Sunday, September 4, 2022

अर्थव्यवस्था का मंथर-प्रवाह


भारत की अर्थव्यवस्था (जीडीपी) चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में 13.5 फीसदी बढ़ी है। सामान्य-दृष्टि से इस संख्या को बहुत उत्साहवर्धक माना जाएगा, पर वस्तुतः यह उम्मीद से कम है। विशेषज्ञों का  पूर्वानुमान 15 से 16 प्रतिशत का था, जबकि रिज़र्व बैंक को 16.7 प्रतिशत की उम्मीद थी।  अब इस वित्त वर्ष के लिए ग्रोथ के अनुमान को विशेषज्ञ 7.2 और 7.5 प्रतिशत से घटाकर 6.8 से 7.00 प्रतिशत मानकर चल रहे हैं। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की ओर से 31 अगस्त को जारी आँकड़ों के अनुसार जीडीपी की इस वृद्ध में सेवा गतिविधियों में सुधार की भूमिका है, बावजूद इसके व्यापार, होटल और परिवहन क्षेत्र की वृद्धि दर अब भी महामारी के पूर्व स्तर (वित्त वर्ष 2020 की जून तिमाही) से कम है। हालांकि हॉस्पिटैलिटी से जुड़ी गतिविधियों में तेजी आई है। जीडीपी में करीब 60 फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाले, उपभोग ने जून की तिमाही में 29 फीसदी की मजबूत वृद्धि दर्ज की।

नागरिक का भरोसा

उपभोक्ताओं ने पिछले कुछ समय में जिस जरूरत को टाला था, उसकी वापसी से निजी व्यय में इजाफा हुआ है। इससे इशारा मिलता है कि खर्च को लेकर उपभोक्ताओं का भरोसा बढ़ा है। ‘पर्चेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स’ (पीएमआई), क्षमता का उपयोग, टैक्स उगाही, वाहनों की बिक्री के आँकड़े जैसे सूचकांक बताते हैं कि इस वित्त वर्ष के पहले कुछ महीनों में वृद्धि की गति तेज रही। अगस्त में मैन्युफैक्चरिंग की पीएमआई 56.2 थी, जो जुलाई में 56.4 थी। यह मामूली वृद्धि है, पर मांग में तेजी और महंगाई की चिंता घटने के कारण वृद्धि को मजबूती मिली है। खाद्य सामग्री से इतर चीजों के लिए बैंक क्रेडिट में मजबूत वृद्धि भी मांग में सुधार का संकेत देती है। दूसरी तरफ सरकारी खर्च महज 1.3 फीसदी बढ़ा है। सरकार राजकोषीय घाटे को काबू करने पर ध्यान दे रही है।

बेहतरी की ओर

जीडीपी के ये आँकड़े अर्थव्यवस्था की पूरी तस्वीर को पेश नहीं करते हैं, पर इनके सहारे काफी बातें स्पष्ट हो रही हैं। पहला निष्कर्ष है कि कोविड और उसके पहले से चली आ रही मंदी की प्रवृत्ति को हमारी अर्थव्यवस्था पीछे छोड़कर बेहतरी की ओर बढ़ रही है। पर उसकी गति उतनी तेज नहीं है, जितना रिजर्व बैंक जैसी संस्थाओं को उम्मीद थी। इसकी वजह वैश्विक-गतिविधियाँ भी हैं। घरेलू आर्थिक गतिविधियों में व्यापक सुधार अभी नहीं आया है। आने वाले समय में ऊँची महंगाई, कॉरपोरेट लाभ में कमी, मांग को घटाने वाली मौद्रिक नीतियों और वैश्विक वृद्धि की मंद पड़ती संभावनाओं के रूप में वैश्विक चुनौतियों का अंदेशा बना हुआ है। मुद्रास्फीति को काबू में करने के लिए ब्याज दरें बढ़ने से अर्थव्यवस्था में तरलता की कमी आई है, जिससे पूँजी निवेश कम हुआ है। नए उद्योगों और कारोबारों के शुरू नहीं होने से रोजगार-सृजन पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। इससे उपभोक्ता सामग्री की माँग कम होगी। सरकारी खर्च बढ़ने से इस कमी को कुछ देर के लिए ठीक किया जा सकता है, पर सरकार पर कर्ज बढ़ेगा, जिसका ब्याज चुकाने की वजह से भविष्य के सरकारी खर्चों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और विकास-योजनाएं ठप पड़ेंगी। इस वात्याचक्र को समझने और उसे दुरुस्त करने की एक व्यवस्था है। भारत सही रास्ते पर है, पर वैश्विक-परिस्थितियाँ आड़े आ रही हैं। अच्छी खबर यह है कि पेट्रोलियम की कीमतें गिरने लगी हैं।

महंगाई की मार

जुलाई के महीने में देश का खुदरा मूल्य सूचकांक (सीपीआई-सी) 6.71 हो गया, जो पिछले पाँच महीनों में सबसे कम है। अच्छी संवृद्धि और मुद्रास्फीति में क्रमशः आती गिरावट से उम्मीदें बढ़ी हैं। स्थिर कीमत पर आधारित सकल मूल्य वर्धन (जीवीए) चालू वित्त वर्ष की अप्रैल-जून तिमाही में 12.7 फीसदी बढ़ा, जबकि नॉमिनल जीडीपी में 26.7 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई, जो अर्थव्यवस्था में ऊँची मुद्रास्फीति के असर को दर्शाता है। इसका मतलब है कि खुदरा महंगाई भले ही क़ाबू में दिख रही हो, असली महंगाई सुरसा की तरह मुंह खोले खड़ी है। रिजर्व बैंक को इस समस्या के समाधान पर विचार करना होगा। इस महीने 30 सितंबर को रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) की बैठक होने वाली है। अनुमान है कि बैंकों की ब्याज दरों में 25 से 35 आधार अंकों (बीपीएस) की बढ़ोतरी हो सकती है। उसके पहले 12 सितंबर को भारत के अगस्त महीने को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की और 21 सितंबर को अमेरिकी फेडरल बैंक की ब्याज दरों की घोषणा होगी। रिजर्व बैंक को इन दोनों घोषणाओं का इंतजार रहेगा। इनका असर भारत में विदेशी पूँजी-निवेश पर पड़ेगा। रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति को 2-6 प्रतिशत के बीच रखना चाहता है। शायद ब्याज दरें उतनी न बढ़ें, जितनी समझी जा रही है।

पूँजी निवेश

निवेश संबंधी गतिविधियों का जायजा देने वाले ‘ग्रॉस फिक्स्ड कैपिटल फॉर्मेशन’ (जीएफसीएफ) ने 20.1 फीसदी की वृद्धि दर्ज की। जीडीपी में इसका योगदान पिछले वर्ष की इसी तिमाही के मुक़ाबले इस तिमाही में 32.7 फीसदी से बढ़कर 34.7 फीसदी हो गया। आर्थिक मामलों के सचिव अजय सेठ के अनुसार यह पिछले दस साल की पहली तिमाहियों में सबसे ज्यादा है। इससे पता लगता है कि कई तरह के सुधारों और उठाए गए कदमों का असर दिखाई पड़ रहा है। हालांकि महामारी से पहले की अवधि में वित्त वर्ष 2020 की पहली तिमाही की तुलना में यह महज 6.7 फीसदी बढ़ा है। पहली तिमाही में पूँजीगत निवेश 1.75 लाख करोड़ रुपये का हुआ, जो इस साल के बजट अनुमान का 23.4 प्रतिशत है और पिछले वर्ष की तुलना में 57 प्रतिशत ज्यादा है। इस प्रकार इस तिमाही में सकल स्थिर पूंजी निर्माण और निजी उपभोग दोनों बहुत अच्छे रहे हैं।

बेरोजगारी

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के ताज़ा आँकड़े बता रहे हैं कि 2021 में देश में 4204 दिहाड़ी मज़दूरों ने आत्महत्या की है। ये ज्यादातर शहरी मजदूर हैं। यह देश में हुई कुल आत्महत्याओं का एक चौथाई से ज़्यादा हिस्सा था. रिपोर्ट में दिखता है कि 2014 के बाद से लगातार रोज़ कमाने वालों की आत्महत्या के मामलों में बढ़त हो रही है। इनमें बेरोज़गारों, स्वरोजगार में लगे लोगों और प्रोफेशनल्स या वेतनभोगियों को भी जोड़ें तो यह आंकड़ा 50 प्रतिशत से ऊपर पहुंच जाता है। देश में बेरोजगारी दर अगस्त में एक साल के उच्च स्तर 8.3 प्रतिशत पर पहुंच गई। इस दौरान रोजगार पिछले महीने की तुलना में 20 लाख घटकर 39.46 करोड़ रह गया। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के अनुसार, जुलाई में बेरोजगारी दर 6.8 प्रतिशत थी तथा रोजगार 39.7 करोड़ था। शहरी बेरोजगारी दर आमतौर पर ग्रामीण बेरोजगारी दर से ऊंची यानी आठ प्रतिशत रहती है, जबकि ग्रामीण बेरोजगारी दर लगभग सात प्रतिशत होती है। अगस्त में शहरी बेरोजगारी दर बढ़कर 9.6 प्रतिशत और ग्रामीण बेरोजगारी दर 7.7 प्रतिशत हो गई। ग्रामीण बेरोजगारी का रिश्ता खेती से जुड़ी गतिविधियों और शहरी बेरोजगारी का संबंध औद्योगिक गतिविधियों और उपभोक्ता सामग्री की खरीद से जुड़ा है।

अमृत काल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगले 25 वर्षों को अमृत काल घोषित किया है। यानी कि देश को विकसित देशों की बराबरी पर रखने का समय। यह कैसे होगा? अगले 25 वर्ष में उठाए गए नीतिगत कदम ही तय करेंगे कि 2047 में भारत की विकास-यात्रा में कितनी दूरी तय कर पाएगी। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद तथा इंस्टीट्यूट फॉर कंपटीटिवनेस द्वारा प्रकाशित एक साझा रिपोर्ट इसे समझने के लिए उपयोगी है। यह रिपोर्ट ‘इंडिया कंपटीटिवनेस इनीशिएटिव’ का हिस्सा है, जो नरेंद्र मोदी और हार्वर्ड बिजनेस स्कूल के माइकल पोर्टर की वार्ता के बाद शुरू हुआ है। इस पहल का काम है, नीतियों का ऐसा खाका तैयार करना, जिनसे देश को 2047 में आजादी की 100वीं वर्षगांठ तक मध्य आय और उससे आगे ले जाया जा सके। रिपोर्ट में मौजूदा हालात को लेकर जो आकलन किया गया है उसमें कहा गया है कि भारत में गरीबी कम हुई है, वहीं असमानता बढ़ी है। प्रति कर्मचारी सकल घरेलू उत्पाद में आए बदलाव के आधार पर आकलित उत्पादकता वृद्धि अच्छी रही है लेकिन श्रम को संगठित करने में हम पिछड़े हैं। कृषि और श्रम शक्ति की भागीदारी में कामयाबी नहीं मिली है। महिलाओं की भागीदारी निराशाजनक रूप से कम रही है। बड़ी कंपनियों ने उत्पादकता बढ़ाई है, पर ज्यादातर लोग छोटी कंपनियों में काम करते हैं। देश का बड़ा हिस्सा विकास की प्रक्रिया से कटा हुआ है। शहरीकरण बहुत धीमा है। इन समस्याओं के बारे में हम जानते हैं, पर उनसे जुड़े नीतिगत फैसले नहीं कर पाए हैं।

शिक्षा की गुणवत्ता

भारत को आर्थिक-वृद्धि हासिल करनी है तो जवाब देना होगा कि हमारी शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार क्यों नहीं हो रहा है। जब तक मानव-संपदा में सुधार नहीं होगा, तब तक देश का कारोबार प्रतिस्पर्धी नहीं बन सकेगा। देश की कंपनियों का आकार जिस गति से बढ़ना चाहिए, उस गति से नहीं बढ़ रहा है। इसी तरह स्वदेशी कंपनियों को विदेशी कंपनियों की स्पर्धा से बचाने की कोशिशों के बजाय उन्हें प्रतिस्पर्धी बनाने का प्रयास करना चाहिए। यह दुखद स्थिति है कि दुनिया के कुल व्यापार में भारत की हिस्सेदारी आज भी कोरोना के पहले वाली स्थिति में नहीं पहुंच पाई है। हमारी हिस्सेदारी तीन प्रतिशत के आसपास है। यह हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए हमारे माल को गुणवत्ता में प्रतिस्पर्धी बनाना होगा। इसके साथ ही उन कानूनी पेचों को दूर करना होगा, जो कारोबारियों की राह में रोड़ा अटकाते हैं। यह व्यवस्था सुधारने से जुड़ा काम है। 

हरिभूमि में प्रकाशित

 

 

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