Saturday, October 1, 2022

बंद होना चाहिए नफ़रती बहसों का ज़हरीला कारोबार

मीडिया की सजगता या अतिशय सनसनी फैलाने के इरादों के कारण पिछले कुछ महीनों से देश में जहर-बुझे बयानों की झड़ी लग गई। अक्सर लोग इसे अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानते हैं, पर जब यह सुरुचि और स्वतंत्रता का दायरा पार कर जाती है, तब उसे रोकने की जरूरत होती है। हेट स्पीच का नवीनतम सुप्रीम कोर्ट से आया है। अदालत ने काफी कड़े शब्दों में चैनलों के एंकरों को फटकार लगाई है और इससे जुड़े सभी पक्षों से कहा है कि वे रास्ता बताएं कि किस तरह से इस आग को बुझाया जाए।

हालांकि देश में आजादी के पहले से ऐसे बयानों का चलन रहा है, पर 1992 में बाबरी विध्वंस के कुछ पहले से इन बयानों ने सामाजिक जीवन के ज्यादा बड़े स्तर पर प्रभावित किया है। इस परिघटना के समांतर टीवी का प्रसार बढ़ा और न्यूज़ चैनलों ने अपनी टीआरपी और कमाई बढ़ाने के लिए इस ज़हर का इस्तेमाल करना शुरू किया है। नब्बे के दशक में लोग गलियों-चौराहों और पान की दुकानों ज़हर बुझे भाषणों के टेपों को सुनते थे। विडंबना है कि हेट स्पीच रोकने के लिए देश में तब भी कानून थे और आज भी हैं, पर किसी को सजा मिलते नहीं देखा गया है।

सब मूक-दर्शक

गत 21 सितंबर को जस्टिस केएम जोसफ और जस्टिस हृषीकेश रॉय की बेंच ने हेट-स्पीच से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा कि यह एंकर की जिम्मेदारी है कि वह किसी को नफरत भरी भाषा बोलने से रोके। बेंच ने पूछा कि इस मामले में सरकार मूक-दर्शक क्यों बनी हुई है, क्या यह एक मामूली बात है? यही प्रश्न दर्शक के रूप में हमें अपने आप से भी पूछना चाहिए। यदि यह महत्वपूर्ण मसला है, तो टीवी चैनल चल क्यों रहे हैं? हम क्यों उन्हें बर्दाश्त कर रहे हैं? मूक-दर्शकतो हम और आप हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि सामान्य नागरिकों के भीतर चेतना का वह स्तर नहीं है, जो विकसित लोकतंत्र में होना चाहिए।

चौराहों, नुक्कड़ों और भिंडी-बाजार के स्वर और शब्दावली विद्वानों की संगोष्ठी जैसी शिष्ट-सौम्य नहीं होती। पर खुले गाली-गलौज को तो मछली बाजार भी नहीं सुनता। वह भाषा सोशल मीडिया में पहले प्रवेश कर गई थी, अब मुख्यधारा के मीडिया में भी सुनाई पड़ रही है। मीडिया की आँधी ने सूचना-प्रसारण के दरवाजे भड़ाक से  खोल दिए हैं। बेशक इसके साथ ही तमाम ऐसी बातें सामने आ रहीं हैं, जो हमें पता नहीं थीं। कई प्रकार के सामाजिक अत्याचारों के खिलाफ जनता की पहलकदमी इसके कारण बढ़ी है, पर सकारात्मक भूमिका के मुकाबले उसकी नकारात्मक भूमिका चर्चा में है। हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हामी हैं, पर नहीं जानते कि इससे जुड़ी मर्यादाएं भी हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बंदिश लगाने के जोखिम भी हैं।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

अदालत ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जरूरी है, लेकिन टीवी पर अभद्र भाषा बोलने की आजादी नहीं दी जा सकती है। संविधान के अनुच्छेद 19(1) ए के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीम नहीं है। उसपर विवेकशील पाबंदियाँ हैं। सिनेमाटोग्राफिक कानूनों के तहत सेंसरशिप की व्यवस्था भी है। पर समाचार मीडिया को लाइव प्रसारण की जो छूट मिली है, उसने अति कर दी है। टीवी मीडिया और सोशल मीडिया बिना रेग्युलेशन के काम कर रहे हैं। उनका नियमन होना चाहिए। इन याचिकाओं पर अगली सुनवाई 23 नवंबर को होगी। कोर्ट ने केंद्र को निर्देश दिया है कि वह स्पष्ट करे कि क्या वह हेट-स्पीच पर अंकुश लगाने के लिए विधि आयोग की सिफारिशों पर कार्रवाई करने का इरादा रखती है।

देश में हेट-स्पीच से निपटने के लिए कई तरह के कानूनों का इस्तेमाल होता है, पर किसी में हेट-स्पीच को परिभाषित नहीं किया गया है। केंद्र सरकार अब पहले इसे परिभाषित करने जा रही है। विधि आयोग की सलाह है कि जरूरी नहीं कि सिर्फ हिंसा फैलाने वाली स्पीच को हेट-स्पीच माना जाए। इंटरनेट पर पहचान छिपाकर झूठ और आक्रामक विचार आसानी से फैलाए जा रहे हैं। ऐसे में भेदभाव बढ़ाने वाली भाषा को भी हेट-स्पीच के दायरे में रखा जाना चाहिए। सबसे ज्यादा भ्रामक जानकारियां फेसबुक, ट्विटर और वॉट्सएप जैसे प्लेटफॉर्मों के जरिए फैलती हैं। इनके खिलाफ सख्त कानून बनने से कानूनी कार्रवाई का रास्ता खुलेगा, पर फ्री-स्पीच के समर्थक मानते हैं कि एंटी-हेट-स्पीच कानून का इस्तेमाल विरोधियों की आवाज दबाने के लिए किया जा सकता है।

आत्मघाती बहसें

कोई देश अपनी समस्याओं पर विचार विमर्श करे, इससे अच्छी बात क्या होगी. पर ये बहसें तो देश को ही जलाने पर उतारू हैं। नब्बे के दशक में जब देश में निजी चैनल शुरू हुए थे, तब आमतौर पर टीवी हार्ड न्यूज़ या ब्रेकिंग न्यूज़ की मीडिया था। उसमें बहस या विमर्श का हिस्सा बहुत कम था। आज हालत यह है कि आप दिन में जब भी टीवी खोलें, तो बहस होती नज़र आएगी। ज्यादातर चैनलों पर आप देखें कि बहस में भागीदार भले ही दस हों, एंकर की कोशिश होती है कि एक पक्ष बनाम दूसरा पक्ष हो। शुरुआती वर्षों में इस चर्चा में भाग लेने वाले स्वतंत्र टिप्पणीकार या ऐसे विशेषज्ञ होते थे, जो संतुलित बातें करते थे। पर अब चैनल एक-दूसरे से विपरीत राय रखने वाले और आत्यंतिक दृष्टिकोण वाले लोगों को बहस में शामिल करते हैं। वे चाहते हैं कि स्टूडियो में तनाव पैदा हो।

हाल के वर्षों में लाइव टीवी शो के दौरान थप्पड़, लात और घूँसे भी चलते देखे गए हैं। सच यह है कि कार्यक्रमों की पटकथा एंकर नहीं लिखते। वह तो चैनलों का प्रबंधन तय करता है। उसे टीआरपी चाहिए, जो सनसनी, तनाव और टकराव से मिलती है। सामाजिक जीवन के टकराव का फायदा उठाना सबसे आसान काम है। इन कार्यक्रमों के नाम भी महा संग्राम, हल्ला बोल, आर-पार, जवाब दो, दंगल, शंखनाद, खबरदार, महाभारत, मुकाबला, घमासान, वगैरह-वगैरह हैं। इनसे सनसनी की ध्वनि आती है। अदालत ने कहा, हेट-स्पीच से राजनेताओं को सबसे ज्यादा फायदा होता है और टेलीविजन चैनल उन्हें इसके लिए मंच देते हैं।

समाधान क्या है?

सवाल है कि इन बातों का समाधान क्या है? अदालत ने भी समस्या का जिक्र किया है, समाधान नहीं बताया। बेशक वर्तमान परिस्थितियों में एक समाधान है कि आप टीवी बंद करके बैठ जाएं, पर यह समाधान नहीं है। नकारात्मक के अलावा मीडिया के सकारात्मक पक्ष भी हैं। दूसरे यदि यह कानून-व्यवस्था से जुड़ी समस्या है, तो उसके समाधान या तो सरकार देगी या अदालत। 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले दो बार सुप्रीम कोर्ट में ‘हेट-स्पीच’ का मामला सामने आया। अदालत ने 12 मार्च को एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए विधि आयोग को निर्देश दिया कि वह नफरत भरे बयानों, खासतौर से चुनाव के दौरान ऐसी हरकतों को रोकने के लिए दिशा निर्देश तैयार करे। जस्टिस बीएस चौहान के नेतृत्व में तीन सदस्यों के पीठ ने कहा कि ऐसे बयान देने वालों को सजा न मिल पाने का कारण यह नहीं है कि हमारे कानूनों में खामी है। कारण यह है कि कानूनों को लागू करने वाली एजेंसियाँ शिथिल हैं।

2020 में सुदर्शन न्यूज़ चैनल के यूपीएससी जिहाद' कार्यक्रम पर रोक लगाते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था, 'हमें इसमें दखल देना पड़ा क्योंकि इस पर कोई एक्शन नहीं लिया जा रहा था। ये सही वक्त हो सकता है, जब हम आत्म नियमन की ओर बढ़ें।'  इस समय अदालत के सामने जो कई याचिकाएं हैं, उनमें एक यह भी है। ये बातें व्यापक स्तर पर हेट-स्पीच से जुड़ी हैं। टीवी स्टूडियो या उससे बाहर कहीं भी। पर यहाँ टीवी स्टूडियो से बाहर निकल रही जहरीली भाषा की बात हो रही है। हाल में सरकार ने सोशल मीडिया के नियमन के लिए कुछ निर्देश और नियम जारी किए थे, जिन्हें अदालत में चुनौती दी गई है। सरकार टीवी से जुड़े नियम बनाएगी, तो उन्हें भी चुनौती दी जाएगी। एक तरीका है कि टीवी चैनलों से जुड़ी संस्थाएं नियमन की शुरुआत करें। इसके लिए एनबीए और एनबीएसए जैसी संस्थाएं बनी हैं।

मुंबई हमला

नवंबर 2008 में मुंबई हमले के दौरान हुई लाइव कवरेज का लाभ आतंकियों ने उठाया था। उसके बाद चैनलों ने आत्मानुशासन का परिचय दिया था। वे अब भी यह काम कर सकते हैं। 2007 में न्यूज़ चैनलों ने मिलकर न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग एसोसिएशन यानी एनबीए का गठन किया था। पिछले साल इसका नाम न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग एंड डिजिटल एसोसिएशन (एनबीडीए) कर दिया गया। इसमें डिजिटल मीडिया को भी शामिल कर लिया गया है। न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड अथॉरिटी यानी एनबीएसए का नाम अब एनबीडीएसए है। पर इन संस्थाओं की वैधानिकता नहीं है। चैनल इनकी सलाह मानें या न मानें, उनकी मर्जी। सुदर्शन टीवी मामले पर सुनवाई के दौरान एनबीडीएसए के अधिकारों को लेकर भी बातें कही गई हैं।

धंधा और मुनाफा

समस्या के पीछे दो बड़े कारण हैं। एक, राजनीतिक और दूसरा कारोबारी। राजनीतिक दल अपने दृष्टिकोण का ज्यादा से ज्यादा प्रसारण चाहते हैं। सभी राजनीतिक दलों ने अपने प्रवक्ताओं की लंबी फौजें तैयार कर ली हैं। पिछले डेढ़ दशक में राजनीतिक दलों के प्रवक्ता बनने का काम बड़े कारोबार के रूप में विकसित हुआ है। पार्टियों के भीतर इस काम के लिए कतारें हैं। दूसरे, टीवी चैनलों का कारोबार इससे जुड़ा है। आप चैनलों को देखें। उनमें सरकारों के विज्ञापन बढ़ गए हैं। कई राज्यों की सरकारों के विज्ञापन आप राष्ट्रीय मीडिया में देखेंगे। चैनलों के प्रबंधकों को जब जरूरी लगता है, वे उस सरकार के पक्ष में कवरेज कराते हैं या नहीं? उनके पास कवरेज को नियंत्रित करने के उपकरण हैं। वे जब चाहते हैं, तब कवरेज में झुकाव पैदा कर देते हैं।

जब राजनीति इस नफरती आग में रोटियाँ सेंकने लगती है, तब उसपर काबू पाना काफी जटिल हो जाता है। और जब शिकायतें बढ़ती हैं, तब पुलिस प्रशासन जो कार्रवाई करता है, उसे लेकर भी शिकायतें होती हैं। यह दो-चार एंकरों की बात नहीं है। सच वह है जो जस्टिस रॉय ने कहा है,'नफ़रत से टीआरपी आती है और टीआरपी से मुनाफ़ा आता है।' साथ ही उन्होंने कहा कि हम इसे लेकर एक गाइडलाइन जारी करना चाहते हैं जो कानून बनने तक इस्तेमाल में लाई जाए। पर इसमें भी समय लगेगा। नफरत का यह हथियार बहुतों को फायदा पहुँचा रहा है। जब नफरती-कारोबार में मुनाफा है, तब हम प्रेम और सद्भाव किसे और कैसे समझाएंगे?

राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित

 

 

 

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