वैश्विक राजनीति और भारतीय विदेश-नीति की दिशा को समझने के लिए इस साल भारत में हो रही जी-20 और शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठकों पर ध्यान देना होगा। पिछले दिनों भारत में जी-20 के विदेशमंत्रियों की बैठक में वैश्विक अंतर्विरोध खुलकर सामने आए थे, वैसा ही इस शुक्रवार को नई दिल्ली में एससीओ रक्षामंत्रियों की बैठक में हुआ। विदेश-नीति के लिहाज से भारत और चीन के रक्षामंत्रियों की रूबरू बैठक से यह भी स्पष्ट हुआ कि दोनों देशों के रिश्तों में जमी बर्फ जल्दी पिघलने के आसार नहीं हैं। ऑप्टिक्स के लिहाज से यह बात महत्वपूर्ण थी कि रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने चीनी रक्षामंत्री ली शांगफू से सम्मेलन में हाथ नहीं मिलाया। वैश्विक-राजनीति की दृष्टि से पिछले साल समरकंद में हुए एससीओ के शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ रूसी राष्ट्रपति पुतिन की आमने-सामने की बैठक ने दुनिया के मीडिया ने ध्यान खींचा था और उम्मीद बँधी थी कि यूक्रेन की लड़ाई को रोकने में मदद मिलेगी। मोदी ने प्रकारांतर से पुतिन से कहा था कि आज लड़ाइयों का ज़माना नहीं है। यूक्रेन की लड़ाई बंद होनी चाहिए। पुतिन ने जवाब दिया कि मैं भारत की चिंता को समझता हूँ और लड़ाई जल्द से जल्द खत्म करने का प्रयास करूँगा। पर तब से अब तक दुनिया काफी आगे जा चुकी है और रिश्तों में लगातार तल्खी बढ़ती जा रही है। रक्षामंत्रियों की बैठक के बाद आगामी 4-5 मई को विदेशमंत्रियों की बैठक होने वाली है, उसमें भी किसी बड़े नाटकीय मोड़ की आशा नहीं है, सिवाय इसके कि उसमें पाकिस्तान के विदेशमंत्री बिलावल भुट्टो ज़रदारी आने वाले हैं।
तीन-मोर्चों पर लड़ाई
शंघाई सहयोग संगठन मूलतः चीन और रूस के प्रभाव
को व्यक्त करता है। खासतौर से इसके मार्फत चीन एशिया में अपने प्रभाव क्षेत्र का
विस्तार कर रहा है। इसलिए भारतीय विदेशनीति के नियंताओं की निगाहें इसपर रहती हैं।
भारत के पूर्व चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल विपिन रावत का कहना था कि भारत के सामने
चीन और पाकिस्तान के साथ दो मोर्चों पर युद्ध की नहीं है, बल्कि ढाई या तीन
मोर्चों पर युद्ध की है। तीसरा मोर्चा है भारत के भीतर नक्सलपंथियों का। इस साल
भारत में जी-20 और एससीओ की बैठकों के दौरान कश्मीर में पाकिस्तान परस्त आतंकी
ताकतें सिर उठाने की कोशिश कर ही रही हैं। इधर दंतेवाड़ा में नक्सली कार्रवाई ने
भी इस आशंका को बल प्रदान किया है। नक्सली आंदोलन के पीछे माओवादी समूह हैं,
जिन्हें हथियार और पैसा कहाँ से मिल रहा है, इसके बारे में ज्यादा सोचने की जरूरत
नहीं है।
भारत-चीन रिश्ते
एससीओ रक्षामंत्रियों के सम्मेलन के हाशिए पर
भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और चीन के रक्षामंत्री ली शांगफू के बीच हुई
वार्ता से कोई नई बात निकल कर नहीं आई। अप्रेल-मई 2020 के बाद से पूर्वी लद्दाख
में पैदा हुई खलिश दूर होने का नाम नहीं ले रही है। दोनों देशों के रक्षामंत्रियों
के बीच सितंबर 2020 के बाद से यह पहली बैठक थी। इसके पहले राजनाथ जी की ली के
पूर्ववर्ती के साथ मॉस्को में मुलाकात हुई थी। गलवान प्रकरण तब ताजा ही था। भारत
का दृष्टिकोण तब भी वही था, जो आज है। जब तक लद्दाख में स्थिति सामान्य नहीं होते,
दोनों देशों के रिश्ते सामान्य नहीं हो सकते। दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने
हैं और चीन की ओर से अक्सर कोई न कोई शिगूफा छेड़ा जाता है। शुक्रवार को हुई बैठक
में चीनी रक्षामंत्री का रुख था कि लद्दाख में स्थिति सामान्य है, जबकि भारत मानता
है कि सामान्य नहीं है। जब तक चीनी सेना वापस नहीं जाती स्थिति को सामान्य नहीं
माना जा सकता। चीन चाहता है कि हम लद्दाख की फिक्र छोड़कर उसके साथ सामान्य
कारोबार करें, जो संभव नहीं है। देपसांग के मैदान और डेमचोक क्षेत्र में भारतीय
गश्ती दलों को लगातार रोका जाता है। उधर पिछले दिसंबर में चीनी सेना ने अरुणाचल के
तवांग क्षेत्र में एक चोटी पर कब्जा करने का विफल प्रयास किया था। फिर भारतीय
क्षेत्रों के नए नामकरण की कोशिश हुई। ये सारी बातें स्थितियों को सामान्य साबित
नहीं करती हैं। रक्षामंत्री राजनाथ जी ने चीनी रक्षामंत्री से यही बात कही है।
क्या है एससीओ
एससीओ में नौ देश पूर्ण सदस्य हैं-भारत,
चीन, रूस, पाकिस्तान,
क़ज़ाक़िस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान,
उज़्बेकिस्तान और ईरान। ईरान की सदस्यता इस साल अप्रेल से शुरू हो
रही है। तीन देश पर्यवेक्षक हैं-अफ़ग़ानिस्तान, बेलारूस
और मंगोलिया। छह डायलॉग पार्टनर हैं-अजरबैजान, आर्मीनिया,
कंबोडिया, नेपाल, तुर्की,
श्रीलंका। नए डायलॉग पार्टनर हैं-सऊदी अरब, मिस्र,
क़तर, बहरीन, मालदीव,
यूएई, म्यांमार। भारत इस साल इस संगठन का अध्यक्ष
है और इसका शिखर सम्मेलन इस साल सितंबर में भारत में होगा। शिखर सम्मेलन में इनके
अलावा आसियान, संयुक्त राष्ट्र और सीआईएस के
प्रतिनिधियों को भी बुलाया जाता है। मूलतः यह राजनीतिक, आर्थिक
और सुरक्षा सहयोग का संगठन है, जिसकी शुरुआत चीन और रूस के नेतृत्व
में यूरेशियाई देशों ने की थी। अप्रैल 1996 में शंघाई में
हुई एक बैठक में चीन, रूस, कजाकिस्तान,
किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान जातीय और धार्मिक तनावों को दूर करने के
इरादे से आपसी सहयोग पर राज़ी हुए थे। इसे शंघाई फाइव कहा गया था। इसमें
उज्बेकिस्तान के शामिल हो जाने के बाद जून 2001
में शंघाई सहयोग संगठन की स्थापना हुई। पश्चिमी मीडिया मानता है कि एससीओ का मुख्य
उद्देश्य नेटो के बराबर खड़े होना है। भारत इसमें सबसे बड़ी संतुलनकारी शक्ति के
रूप में उभर कर आ रहा है।
चीनी महत्वाकांक्षा
एससीओ का प्रवर्तन चीन ने किया है। वह अपने
राजनयिक-प्रभाव का विस्तार करने के लिए इस संगठन का इस्तेमाल करना चाहता है। साथ
ही यह भी लगता है कि पश्चिमी देशों का दबाव उसपर बहुत ज्यादा है। उसकी
अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे मंदी की ओर बढ़ रही है। दूसरी तरफ इसमें रूस की भागीदारी
से भी अंतर्विरोध पैदा हो रहे हैं। यूक्रेन-युद्ध के कारण रूस पर पश्चिमी देशों ने
आर्थिक प्रतिबंध थोपे हैं, जिसके कारण इन देशों के आपसी आर्थिक-संबंध भी प्रभावित
हो रहे हैं। साथ ही यह भी कि जब रूस और चीन के रिश्ते अपने पड़ोसियों से बिगड़े
हुए है, तब उनके नेतृत्व वाले संगठन से शांति स्थापना की आशा कैसे की जाए? एससीओ के भीतर भारत और पाकिस्तान के बीच भी टकराव जिस स्तर है और
जिसमें चीन की महत्वपूर्ण भूमिका है, यह अंतर्विरोध और तीखा हो जाता है। इतना ही
नहीं पिछले कुछ समय से तालिबान-नियंत्रित अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच भी
टकराव बढ़ रहा है। चीनी महत्वाकांक्षा अंततः रूस को पीछे छोड़ने की है। कहना
मुश्किल है कि चीन अपनी आर्थिक शक्ति के सहारे इस इलाके का नेतृत्व करने में
कामयाब होगा। बहरहाल भारत की निगाहें चीन पर रहनी चाहिए।
रूसी ताकत
इस संगठन से जुड़ी दूसरी बड़ी ताकत रूस है। पिछले
साल जनवरी में कजाकिस्तान में जब उथल-पुथल हुई, तब यह संगठन कोई महत्वपूर्ण भूमिका
नहीं निभा पाया। उस समय रूसी सेना को हस्तक्षेप करना पड़ा। हालांकि सोवियत संघ के
भंग होने के बाद से मध्य एशिया के देश स्वतंत्र हो चुके हैं, पर रूस इस इलाके को
अपना मानता है। यूक्रेन के साथ टकराव भी रूस की इसी मनोदशा को व्यक्त करता है।
व्लादिमीर पुतिन की रूसी-संसार अवधारणा इस इलाके में फिर किसी समय टकराव पैदा कर
सकती है। इस इलाके के तमाम लोग आज भी रूस में काम करते हैं और उनके रूस के साथ
भावनात्मक रिश्ते हैं। तुर्की और ईरान भी इस इलाके में अपने प्रभाव का विस्तार
करना चाहते हैं। एससीओ में भारत ने शामिल होने का फैसला रूस के सुझाव पर ही किया
था। दोनों देशों के रिश्ते अच्छे हैं, पर चीनी प्रभाव के कारण रूस की भावी भूमिका
पर नज़रें रखनी होंगी। भारत के दूरगामी हित मध्य एशिया के देशों के साथ कारोबार की
संभावनाओं के साथ जुड़े हैं। इस सिलसिले में अफगानिस्तान हमें सड़क मार्ग उपलब्ध
करा सकता है। चूंकि पाकिस्तान ने हमें रास्ता नहीं दिया है, इसलिए भारत ने समुद्र
के रास्ते चाबहार का मार्ग इस काम के लिए चुना है।
वैश्विक अंतर्विरोध
बहरहाल जी-20 और एससीओ के कार्यक्रमों के
मार्फत यह भी नज़र आ रहा है कि भारतीय डिप्लोमेसी किस तरीके से दो ध्रुवों के बीच
अपनी जगह बना रही है। आगामी 4-5 मई को गोवा में हो रही एससीओ विदेशमंत्रियों के
सम्मेलन भारत को एक तरफ चीन और पाकिस्तान के बरक्स अपनी विदेश नीति की धार को बनाए
रखना है, वहीं अमेरिका और रूस के बीच के संतुलन को भी बनाना होगा। गोवा-सम्मेलन
में पाकिस्तान के विदेशमंत्री बिलावल भुट्टो ज़रदारी के शामिल होने की संभावना भी
है, पर स्पष्ट है कि उनकी भारतीय विदेशमंत्री के साथ सम्मेलन के हाशिए पर
द्विपक्षीय-वार्ता नहीं होगी। 28 अप्रेल को नई दिल्ली में हुई एससीओ
रक्षामंत्रियों की बैठक में पाकिस्तान के रक्षामंत्री ख्वाजा आसिफ ने इस बैठक में
वर्चुअल रूप से भी भाग नहीं लिया, जिसकी पहले घोषणा की गई थी। पाकिस्तान की ओर से
पहले कहा गया था कि उसके रक्षामंत्री दिल्ली नहीं आएंगे, पर वे ऑनलाइन शामिल होंगे।
इस घोषणा के बावजूद वे ऑनलाइन भी नहीं आए। अपने संबोधन में रक्षामंत्री राजनाथ
सिंह ने पाकिस्तान की ओर इशारा करते हुए आतंकवाद को खत्म करने के लिए इस तरह की
गतिविधियों को सहायता व वित्तपोषण करने वालों की जवाबदेही तय करने का आह्वान किया।
उन्होंने कहा, यदि एक राष्ट्र आतंकवादियों को शरण देता है, यह
न सिर्फ दूसरों के लिए बल्कि अपने लिए भी खतरा पैदा करता है।
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