दक्षिण एशिया का दुर्भाग्य है कि जिस समय दुनिया के देश, जिनमें भारत भी शामिल है, डॉनल्ड ट्रंप की आक्रामक आर्थिक-नीतियों के बरक्स अपनी नीतियों के निर्धारण में लगे हैं, हमें लड़ाई में जूझना पड़ रहा है.
इस लड़ाई की पृष्ठभूमि को हमें दो परिघटनाओं से साथ जोड़कर देखना और समझना चाहिए. एक, शनिवार के युद्धविराम की घोषणा भारत या पाकिस्तान के किसी नेता ने नहीं की, बल्कि डॉनल्ड ट्रंप ने की. दूसरे हाल में भारत और ब्रिटेन के बीच मुक्त-व्यापार समझौता हुआ है, जिसकी तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया.
इसके अलावा हाल के दिनों की भू-राजनीति में महत्वपूर्ण नए मोड़ आए हैं, जिनका भारत पर भी असर पड़ेगा. खबरों के मुताबिक तुर्की और चीन ने पाकिस्तान का एकतरफा समर्थन किया है.
पाकिस्तान ने आतंकवाद को एक अघोषित नीति के रूप में इस्तेमाल किया है. दूसरी तरफ यह साबित करते हुए कि आतंकवादी हमले की स्थिति में हम पाकिस्तान में घुसकर कार्रवाई कर सकते हैं, मोदी सरकार ने प्रभावी रूप से एक नए सुरक्षा सिद्धांत की घोषणा की है. पाकिस्तान को निर्दोष लोगों की हत्या करने और आतंकवाद को बढ़ावा देने की अनुमति नहीं दी जाएगी.
ट्रंप की घोषणा
ट्रंप ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर घोषणा की कि भारत और पाकिस्तान ‘पूर्ण और तत्काल संघर्ष विराम’ पर सहमत हो गए हैं. ट्रंप ने अपनी आदत के अनुरूप या शायद जल्दबाज़ी में ऐसा किया. वे साबित करना चाहते हैं कि लड़ाइयों को रोकना उन्हें आता है.
ट्रंप ने इसके बाद सोमवार को भी यह बात कही. इसमें दो राय नहीं कि इस संकट को टालने में अमेरिका ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, पर उनकी घोषणा के बाद सहज सवाल खड़ा हुआ कि क्या अमेरिका अब भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता करेगा? सच यह है कि अमेरिका ऐसे प्रयास बार-बार करता रहा है.
डॉनल्ड ट्रंप ने अपने पिछले कार्यकाल में भी कई बार मध्यस्थता की पेशकश की, पर भारत ने शालीनता से उन्हें बता दिया था कि ऐसा संभव नहीं है. भविष्य की बात छोड़ दीजिए, अतीत में भी देश की किसी सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया.
अमेरिका के सामने भी द्वंद्व है. वह एक तरफ भारत के साथ रिश्ते सुधार रहा है, वहीं अपने स्वार्थों के कारण पाकिस्तान की क्षुद्रताओं की अनदेखी करता है. वहीं पाकिस्तान एक तरफ अमेरिका को अपना दोस्त मानता है, और चीन को अपना आका. हाल के वर्षों में भारत की अमेरिका से निकटता बढ़ी है, पर भारत की नीति किसी का पिट्ठू बनने की नहीं है.
भारत ने पेशकश ठुकराई
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप द्वारा यह कहे जाने के एक दिन बाद कि भारत और पाकिस्तान व्यापार पर उनकी वार्ता के बाद युद्ध विराम के लिए सहमत हो गए हैं, विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट किया कि सैन्य कार्रवाई के लिए किसी भी वार्ता में व्यापार का मुद्दा नहीं आया। मंत्रालय ने कहा कि जम्मू-कश्मीर मुद्दे को भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय रूप से हल किया जाना चाहिए।
भारत पाकिस्तान संघर्ष विराम को लेकर विदेश मंत्रालय ने प्रेस वार्ता की. इस दौरान संघर्ष विराम में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मध्यस्थता को लेकर विदेश मंत्रालय ने कहा कि कश्मीर पर हमें मध्यस्थता मंजूर नहीं है. पाकिस्तान को पीओके खाली करना होगा.
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने कहा कि हमारा लंबे समय से राष्ट्रीय रुख रहा है कि केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर से संबंधित किसी भी मुद्दे को भारत और पाकिस्तान को द्विपक्षीय रूप से हल करना होगा। इस नीति में कोई बदलाव नहीं हुआ है। लंबित मामला पाकिस्तान द्वारा अवैध रूप से कब्जाए गए भारतीय क्षेत्र को खाली करना है.
उन्होंने कहा कि जैसा कि विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने पहले ही बताया है कि 10 मई को 15:35 बजे दोनों देशों के डीजीएमओ को फोन पर संघर्ष विराम को लेकर वार्ता हुई. इस वार्ता को लेकर विदेश मंत्रालय को 12.37 बजे पाकिस्तान उच्चायोग के जरिए सूचित किया गया. पाकिस्तान की आंतरिक तकनीकी दिक्कतों के चलते हॉटलाइन कनेक्ट होने में देरी हुई. भारत के डीजीएमओ की मौजूदगी के बाद दोपहर 3.35 बजे वार्ता हुई.
उन्होंने कहा कि 10 मई की सुबह भारतीय सेना ने पाकिस्तान के एयरबेस को तबाह किया गया. इसके बाद पाकिस्तान के सुर बदल गए. पाकिस्तान ने गोलाबारी रोकने और सैन्य कार्रवाई रोकने का फैसला किया. मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि भारतीय सशस्त्र बलों ने पाकिस्तान को गोलीबारी रोकने पर मजबूर किया. जैसा कि अन्य देशों से हुई वार्ता में भारत ने स्पष्ट संदेश दिया और जनता को भी यही कहा कि भारत ने आतंकी ढांचे को निशाना बनाकर 22 अप्रैल को हुए आतंकी हमलों का जवाब दिया है. इसके बाद जब पाकिस्तानी सशस्त्र बलों ने फायरिंग की तो भारतीय सेना ने इसका मुंहतोड़ जवाब दिया.
अमेरिकी इतिहास
भारत-पाकिस्तान रिश्तों में अमेरिकी भूमिका में 1947 के बाद से आजतक काफी बदलाव आया है. शुरूआती वर्षों में अमेरिका ने पाकिस्तान का साथ दिया. 1947-48 के प्रथम कश्मीर-युद्ध में अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से मध्यस्थता का समर्थन किया, जिसके परिणामस्वरूप नियंत्रण रेखा स्थापित हुई.
1950 के दशक में, अमेरिका ने पाकिस्तान को शीत युद्ध में अपने सहयोगी के रूप में चुना. 1954 में पाकिस्तान को सीटो और सेंटो जैसे सैन्य गठबंधनों में शामिल किया गया, जिसके तहत उसे हथियार और आर्थिक सहायता मिली. यह भारत के खिलाफ संतुलन बनाने की रणनीति थी.
भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाई, जिससे अमेरिका के साथ उसके संबंध तुलनात्मक रूप से खिंचाव के रहे. इस दौर में अमेरिका ने पाकिस्तान को प्राथमिकता दी, क्योंकि उसे दक्षिण एशिया में सोवियत प्रभाव को रोकने के लिए एक मजबूत सहयोगी चाहिए था.
1971 की लड़ाई
इस लड़ाई में अमेरिका ने पाकिस्तान का खुलकर समर्थन किया. राष्ट्रपति निक्सन ने सातवें बेड़े के विमानवाहक पोत यूएसएस एंटरप्राइज को बंगाल की खाड़ी में तैनात किया और संयुक्त राष्ट्र में युद्धविराम प्रस्ताव पेश किया. यह भारत के खिलाफ दबाव बनाने की कोशिश थी.
भारत को सोवियत संघ का समर्थन प्राप्त था, जिसने अमेरिका के प्रभाव को सीमित किया. इस युद्ध में भारत की जीत और बांग्लादेश का निर्माण अमेरिका के लिए राजनयिक झटका था.
इस अवधि में अमेरिका का झुकाव स्पष्ट रूप से पाकिस्तान की ओर था, लेकिन भारत की सैन्य और कूटनीतिक सफलता ने अमेरिका को दक्षिण एशिया में भारत की ताकत को गंभीरता से लेने के लिए मजबूर किया.
80 और 90 के दशक
सोवियत संघ के अफगानिस्तान पर आक्रमण (1979) के बाद अमेरिका ने पाकिस्तान को अपने प्रमुख सहयोगी के रूप में मजबूत किया. उसे अरबों डॉलर की सैन्य और आर्थिक सहायता दी, जिसका उपयोग भारत के खिलाफ भी किया गया.
1998 में भारत और पाकिस्तान के परमाणु परीक्षणों ने दक्षिण एशिया को वैश्विक ध्यान का केंद्र बनाया. अमेरिका ने दोनों देशों पर प्रतिबंध लगाए, लेकिन भारत की उभरती आर्थिक शक्ति और तकनीकी प्रगति ने अमेरिका को भारत के साथ संबंध सुधारने के लिए प्रेरित किया.
1999 के कारगिल युद्ध में अमेरिका ने पाकिस्तान पर दबाव डाला कि वह अपनी सेना और आतंकवादियों को वापस बुलाए. राष्ट्रपति क्लिंटन ने भारत के पक्ष में स्पष्ट रुख अपनाया, जो एक महत्वपूर्ण बदलाव था, जबकि 1993 में क्लिंटन-प्रशासन ने कश्मीर के ‘विलय-पत्र’ को खारिज कर दिया था.
रॉबिन रैफेल का बयान
रॉबिन रैफेल (Robin Raphel) ने, जो 1993 में अमेरिका की सहायक विदेशमंत्री थीं, ने कश्मीर के मुद्दे पर विवादास्पद बयान दिए थे, जिन्हें भारत ने उसके क्षेत्रीय अखंडता के खिलाफ माना था. उन्होंने अक्टूबर 1993 में एक प्रेस ब्रीफिंग के दौरान कहा था कि संयुक्त राज्य अमेरिका जम्मू और कश्मीर को ‘विवादित क्षेत्र’ मानता है और यह नहीं मानता कि 1947 में महाराजा हरि सिंह द्वारा हस्ताक्षरित ‘विलय-पत्र’ का मतलब है कि कश्मीर हमेशा के लिए भारत का अभिन्न हिस्सा है.
रैफेल का यह बयान भारत के उस दृष्टिकोण के विपरीत था, जिसमें जम्मू और कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग माना जाता है, क्योंकि महाराजा ने 1947 में भारत के साथ विलय-पत्र पर हस्ताक्षर किए थे. उनके बयानों को भारत में व्यापक रूप से आलोचना का सामना करना पड़ा, और इसे भारत-पाकिस्तान संबंधों में अमेरिका के ‘पाकिस्तान-समर्थक’ रुख के रूप में देखा गया.
यह स्पष्ट करना भी महत्वपूर्ण है कि रैफेल ने कश्मीर के विलय-पत्र को स्पष्ट रूप से ‘अस्वीकार’ नहीं किया था, बल्कि उन्होंने इसे एक विवादित मुद्दे के रूप में प्रस्तुत किया और भारत व पाकिस्तान के बीच बातचीत के माध्यम से समाधान की वकालत की. उनके इस रुख ने भारत में तीखी प्रतिक्रिया को जन्म दिया, और भारतीय मीडिया व अधिकारियों ने इसे भारत की संप्रभुता पर सवाल उठाने वाला माना.
बाद में, रैफेल ने अपनी टिप्पणियों को कुछ हद तक स्पष्ट करने की कोशिश की और कहा कि उनके बयान को गलत समझा गया, लेकिन भारत में उनकी छवि ‘पाकिस्तान-समर्थक’ राजनयिक के रूप में बनी रही. रैफेल ने विलय-पत्र की वैधता पर सवाल उठाए थे, लेकिन इसे औपचारिक रूप से अस्वीकार करने की बजाय, उन्होंने कश्मीर को एक विवादित क्षेत्र के रूप में चित्रित किया, जिसे भारत ने अपनी क्षेत्रीय अखंडता के खिलाफ माना.
रॉबिन रैफेल के इस बयान का ही संभवतः परिणाम था कि भारतीय संसद के दोनों सदनों ने 22 फरवरी 1994 को सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया और इस बात पर जोर दिया कि सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है. इसलिए पाकिस्तान को अपने कब्जे वाले राज्य के हिस्सों को खाली करना होगा. उस वर्ष जून में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव अमेरिका की यात्रा पर जाने वाले थे. उस यात्रा के पहले इस प्रस्ताव के पास होने से अमेरिकी दबाव को दूर करने में मदद मिली.
आतंकवाद का विरोध
9/11 हमलों के बाद आतंकवाद विरोधी युद्ध और भारत की आर्थिक प्रगति ने अमेरिका की नीति को प्रभावित किया. 2001 के भारतीय संसद पर हमले और 2008 के मुंबई हमलों के बाद अमेरिका ने भारत के साथ आतंकवाद विरोधी सहयोग बढ़ाया, लेकिन पाकिस्तान पर दबाव सीमित ही रहा.
अमेरिका अब भारत को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के खिलाफ एक प्रमुख साझेदार के रूप में देख रहा है, लेकिन पाकिस्तान की खुलकर आलोचना करना आज भी नहीं चाहता. अब भी वह दोनों देशों के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश करता है.
वैश्विक भूमिका
फिलहाल ज्यादा बड़ा मसला ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के कारण पैदा हुए हालात का है. पर्यवेक्षक मानते हैं कि पर्दे के पीछे क्षेत्रीय शक्तियों के साथ मिलकर अमेरिकी मध्यस्थों ने युद्ध के कगार पर खड़ी एटमी ताकतों को हाथ खींचने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
तीन दिन की लड़ाई के दौरान यह स्पष्ट हो गया कि कई देश लड़ाई को रुकवाने की कोशिश कर रहे थे, पर कम से कम तीन देश, अमेरिका, ब्रिटेन और सऊदी अरब, इसमें सबसे आगे थे. अमेरिकी विदेशमंत्री मार्को रूबियो का 9 मई को पाकिस्तानी सेना प्रमुख आसिम मुनीर को किया गया फोन कॉल ‘संभवतः निर्णायक बिंदु था.’
भारतीय नज़रिया
चालू लड़ाई के दो अलग-अलग पक्ष हैं. एक भारत का दूसरा पाकिस्तान का. सवाल है कि क्या अमेरिका ने दोनों पक्षों की बातों को समझा है? भारत का ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पहलगाम के हत्याकांड के जवाब में है. उसका निशाना है आतंकवाद.
भारतीय पर्यवेक्षक मानते हैं कि अमेरिकी मीडिया और राजनीति में ‘आतंकवाद’ को भारतीय नज़रिए से नहीं देखा जाता. वे इसे ‘हिंदू-मुस्लिम’ टकराव के नज़रिए से देखते हैं. इसके अलावा कश्मीर की समस्या के समाधान के जिन रास्तों को वे उचित मानते हैं, वे हमारे दृष्टिकोण से अनुचित हैं.
ब्लैकमेल
पाकिस्तान में विशेषज्ञों का कहना है कि जब तनाव बढ़ा तो पाकिस्तान ने नेशनल कमांड अथॉरिटी (एनसीए) की बैठक बुलाने का संकेत देकर अपनी एटमी ताकत की याद दिलाई. पाकिस्तान की नेशनल कमांड अथॉरिटी का देश के परमाणु हथियारों पर नियंत्रण होता है.
इसका मतलब है कि पाकिस्तान एटमी ब्लैकमेल करना चाहता है. भारत उस ब्लैकमेल के दबाव में नहीं है, इसीलिए युद्धविराम होने के बावजूद भारत ने कहा है कि पाकिस्तान कोई ज़ुर्रत करेगा, तो हम भरपूर जवाब देंगे. वर्तमान शांति को इसीलिए स्थायी नहीं मान लेना चाहिए.
भारत जागा
भारत ने स्पष्ट कहा है कि हम आतंकी ठिकानों पर हमले करेंगे, चाहे वे कहीं भी हों. लाहौर से सरगोधा, चकवाल से जैकबाबाद तक एक दर्जन से ज्यादा ठिकानों पर हमले करके भारत ने अपनी ताकत को भी रेखांकित कर दिया है.
भारत ने सिंधु जल संधि को स्थगित रखते हुए अपने पास उपलब्ध साधनों का विस्तार किया है, साथ ही यह भी कहा है कि आतंकवाद के हरेक कारनामे को अब ‘युद्ध की कार्रवाई’ माना जाएगा और सेना उसका उचित जवाब देगी.
2014 से लेकर अब तक भारत ने कम से कम पांच सैन्य संकट देखे हैं—पाकिस्तान के साथ 2016, 2019 और अब. 2017 और 2020 में चीन के साथ. इस समय देश के विभिन्न वर्गों, समुदायों और राजनीतिक दलों के बीच एकता देखने को मिल रही है. यह एकता भारत की ताकत है.
दिल्ली के मित्र, चाहे वे वाशिंगटन डीसी में हों या मॉस्को, बर्लिन या रियाद में, निश्चित रूप से जानते हैं कि पाकिस्तान के साथ जुड़ाव की शर्तों पर भारत का एक स्पष्ट रुख है. वह यह कि पहलगाम में हुई भयावह राष्ट्रीय त्रासदी के बाद भारत जागा है.
ब्रिटेन के साथ एफटीए
एक तरफ ऑपरेशन सिंदूर की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी, वहीं 6 मई को, भारत और यूके ने एक ऐतिहासिक मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) किया है, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐतिहासिक मील का पत्थर बताया है. यह समझौता भारत को सभी औद्योगिक वस्तुओं तक शून्य-शुल्क पहुँच प्रदान करेगा.
इसके अलावा 99.3 प्रतिशत से अधिक पशु उत्पादों, 99.8 प्रतिशत वनस्पति/तेल उत्पादों और 99.7 प्रतिशत प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों पर आयात शुल्क को समाप्त करेगा. वर्तमान में, यूके मुख्य रूप से चीन (12 प्रतिशत, 99 अरब डॉलर बिलियन के बराबर), अमेरिका (11 प्रतिशत, 92 अरब डॉलर के बराबर) और जर्मनी (9 प्रतिशत, 76.2 अरब डॉलर के बराबर) जैसे देशों से 815.5 अरब डॉलर के सामान का आयात करता है.
भारत यूके का 12वां सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है, लेकिन देश में आयातित वस्तुओं में इसकी हिस्सेदारी मात्र 1.8 प्रतिशत (15.3 अरब डॉलर) है. इस समझौते के बाद परिस्थितियाँ तेजी से बदलेंगी. यह छलांग कैसे लगेगी, इसके बारे में हमें अब सोचना है.
कुछ इससे मिलता-जुलता समझौता इस साल अमेरिका से भी होने वाला है. दुर्भाग्य है कि भारत और पाकिस्तान के बीच किसी आर्थिक-समझौते के आसार नहीं बन रहे हैं, जबकि सबसे बेहतरीन संभावनाएँ हमारे आसपास ही हैं.
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