए अनदेखी कर दें, तब भी भारत-अफगानिस्तान रिश्ते हमेशा से दोस्ती के रहे हैं. इस दृष्टि से देखें, तो पिछले हफ्ते तालिबान के विदेशमंत्री अमीर ख़ान मुत्तकी की भारत-यात्रा अचानक नहीं हो गई.

इसकी पृष्ठभूमि दो-तीन साल से बन रही थी. भविष्य की ओर देखें, तो लगता है कि यह संपर्क बढ़ेगा. पिछले कुछ दिनों में पाक-अफगान सीमा पर टकराव को देखते हुए कुछ लोगों ने इसे भारत-पाक रिश्तों की तल्ख़ी से भी जोड़ा है, पर बात इतनी ही नहीं है. अफगान-पाक रिश्तों की तल्ख़ी के पीछे दूसरे कारण ज्यादा बड़े हैं.

पिछले हफ्ते भारतीय विदेश-नीति के सिलसिले में कुछ ऐसी घटनाएँ हुई हैं, जो नए राजनयिक-परिदृश्य की ओर इशारा कर रही हैं. मुत्तकी की यह यात्रा ऐसे समय में हुई, जब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री सर कीर स्टार्मर भी भारत में थे.

इस दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और डॉनल्ड ट्रंप के बीच एक बार फोन पर बातचीत भी हुई है. इसके बाद ट्रंप ने प्रधानमंत्री मोदी को सोमवार को गाज़ा पर मिस्र में हुए ‘शांति सम्मेलन’ में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया. हालाँकि मोदी इसमें गए नहीं, पर यह एक संकेत ज़रूर है.

वे वहाँ जाते, तो ट्रंप से मुलाकात का मौका बनता था. शायद अब यह मौका आसियान सम्मेलन में मिलेगा. बहरहाल भारत-अमेरिका व्यापार-वार्ता अब अपेक्षाकृत बेहतर तरीके से आगे बढ़ रही है. फिलहाल हम भारत-अफ़गान रिश्तों पर ही ध्यान केंद्रित करेंगे.

पिछले साल बांग्लादेश में तख्तापलट होने के बाद से भारत को शिद्दत से अपने इलाके में अच्छे मित्रों की तलाश है. भारत सरकार ने श्रीलंका, मालदीव और म्यांमार के साथ काफी हद तक रिश्तों को बेहतर किया है. उसी शृंखला में अफगानिस्तान को भी रखा जाना चाहिए.

मान्यता का मसला

भारत यह संकेत भी नहीं देना चाहता कि हम तालिबान को राजनयिक रूप से मान्यता दे रहे हैं. मान्यता तभी दी जाएगी, जब अंतरराष्ट्रीय समुदाय ऐसा करेगा, फिलहाल सहयोग-संबंध बनाने के लिए एक प्लेटफॉर्म की ज़रूरत होगी, इसलिए वहाँ दूतावास को फिर से खोलना सही कदम है.

हालाँकि इससे तालिबान को कुछ निराशा होगी, पर भारत अमेरिका समेत पश्चिमी खेमे को यह संकेत भी नहीं देगा कि हम रूस-चीन खेमे में शामिल हो गए हैं. बल्कि ऐसा करके पश्चिम के साथ भारत एक पुल की तरह भी काम कर सकता है.

औपचारिक राजनयिक मान्यता नहीं होते हुए भी मुत्तकी को पूरे प्रोटोकॉल के साथ विदेशमंत्री का सम्मान दिया गया. इन बातों को अंतर्विरोधों और व्यावहारिकता की रोशनी में पढ़ा जाना चाहिए.

मानवाधिकार के सवाल

अफगानिस्तान में मानवाधिकारों और समावेशी सरकार बनाने को लेकर भी भारत सरकार का एक दृष्टिकोण है. उससे हम हट नहीं जाएँगे. तालिबान से मानवाधिकारों के सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत मानदंडों का पालन करने की पश्चिमी देशों की माँगों के साथ भारत सरकार भी खड़ी रहेगी.

बहुत सी बातें अफ़गानिस्तान के भीतर से आने वाली सामाजिक-प्रतिक्रियाओं पर निर्भर करती है. फिलहाल यह संभावना कम है कि तालिबान, शरिया की अपनी व्याख्या से हट जाएगा. हम सीमित आधारों पर संपर्क स्थापित कर रहे हैं, जो व्यावहारिक और राष्ट्रीय-हित में हैं.

व्यावहारिक राजनीति ही थी कि अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद से ढाई दशक से भी ज़्यादा समय तक इस समूह को जीवित रखा. फिर अमेरिका को परास्त करने में तालिबान की मदद का काम भी पाकिस्तान ने किया.

इससे पाकिस्तान के शासकों के मन में अहंकार आ गया. उन्हें यह बात समझ में नहीं आई कि काबुल में जो भी सत्ता में होगा, उसके भारत के साथ रिश्ते बनेंगे. पाकिस्तान ने जिस तरह सामाजिक-सांस्कृतिक यथार्थ को समझने में भूल की, वैसी भूल हमें नहीं करनी चाहिए.

क्रमिक सुधार

अगस्त 2021 में काबुल में सत्ता-पलट के बाद से, भारत धीरे-धीरे और क्रमिक रूप से तालिबान के साथ जुड़ रहा है. जनवरी 2025 में एक बड़ी सफलता तब मिली, जब विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने दुबई में अफ़ग़ानिस्तान के विदेशमंत्री  मुत्तकी से मुलाकात की थी.

अब अपनी पहली भारत आधिकारिक यात्रा पर, मुत्तकी ने शुक्रवार को विदेश मंत्री एस जयशंकर से मुलाकात की, जिन्होंने घोषणा की है कि भारत अपने रिश्तों को उच्चतर स्तर पर ले जाएगा और काबुल में अपना दूतावास फिर से खोलेगा.

ऐसा पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत-पाकिस्तान युद्धविराम के कुछ दिनों बाद मई में उनकी सकारात्मक बातचीत के बाद हुआ है. तालिबान ने पहलगाम हमले की साफ-साफ निंदा की थी.

नेतृत्व का समर्थन

यह भी स्पष्ट है कि तालिबान नेतृत्व ने सर्वोच्च स्तर पर भारत से रिश्ते कायम करने को वरीयता दी है. अमू टीवी पश्तो भाषा का मीडिया हाउस है. उनकी एक रिपोर्ट के अनुसार, दो सूत्रों ने बताया कि विदेशमंत्री मुत्तकी को उनके नेता हिबातुल्ला अखुंदज़ादा ने भारत और रूस की यात्रा करने के विशेष निर्देश दिए थे. अखुंदज़ादा ने इन दोनों यात्राओं से पहले मुत्तकी को कंधार बुलाया था.

यह यात्रा ऐसे समय में हुई है, जब हाल के महीनों में मुत्तकी की कई नियोजित पाकिस्तान यात्राएँ रद्द हो चुकी हैं. ऐसा या तो अखुंदज़ादा की आपत्तियों के कारण हुआ है या फिर दूसरे कारणों से.

हालाँकि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने मुत्तकी को भारत यात्रा की अनुमति दे दी, लेकिन रूस का ज़िक्र नहीं हुआ है. इसका मतलब है कि भारत-यात्रा को छोटी घटना के रूप में नहीं देखा जा सकता है.

सच को स्वीकार करें

सच यह भी है कि तालिबान ही एकमात्र ऐसी ताकत है, जो फिलहाल पूरे अफ़ग़ानिस्तान को नियंत्रित करने में समर्थ दिखाई पड़ रही है. फिर अत्यधिक प्रतिस्पर्धी पड़ोस में, तालिबान के साथ रिश्ते बनाए रखना भू-रणनीतिक आवश्यकता है.

हाल में तालिबान और पाकिस्तान के बीच संबंध तेज़ी से बिगड़े हैं. इस्लामाबाद ने तालिबान पर तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान को पनाह देने का आरोप लगाया है और कथित ठिकानों को निशाना बनाकर अफ़ग़ानिस्तान की सीमा में हवाई हमले किए हैं.

गुरुवार को ही तालिबान ने काबुल और पक्तिका प्रांत में हुए विस्फोटों के लिए पाकिस्तान को ज़िम्मेदार ठहराया था. इस बीच, पाकिस्तान ने अफ़ग़ान नागरिकों को बड़े पैमाने पर देश से निकाला है, इससे उनके रिश्ते और तनावपूर्ण हुए हैं.

विकास में सहायता

जयशंकर-मुत्तकी की मुलाकात से यह स्पष्ट होता है कि तालिबान चाहता है कि भारत अफगानिस्तान के साथ और अधिक जुड़े, और इसके लिए वह ‘सदियों से चले आ रहे सभ्यतागत और लोगों के बीच संबंधों’ का हवाला देता है.

शुक्रवार को मुत्तक़ी के साथ बातचीत के दौरान जयशंकर ने कहा कि भारत और अफ़ग़ानिस्तान की ‘विकास और समृद्धि के प्रति साझा प्रतिबद्धता’ है, वहीं ‘सीमा पार आतंकवाद के साझा ख़तरे से ख़तरे में भी है’ और ‘आतंकवाद के सभी रूपों और अभिव्यक्तियों से निपटने’ के लिए ‘समन्वित प्रयास’ होने चाहिए.

वस्तुतः भारत को तालिबान के साथ अपने बढ़ते संबंधों का इस्तेमाल अफ़ग़ानिस्तान को भारत-विरोधी आतंकवादी समूहों के लिए लॉन्चपैड बनने से रोकने में करना है.

भारत ने हाल में वैश्विक मंच पर तालिबान के प्रति समर्थन दिखाया है. उसने अफगानिस्तान में बगराम एयरबेस पर कब्ज़ा करने की अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की कोशिश का विरोध करने में पाकिस्तान, चीन और रूस के साथ हाथ मिलाया है.

असहमतियाँ भी हैं

यह बढ़ता हुआ समझौता दूसरी तरफ एक और सच्चाई को भी रेखांकित करता है: तालिबान-शासन निरंकुश है जो मानवाधिकारों, खासकर महिलाओं के अधिकारों, के प्रति अपने नज़रिए से सोचता है, जो वैश्विक आमराय से मेल नहीं खाता.

हाल में सोमवार को, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने अफगानिस्तान में दुर्व्यवहारों की जाँच के लिए एक ‘निरंतर, स्वतंत्र जाँच तंत्र’ स्थापित करने पर सहमति व्यक्त की.

यह भी एक वजह है कि, भारत अभी तालिबान सरकार को औपचारिक रूप से मान्यता देने से परहेज कर रहा है, पर संपर्क न बढ़ाने के जोखिम हैं. चीन पहले ही तालिबान के साथ बड़े निवेश और सुरक्षा समझौते कर चुका है.

अफगानिस्तान को भारत, पूरी तरह से चीन के प्रभाव में जाने नहीं देगा. तालिबान को भी चीन की मदद चाहिए. पर वह उसकी आर्थिक जागीर नहीं बनेगा. उसे पूँजी-निवेश और ज्यादा से ज्यादा देशों के बीच अपनी स्वीकृति की ज़रूरत है.

हमें काबुल के साथ सावधानीपूर्वक संबंध बनाए रखने ही होंगे. साथ ही अपने दृष्टिकोण को अपने पश्चिमी पड़ोस के बदलते परिवेश के अनुरूप ढालना होगा. बेशक यह सुनिश्चित करने की ज़रूरत भी है कि हम संयमित रूप से आगे बढ़ें.

बदलती भू-राजनीति

हाल के जो संकेत मिल रहे हैं उनसे ज़ाहिर है कि अमेरिका चाहता है कि भारत के पश्चिमी पड़ोस में पाकिस्तान प्रमुख भूमिका निभाए. चीन भी इस क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है. पाकिस्तान के साथ उसके रिश्ते पहले से हैं, साथ ही ईरान और अरब प्रायद्वीप में उसका प्रभाव बढ़ा है.

रूस ने तालिबान को राजनयिक मान्यता प्रदान कर दी है और ईरान के साथ उसके संबंध मज़बूत हैं. पाकिस्तान ने हमारे साथ अज़ली-दुश्मनी ठान रखी है उसे देखते हुए हमें अपने पश्चिमी हितों की रक्षा करनी होगी.

जयशंकर ने खाद्यान्न से लेकर स्वास्थ्य, प्रशिक्षण और शिक्षा तक, उन क्षेत्रों का ज़िक्र किया जहाँ भारत अफ़ग़ान लोगों के साथ सहयोग करेगा. उन्होंने यह भी कहा कि भारत रुकी हुई परियोजनाओं को पूरा करेगा.

तालिबान इन क्षेत्रों में भारतीय सहायता का स्वागत करेगा, साथ ही वह छात्रों और बीमार लोगों के लिए वीज़ा व्यवस्था में उदारीकरण की अपेक्षा करेगा. इसका मतलब है भारत आने वाले में अफ़ग़ान नागरिकों की संख्या बढ़ेगी.

कुछ असमंजस

हैदराबाद हाउस में मुत्तकी और विदेशमंत्री एस जयशंकर के बीच हुई बैठक में, किसी भी पक्ष के झंडे नहीं थे. इस प्रकार एक राजनयिक असमंजस को टाला गया. भारतीयों ने उन्हें अफ़ग़ानिस्तान के विदेशमंत्री के रूप में संबोधित किया. इससे गणतंत्र बनाम अमीरात की बहस से बचा गया.

दूसरी तरफ, दूतावास में, जब मुत्तकी ने पुरुष मीडियाकर्मियों को संबोधित किया, तब उनके सामने एक मेज पर तालिबान का झंडा था, और पीछे की दीवार पर बामियान बुद्ध की एक पेंटिंग. तमाम बातें अभी अस्पष्ट हैं. साफ है, तो यह कि भारत सरकार अब तालिबान के साथ अच्छी तरह संपर्क में है.

अब देखना होगा कि अफ़गान दूतावास के मामले में रास्ता किस तरह निकाला जाएगा. काबुल में भारतीय दूतावास फिर से खुलने का मतलब है कि दिल्ली में अफ़ग़ान दूतावास पर तालिबान का नियंत्रण हमें स्वीकार करना होगा. इसका मतलब है कि वहाँ अफ़ग़ान अमीरात का झंडा फहराएगा. क्या ऐसा होगा?

मुत्तकी के प्रेस कांफ्रेंस को दूतावास में अनुमति देकर भारत सरकार ने कुछ संकेत तो दे ही दिए हैं. अभी तक दूतावास पर अफ़गानिस्तान के पिछले प्रशासन का ही कब्ज़ा है.

अगस्त 2021 के बाद, जब तालिबान ने काबुल में सत्ता हथिया ली, तब अफ़ग़ानिस्तान की अपदस्थ अशरफ़ गनी सरकार के सहयोगी राजनयिक दिल्ली स्थित दूतावास में ही रहे. उनमें से ज़्यादातर अब अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा या ऑस्ट्रेलिया में शरण पाकर वहाँ चले गए हैं, पर कुछ लोग अभी हैं.

 

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

 

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