भारत में अपनी भूमिका को लेकर फेसबुक ने औपचारिक रूप से यह स्पष्ट किया है कि सामग्री को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ है, उसका निर्वाह सही तरीके से किया जा रहा है और वह एक खुला, पारदर्शी और पक्षपात- रहित मंच है। फेसबुक के भारत-प्रमुख अजित मोहन ने जो नोट लिखा है, उसके नीचे पाठकों की प्रतिक्रियाएं पढ़ें, तो लगेगा कि फेसबुक पर कम्युनिस्टों और इस्लामिक विचारों के प्रसार का आरोप लगाने वालों की संख्या भी कम नहीं है। फेसबुक ही नहीं ट्विटर, वॉट्सएप और सोशल मीडिया के किसी भी प्लेटफॉर्म पर इन दिनों उन्मादी टिप्पणियों की बहुतायत है। क्यों हैं ये टिप्पणियाँ? क्या ये वे दबी बातें हैं, जिन्हें खुलकर बाहर आने का मौका सोशल मीडिया के कारण मिला है?
ऐसे में सवाल दो हैं। क्या फेसबुक ने अपने आर्थिक हितों के लिए भारत में सत्ताधारी राजनीतिक दल से कोई गठजोड़ किया है या जो कुछ सामाजिक विमर्श में चलता है, वही सामने आ रहा है? सोशल मीडिया के सामने मॉडरेशन एक बड़ी समस्या है। एक तरफ सामाजिक ताकतें हैं, दूसरी तरफ राजनीतिक शक्तियाँ। कोई भी कारोबारी सरकार से रिश्ते बिगाड़ भी नहीं सकता। आज बीजेपी की सरकार है। जब कांग्रेस की सरकार थी, तब भी फेसबुक ने सरकार के साथ मिलकर काम किया ही था।
भारत से लेकर
अमेरिका तक सोशल मीडिया को लेकर राजनीतिक रस्सा-कशी चल रही है। जैसे सवाल सोशल
मीडिया की भूमिका को लेकर हैं, वैसे ही सवाल मुख्यधारा के मीडिया को लेकर भी हैं।
वॉलस्ट्रीट जर्नल में भी इन दिनों समाचार और विचार के दो धड़ों के बीच टकराव चल रहा है, जिसकी तरफ
हमारे पाठकों का ध्यान अभी गया नहीं है। अखबारों के संपादकीय विभागों के भीतर वैचारिक टकराव
है। सूचना के स्वरूप, सामग्री और उसके माध्यमों में भारी बदलाव आ रहा है। इसके
कारण भारत में ही नहीं संसार भर में लोगों का कार्य-व्यवहार बदल रहा है।
वैचारिक टकरावों
के पीछे वह सामाजिक पृष्ठभूमि है, जिसके अंतर्विरोध मुख्यधारा के मीडिया ने सायास दबाकर
रखे थे, पर सोशल मीडिया के खुलेपन ने उन अंतर्विरोधों को जमकर उभारा है। बहरहाल
फेसबुक के वर्तमान प्रकरण पर वापस आएं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में फेसबुक
इंडिया की पब्लिक पॉलिसी डायरेक्टर आंखी दास और दो अन्य के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई गई है, जिसमें पत्रकार
को धमकाने तथा धार्मिक उन्माद फैलाने और सांप्रदायिक द्वेष फैलाने के आरोप हैं। उससे
पहले 16 अगस्त को ही आंखी दास ने दिल्ली साइबर पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी कि वॉलस्ट्रीट
जर्नल की खबर प्रकाशित होने के बाद उनको जान से मारने की धमकी दी जा रही है।
यह मामला दो
व्यक्तियों के बीच विवाद का नहीं है, बल्कि सवाल एक संस्था और सोशल मीडिया की भूमिका
और भारत में उसके राजनीतिक निहितार्थ का है। गत 14 अगस्त को अमेरिकी अखबार ‘वॉलस्ट्रीट
जर्नल’ में प्रकाशित रिपोर्ट में फेसबुक के अनाम
सूत्रों के साथ साक्षात्कारों का हवाला दिया गया है। इसमें कहा गया है कि भारतीय
नीतियों से जुड़े फेसबुक के वरिष्ठ अधिकारी ने सांप्रदायिक आरोपों वाली पोस्ट के
मामले में तेलंगाना के एक भाजपा विधायक पर स्थायी पाबंदी को रोकने से जुड़े मामले
में दखलंदाजी की थी। मोटा आरोप है कि सत्तापक्ष के प्रति नरमी बरती जाती है और
विवादित सामग्री को हटाने की नीति पर ठीक से अमल में नहीं होता।
वॉलस्ट्रीट जर्नल
की रपट के बाद समाचार समिति रायटर्स ने खबर दी कि फेसबुक के कर्मचारियों ने भारत
में सामग्री के नियमन से जुड़ी प्रक्रियाओं का उल्लंघन हो रहा है। इस सिलसिले में
11 कर्मचारियों ने आंतरिक प्लेटफॉर्म पर शिकायत दर्ज कराते हुए एक पत्र
भी दिया है। वॉलस्ट्रीट जर्नल की रिपोर्ट में यह कहा गया है कि आंखी दास ने पिछले
लोकसभा चुनाव में बीजेपी को चुनावी मुद्दों पर सहयोग दिया था। उनकी बहन रश्मि दास
बीजेपी के छात्र संगठन एबीवीपी से जुड़ी रही हैं। वॉलस्ट्रीट जर्नल की रिपोर्ट में
यह भी कहा गया है कि फेसबुक अधिकारी ने कहा कि बीजेपी कार्यकर्ताओं को दंडित करने
से भारत में कंपनी के कारोबार पर असर पड़ेगा।
वॉलस्ट्रीट जर्नल
की खबर आने के बाद राजनीतिक सरगर्मियाँ बढ़ीं। कांग्रेस तथा बीजेपी के बीच
आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर अभी चल ही रहा है। पर यह पहला मौका नहीं है, जब सोशल
मीडिया को लेकर राजनीतिक तकरार चली है। पिछले साल चुनाव के ठीक पहले बीजेपी को
ट्विटर से शिकायत थी। सूचना प्रौद्योगिकी विभाग से सम्बद्ध संसदीय समिति ने ट्विटर
के सीईओ जैक डोरसी से कहा था कि वे उसके सामने हाजिर हों। वैसा ही इसबार समिति के अध्यक्ष शशि थरूर ने किया है। फेसबुक को हाजिर होने का
निर्देश दिया गया है। पिछले साल जैक डोरसी समिति के सामने नहीं आए। उनकी जगह ट्विटर के
स्थानीय प्रतिनिधि आए थे, जिन्हें संसदीय समिति ने बुलाया नहीं। इन कंपनियों की हैसियत कई देशों की जीडीपी से ज्यादा है। ट्विटर के मुकाबले
फेसबुक बहुत बड़ी संस्था है। उसके पास वॉट्सएप और इंस्टाग्राम भी हैं। उसका
राजनीतिक रसूख भी बहुत ज्यादा है।
ये विदेशी संस्थाएं हैं और सोशल मीडिया को लेकर कोई वैश्विक व्यवस्था नहीं है।
वे हमारे नियमों
को मानने पर बाध्य नहीं हैं, पर उन्हें कारोबार चलाना होगा, तो हमारी
बात माननी भी होगी। चीन ने पश्चिमी सोशल मीडिया को अपने यहाँ आने से रोक रखा है।
ऐसे में भारत सबसे बड़ा बाजार है। इस बाजार में बने रहने के लिए इन कंपनियों को
सरकार के साथ बेहतर रिश्ते बनाने ही होंगे। सोशल मीडिया से जुड़ी समस्याएं कई हैं।
इनमें एक है हेट स्पीच। हेट स्पीच यानी किसी सम्प्रदाय, जाति, वर्ग, भाषा
वगैरह के प्रति दुर्भावना। खासतौर से राजनीतिक रुझान से उपजी दुर्भावना। इसके साथ
जुड़े हैं फेक न्यूज के सवाल।
ये सवाल केवल
भारत में ही नहीं उठे हैं। सभी देशों में ये अलग-अलग संदर्भों में उठे हैं या उठाए
जा रहे हैं। भारत में संसदीय समिति के सामने मामला इन शिकायतों के आधार पर गया था कि ट्विटर
इंडिया कुछ खास हैंडलों के प्रति कड़ा रुख अख्तियार करता है और कुछ के प्रति नरमी।
ऐसा ही आरोप अब फेसबुक पर है। जब अदालतों के फैसलों तक
पर विवाद हैं, तब सोशल मीडिया के हैंडलों की टिप्पणियों और उनपर की गई कार्रवाइयों को लेकर सवाल खड़े होना स्वाभाविक
है। इन टिप्पणियों से राजनीतिक माहौल
बनता है और बनता जा रहा है।
सटीक विश्लेषण।
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