Tuesday, March 11, 2025

तमिलनाडु के चुनाव का प्रस्थानबिंदु है 'भाषा' और 'परिसीमन' का मुद्दा


सत्तारूढ़ भाजपा और द्रमुक के बीच चल रहे वाग्युद्ध के कारण सोमवार को लोकसभा में व्यवधान पैदा हुआ और तमिलनाडु के सांसदों के विरोध के बाद केंद्रीय शिक्षामंत्री धर्मेंद्र प्रधान को अपने बयान से एक शब्द वापस लेना पड़ा। प्रश्नकाल में बहस के दौरान प्रधान ने तमिलनाडु की डीएमके सरकार पर ‘बेईमान’ होने और राज्य के छात्रों के भविष्य के साथ ‘राजनीति’ करने का आरोप लगाया। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) के प्रति डीएमके सरकार के विरोध की आलोचना करते हुए उन्होंने पीएम-श्री स्कूलों को लेकर ‘यू-टर्न’ लेने का भी आरोप लगाया, जिसके कारण तकरार बढ़ी। लगता है कि यह तकरार अभी बढ़ेगी और ‘भाषा’ और खासतौर से ‘उत्तर-दक्षिण’ के सवालों पर केंद्रित होगी, जो 2026 में तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में बड़े मसले बनकर उभरेंगे। 

संसदीय झड़प के तुरंत बाद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने सोशल मीडिया पर पोस्ट जारी कर प्रधान पर ‘अहंकार’ का आरोप लगाया। स्टालिन ने लिखा, ‘केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान, जो अहंकार से ऐसे बात करते हैं जैसे कि वे राजा हों, उन्हें अपने शब्दों पर ध्यान देने की ज़रूरत है!...’आप तमिलनाडु के उचित फंड को रोक रहे हैं और हमें धोखा दे रहे हैं, फिर भी आप तमिलनाडु के सांसदों को असभ्य कहते हैं?... क्या माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे मंज़ूरी देते हैं?’  स्टालिन ने लिखा कि तमिलनाडु सरकार ने कभी पीएम-श्री (स्कूल फॉर राइजिंग इंडिया) योजना को लागू करने पर सहमति नहीं जताई। 

भाजपा की चिंता

आज के इंडियन एक्सप्रेस में लिज़ मैथ्यू और लालमणि वर्मा की एक रिपोर्ट के अनुसार जैसे-जैसे यह मुद्दा बढ़ रहा है, भाजपा में कई लोगों को डर है कि ऐसा डीएमके अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले चाहती है। भाजपा भी अब तमिलनाडु की राजनीति में खुलकर प्रवेश करना चाहती है। तमिलनाडु अब उसके एजेंडा में सबसे ऊपर है, जहाँ पिछले साल के लोकसभा चुनावों में कुछ सफलता मिली थी। एनईपी को तमिलनाडु पर हिंदी थोपने का प्रयास बताकर स्टालिन ने इसे राज्य में भावनात्मक मुद्दा बना लिया है और भाजपा की मनोकामनाओं को रोकने की कोशिश की है। 

संसद में यह गतिरोध तब शुरू हुआ जब डीएमके की सांसद टी सुमति ने पूरक प्रश्न पूछते हुए दावा किया कि एनईपी के विरोध के कारण तमिलनाडु के लिए निर्धारित लगभग 2,000 करोड़ रुपये अन्य राज्यों को भेज दिए गए हैं। इसे ‘सहकारी संघवाद के लिए मौत की घंटी’ बताते हुए सुमति ने पूछा कि क्या केंद्र स्कूली बच्चों की कीमत पर धनराशि का इस्तेमाल ‘बदला लेने’ के लिए कर रहा है?

जवाब में प्रधान ने कहा कि तमिलनाडु सरकार पीएम-श्री पर समझौते के लिए तैयार थी। तमिलनाडु के शिक्षामंत्री के साथ मेरे कुछ सांसद सहयोगियों ने सहमति व्यक्त की थी...पर उन्होंने ‘यू-टर्न’ ले लिया... कई गैर-बीजेपी राज्यों, विशेष रूप से कांग्रेस के कर्नाटक ने एनईपी को स्वीकार कर लिया है, हालांकि उन्होंने मौखिक रूप से कुछ शर्तें रखी हैं, पर वे पीएम-श्री को लागू कर रहे हैं। स्टालिन भी पहले इसके लिए पहले तैयार थे। मार्च का महीना खत्म होने में अभी 20 दिन बाकी हैं, जिससे संकेत मिलता है कि तमिलनाडु सरकार के पास पीएम-श्री समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने के लिए समय है।

शिक्षामंत्री पर हमला

इसके बाद डीएमके सांसद प्रधान पर झूठ बोलने का आरोप लगाते हुए सदन के आसन के पास आ गए, दूसरी विपक्षी सदस्य भी अपनी सीटों से उठकर उनके विरोध में शामिल हो गए, जिसके कारण सदन की कार्यवाही आधे घंटे के लिए स्थगित कर दी गई। जब सदन की कार्यवाही दोबारा शुरू हुई तो डीएमके सांसद कनिमोझी ने कहा कि मंत्री द्वारा इस्तेमाल किए गए एक विशेष शब्द से वह ‘बहुत दुखी और आहत’ हैं। 

उनके जवाब में प्रधान ने कहा, मेरी सम्मानित सहकर्मी, मेरी सबसे प्रिय बहनों में से एक और वरिष्ठ सदस्य, माननीय कनिमोझी ने दो मुद्दे उठाए हैं। उनके अनुसार, मैंने एक ऐसा शब्द इस्तेमाल किया है जिसका इस्तेमाल मुझे तमिलनाडु के सदस्यों, तमिलनाडु सरकार और तमिलनाडु के लोगों के लिए नहीं करना चाहिए था... चलिए मैं इसे वापस लेता हूँ। अगर इससे किसी को ठेस पहुँची है तो मैं अपना शब्द वापस लेता हूँ। 

स्टालिन ने अपने सोशल मीडिया पोस्ट में कहा कि तमिलनाडु ने मार्च 2024 में एक अंडरटेकिंग प्रस्तुत की थी जिसमें उसने एमओयू पर हस्ताक्षर करने की इच्छा जताई थी, लेकिन जुलाई में उसने एक संशोधित प्रारूप लौटा दिया, जिसमें एनईपी के पूर्ण कार्यान्वयन की आवश्यकता को छोड़ दिया गया। उन्होंने कहा कि प्रधान के कार्यालय से अगस्त 2024 को भेजे गए एक पत्र में इस बात को स्वीकार किया गया है।

इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए डीएमके की राज्यसभा सांसद कनिमोझी एनवीएन सोमू ने कहा, सबसे पहले, सर्वोच्च पद पर बैठे मंत्री को यह पता होना चाहिए कि वह क्या कह रहे हैं… केंद्र यह कैसे कह सकता है कि हम आपको तभी धन देंगे जब आप हमारी बात मानेंगे?… आप हमारे सिर पर बंदूक नहीं रख सकते। उन्होंने कहा कि डीएमके भारत की किसी भी भाषा के खिलाफ नहीं है। हम हर भाषा और हर जातीयता का सम्मान करते हैं। हमारा मुद्दा हिंदी थोपे जाने के खिलाफ है, जो कोई नई बात नहीं है... हम दो-भाषा नीति का पालन करते रहे हैं और (हमारे मॉडल की) सफलता सबके सामने है।

डीएमके नेता दयानिधि मारन ने कहा, मंत्री ने यह कहकर झूठ बोला कि डीएमके सरकार एनईपी पर सहमत हो गई है। बाद में, कनिमोझी करुणानिधि ने प्रधान के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का नोटिस पेश किया और कहा कि उनके बयान से जो शब्द हटाया गया, वह उन पर आक्षेप लगाता है और एक महिला सांसद के रूप में उनकी ईमानदारी और गरिमा पर हमला करता है।

परिसीमन पर चर्चा

भाजपा के एक सूत्र ने बताया कि जनसंख्या आधारित परिसीमन अभ्यास पर स्टालिन द्वारा 5 मार्च को बुलाई गई बैठक में राज्य में सक्रिय लगभग सभी दलों ने भाग लिया था, जिसमें डीएमके की मुख्य प्रतिद्वंद्वी और भाजपा की पूर्व सहयोगी एआईएडीएमके भी शामिल थी। उन्होंने कहा: हमारे सामने एक अजीबोगरीब स्थिति है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर हमारे नेता तमिल संस्कृति और भाषा की प्रशंसा करने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं, लेकिन इस तरह का विवाद पार्टी को अलग-थलग कर देता है। इस मुद्दे पर हम तमिलनाडु में किसी भी पार्टी से समर्थन की उम्मीद नहीं कर सकते। स्टालिन ने गेंद हमारे पाले में डाल दी और हमने इसे गलत तरीके से संभाला।

भाजपा एआईएडीएमके के साथ फिर से गठबंधन करने के खिलाफ नहीं है, दोनों पक्ष हाल के दिनों में इसके संकेत दे रहे हैं। हालांकि, अगर हिंदी का मुद्दा जारी रहा  तो तमिलनाडु की पार्टी के लिए भाजपा के साथ जाना मुश्किल हो जाएगा, जिसे राज्य का बड़ा वर्ग ‘बाहरी’, उत्तर-केंद्रित पार्टी के रूप में संदेह की दृष्टि से देखता है।

एक अन्य वरिष्ठ भाजपा नेता ने तर्क दिया कि हिंदी का मुद्दा अब उतना ताकतवर नहीं है जितना पहले हुआ करता था। डेटा से पता चलता है कि 1947 में, अंग्रेजी में पारंगत लोग आबादी का सिर्फ़ 4-5 प्रश थे, बाकी तमिल उपयोगकर्ता थे। यह अब क्रमशः 45 प्रश और 55 प्रश है। इसलिए भाषा से भावनात्मक लगाव रखने वाले युवाओं की संख्या कम हो रही है। 

उस नेता ने कहा कि इंडिया गठबंधन में डीएमके के सहयोगी दल इस बात से असहज हो सकते हैं कि हिंदी के खिलाफ पार्टी पूरी तरह से उतारू है। इस साल बिहार में चुनाव होने हैं, जहाँ उनका बहुत कुछ दाँव पर है। इस नेता की राय है कि इस मुद्दे का हमारे ऊपर कोई चुनावी प्रभाव नहीं होगा। हमारे लिए यह नीतिगत मामला है और उनके लिए यह चुनावी मुद्दा है।

अमित शाह का आश्वासन

एनईपी के अलावा एक और मुद्दा जिस पर स्टालिन ने केंद्र के खिलाफ मोर्चा संभाला है, वह है परिसीमन। इस पर डीएमके को पड़ोसी विपक्षी मुख्यमंत्रियों का भी समर्थन हासिल है। भाजपा का मानना है कि इस मामले में उसका रुख अधिक मजबूत है, क्योंकि परिसीमन अभी दूर की बात है और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने हाल में कहा है कि मोदी सरकार परिसीमन प्रक्रिया में दक्षिणी राज्यों के साथ कोई ‘अन्याय’ नहीं होने देगी। 

पिछली 5 मार्च को चेन्नई में हुई एक सर्वदलीय सभा में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने माँग की थी कि देश में तीस साल के लिए संसदीय सीटों का परिसीमन ‘फ़्रीज़’ कर दिया जाए। सच यह है कि 1976 के बाद से यह काम 50 सील तक ‘फ़्रीज़’ रहा है। अध्ययन इस बात का भी होना चाहिए कि उसे तीस साल और ‘फ़्रीज़’ करने से हासिल क्या होने वाला है? 

कांग्रेस का रुख

कांग्रेस ने, जिसकी अखिल भारतीय उपस्थिति है और जो विरोधी खेमे की अघोषित नेता है, अभी तक परिसीमन और भाषा पर कोई आधिकारिक बयान नहीं दिया है, केवल कर्नाटक और तेलंगाना के उसके मुख्यमंत्रियों ने ही इस मुद्दे पर अपना रुख व्यक्त किया है, जिससे पार्टी दोराहे पर खड़ी हो गई है। कांग्रेस फिलहाल केवल तीन राज्यों में सत्ता में है, जिनमें से दो दक्षिण भारतीय राज्य कर्नाटक और तेलंगाना हैं। पार्टी अगले साल केरल विधानसभा चुनावों में वापसी करने की कोशिश कर रही है। 

इसने कई साल से तमिलनाडु में डीएमके के नेतृत्व वाले गठबंधन का मजबूती से समर्थन किया है। यहाँ तक कि इसकी 99 लोकसभा सीटों में से 40 सीटें चार दक्षिणी राज्यों से हैं। इसलिए, दक्षिण में अपना आधार बनाए रखना और बढ़ाना पार्टी के लिए महत्वपूर्ण है। दूसरी तरफ पार्टी को 2014 और 2019 के चुनावों में इस क्षेत्र में सफाया होने के बाद 2024 के लोकसभा चुनावों में हिंदी पट्टी में पुनरुद्धार की उम्मीद दिख रही है। वह परिसीमन के मुद्दे को केवल भौगोलिक आधार पर तैयार करके उत्तर को भी अलग-थलग करने की गलती नहीं कर सकती। 

उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान के कांग्रेस नेता मानते हैं कि पार्टी को परिसीमन पर कोई रुख अपनाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह प्रक्रिया जनगणना के बाद ही शुरू होगी। अभी कोई रुख क्यों अपनाया जाए? उधर राजद परिसीमन को टालने के पक्ष में नहीं है, लेकिन उसका मानना है कि जनसंख्या ही एकमात्र मानदंड नहीं होना चाहिए। समाजवादी पार्टी के सूत्रों ने कहा कि पार्टी अभी इस विवाद में नहीं पड़ना चाहती, क्योंकि पार्टी ने अभी तक इस मामले पर कोई निर्णय नहीं लिया है। तृणमूल कांग्रेस भी चुप्पी साधे हुए है, लेकिन उसके एक नेता का मानना है कि स्टालिन अगले साल तमिलनाडु में होने वाले विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए परिसीमन और तीन भाषा फार्मूले जैसे मुद्दों को उठा रहे हैं।

जनसांख्यिकीय बदलाव

दक्षिण भारत से भाषा को लेकर विरोध के जो स्वर सुनाई पड़ रहे हैं, वस्तुतः उनके पीछे जनसांख्यिकीय परिवर्तन हैं, जिन्हें आप देश के उन सभी स्थानों में देख सकते हैं, जहाँ आर्थिक-गतिविधियाँ तेज हो रही हैं। बड़े स्तर पर प्रवासन के कारण चेन्नई, बेंगलुरु, हैदराबाद, मुंबई, कोलकाता और दिल्ली एनसीआर जैसे शहरी इलाकों में इसका सबसे ज्यादा असर आप देखेंगे। 

जिस वक्त तमिलनाडु और कर्नाटक से हिंदी-विरोध के स्वर सुनाई पड़े हैं, तकरीबन उसी वक्त राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वरिष्ठ नेता भैयाजी जोशी भाषा के विवाद में उलझ गए। उन्होंने किसी संदर्भ में कह दिया कि मुंबई की एक भाषा नहीं है और मुंबई आने वाले लोगों को मराठी सीखने की जरूरत नहीं है। 

बुधवार को मुंबई के उपनगर विले पार्ले में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में उन्होंने मराठी में कहा, मुंबई में कई भाषाएँ हैं। अलग-अलग इलाकों की अलग-अलग भाषाएँ हैं। उदाहरण के लिए, घाटकोपर की भाषा गुजराती है। गिरगाँव में आपको हिंदी बोलने वाले कम लोग मिलेंगे। वहाँ आपको मराठी बोलने वाले लोग मिलेंगे। मुंबई आने वाले लोगों को मराठी सीखने की कोई ज़रूरत नहीं है।

ज्यादातर विरोध राजनीतिक हैं, क्योंकि जनसंख्या के बदलाव से राजनीतिक दलों की लोकप्रियता पर असर होता है। इसके साथ ही राजनीतिक नेतृत्व की संरचना में भी बदलाव होता है। देश की करीब दस प्रतिशत यानी 14-15 करोड़ आबादी अपनी जगह बदल रही है। मुंबई भारत के सर्वाधिक भाषायी विविधता वाले शहरों में से एक है, जहां पिछली शताब्दी में विभिन्न भाषाओं का समृद्ध मिश्रण विकसित हुआ है।

मुंबई में मराठी

जनगणना के आँकड़ों के अनुसार, मुंबई में मराठी को अपनी मातृभाषा के रूप में पहचानने वाले लोगों की संख्या में 2.64 प्रश की कमी आई है, जो 2001 में 45.23 लाख से घटकर 2011 में 44.04 लाख हो गई। इस गिरावट ने बढ़ती भाषाई विविधता के सामने मराठी के संरक्षण को लेकर चिंता पैदा कर दी है, जिससे शहर की सांस्कृतिक पहचान पर चल रही बहस और तेज हो गई है।

समाजशास्त्री भाषा को पहचान से जोड़ते हैं, और मुंबई में तेजी से हो रहे आर्थिक और जनसांख्यिकीय बदलावों ने धीरे-धीरे शहर की भाषाई पहचान को नया आकार देना शुरू कर दिया है। नतीजतन, मुंबई की पहचान धीरे-धीरे मुख्य रूप से हिंदी भाषी लोगों की हो रही है, जो इसके सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने में व्यापक बदलावों को दर्शाता है।

दिल्ली में परिवर्तन

इसी तरह 19वीं शताब्दी के मध्य में दिल्ली की जनसंख्या लगभग 250,000 थी। मुगल-साम्राज्य के पराभव का वह दौर था। 1803 में दिल्ली की लड़ाई के बाद, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने नियंत्रण हासिल कर लिया और दिल्ली ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत के अंतर्गत एक जिला शहर बन गया। उस समय दिल्ली में उर्दू/फारसी संस्कृति और कविता फल-फूल रही थी। 1911 में, दिल्ली को आधिकारिक तौर पर ब्रिटिश भारत की राजधानी घोषित किया गया तथा 12 दिसम्बर 1911 को राजधानी को औपचारिक रूप से कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया। 

उस समय तक दिल्ली पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के वैश्य-परिवारों का शहर था। 1947 के बाद दिल्ली में पंजाब से आए शरणार्थियों को जगह दी गई, जिससे यह पंजाबियों का शहर हो गया। फिर नब्बे के दशक से यहाँ बिहारी आप्रवासियों का ज़ोर रहा। यों इस शहर में उत्तराखंड से आए लोगों की बहुतायत भी है। इसके अलावा कुछ इलाके ऐसे हैं, जहाँ बंगालियों और दक्षिण भारतीयों की बहुतायत है। इस लिहाज से दिल्ली की डेमोग्राफी लगातार बदलती रही है। ऐसा ही मुंबई में हुआ है और अब बेंगलुरु, हैदराबाद, पुणे और चेन्नई जैसे शहरों में हो रहा है। कोलकाता में यह प्रक्रिया काफी पहले हो चुकी है। गुजरात के कारोबारी शहरों का भी यही हाल है। उत्तर भारत के मारवाड़ी कारोबारियों और बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के श्रमिकों के कारण ऐसा हो रहा है।

औद्योगीकरण और व्यापार 

मुंबई ने, जो मूल रूप से संपन्न बंदरगाह शहर था, 1900 के दशक में कपड़ा उद्योगों के उदय के साथ महत्वपूर्ण विकास देखा। 1921 तक, शहर की आबादी का लगभग 84 प्रतिशत हिस्सा प्रवासियों का था, जिनमें से ज्यादातर पूर्व बॉम्बे प्रेसीडेंसी से थे, जिसमें कोंकण, पश्चिमी महाराष्ट्र, गुजरात के कुछ हिस्से और गोवा जैसे पड़ोसी राज्य शामिल थे। इन प्रवासियों ने मुंबई को एक वाणिज्यिक और औद्योगिक शक्ति के रूप में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

पिछले 40 वर्षों में, शहर ने कपड़ा मिलों के बंद होने के कारण फिर से बदलाव का अनुभव किया है। जैसे-जैसे मुंबई औद्योगिक केंद्र से सेवा-उन्मुख अर्थव्यवस्था में तब्दील हुआ, प्रवासन का नया पैटर्न भी विकसित हुआ। शहर ने अंतरराज्यीय प्रवासियों को तेजी से आकर्षित किया, खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार से, जो बढ़ते सेवा क्षेत्र में कम लागत वाले श्रम की मांग से आकर्षित हुए।

मुंबई में आज भी मराठी बोलने वाले सबसे बड़े जातीय भाषाई समूह हैं, पर उसके बाद हिंदी, उर्दू और गुजराती बोलने वाले हैं। हाल के आँकड़ों से पता चलता है कि मराठी को अपनी मातृभाषा के रूप में पहचानने वाले लोगों की संख्या में गिरावट आई है। हिंदी बोलने वालों की संख्या में वृद्धि सिर्फ़ मुंबई तक ही सीमित नहीं है। शहर में आवास संबंधी बाधाओं के कारण मुंबई की मराठी भाषी आबादी शहर के मुख्य क्षेत्र से धीरे-धीरे बाहरी इलाकों में स्थानांतरित हो रही है। इस प्रवास के बावजूद, इन बाहरी क्षेत्रों में भी हिंदी भाषी निवासियों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है।

ठाणे और रायगढ़ जैसे जिलों में, जहां अचल संपत्ति की आसमान छूती कीमतों और नौकरी छूटने के कारण कई पुराने मुंबईकर विस्थापित हो गए हैं, वहीं ठाणे में हिंदी भाषी आबादी में 80.45 प्रश और रायगढ़ में आश्चर्यजनक रूप से 87 प्रश की वृद्धि हुई है।


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