Wednesday, December 9, 2015

भारत-पाकिस्तान एक कदम आगे

भारत-पाकिस्तान रिश्तों में एक हफ्ते के भीतर भारी बदलाव आ गया है. यह बदलाव बैंकॉक में अजित डोभाल और नसीर खान जंजुआ की मुलाकात भर से नहीं आया है. यह इस बात का साफ इशारा है कि दोनों देशों ने बातचीत को आगे बढ़ाने का फैसला किया है. यह मामला बेहद संवेदनशील है. दोनों देशों की जनता इसे भावनाओं से जोड़कर देखती है. बैंकॉक-वार्ता के गुपचुप होने की सबसे बड़ी वजह शायद यही थी. और अब कड़ी प्रतिक्रियाएं आने लगी हैं. दूसरी ओर विदेशमंत्री सुषमा स्वराज पाकिस्तान के महत्वपूर्ण नेताओं से मुलाकात भी कर चुकी हैं. सब ठीक रहा तो अब तक क्रिकेट सीरीज खेले जाने का फैसला भी सामने आ चुका होगा. यह सब काफी तेजी से हुआ है.
सवाल यह है कि क्या यह गलत हो रहा है? क्या दोनों देश बगैर बात किए समस्याओं के समाधान खोज सकते हैं? अंतरराष्ट्रीय राजनय में सीधी मुलाकातों का केवल प्रतीकात्मक महत्व होता है. वास्तविक बातचीत खामोश सतह पर चलती है. क्या पेरिस में मोदी और नवाज शरीफ की दो मिनट की मुलाकात में इतने बड़े फैसले हुए होंगे? भारत और पाकिस्तानी नेताओं के खंडन के बावजूद यह बात गलत नहीं लगती कि काठमांडू में मोदी और नवाज शरीफ की गोपनीय मुलाकात हुई होगी. दोनों नेताओं के बीच टेलीफोन पर बातचीत होती रहती है.

बातचीत के सारे संदर्भ वही नहीं होते जो मीडिया में समझे जाते हैं. इसीलिए बैंकॉक वार्ता की खबर आते ही देश के कुछ रक्षा विशेषज्ञों को यह बात अटपटी लगी और वे कहने लगे कि भारत की कथनी और करनी में अंतर है. अगस्त में भारत का कहना था कि बात केवल आतंकवाद पर होगी. और अब भारत कश्मीर समेत सभी मुद्दों पर बात करने को तैयार है. पर वे इस बात पर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं कि आतंकवाद पर बात की शर्त तो सुरक्षा सलाहकारों की बैठक से जुड़ी थी. बैंकॉक-वार्ता का एजेंडा क्या था? भारत की दूसरी शर्त यह थी कि पाकिस्तानी नेतृत्व भारत से बात करने के पहले हुर्रियत से बात न करे. बैंकॉक वार्ता से यह शर्त भी पूरी हो गई.

भारत और पाकिस्तान लम्बे समय तक दुश्मनी के माहौल में नहीं रह सकते. दोनों देशों का हित इस बात में है कि रिश्तों को बेहतर किया जाए और दक्षिण एशिया के आर्थिक विकास के रास्ते खोजे जाएं. हमारी मुफलिसी और गुरबत नासमझी की बुनियाद पर है. बेशक आतंकवाद और सीमा पर गोलाबारी के मसलों को छोड़ा नहीं जा सकता, पर उनसे निपटने के लिए भी हमें आपस में बात करनी होगी. हमें सन 2003 के समझौते के पहले की स्थिति को याद करना चाहिए. उस दौर में आज से भी ज्यादा खराब हालात थे. समझौते के बाद स्थितियों में नाटकीय बदलाव आया था. मुम्बई हमले के बाद से स्थितियाँ फिर से खराब हुईं हैं. इस दौरान पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सरकारें बदलीं. वहाँ भी आतंकवादी हमले हुए हैं.

पाकिस्तान अपने अंतर्विरोधों का शिकार है. उसके साथ बातचीत का विरोध करने वाले कहते हैं कि पाकिस्तान की न तो नीयत बदली है और न नीति. इसलिए कुछ निकलेगा नहीं. पर यह निष्कर्ष क्यों? जैसे हमारे यहाँ कई प्रकार की धारणाएं हैं वैसा पाकिस्तान में भी है. हाल में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन से बातचीत के दौरान नवाज़ शरीफ़ ने भारत के साथ बिना शर्त बातचीत करने की बात कही थी. कहना मुश्किल है कि यह बातचीत विदेशी दबाव के कारण है या स्थितियों के सही आकलन के कारण. पर पहला कदम व्यापारिक रिश्तों को बेहतर बनाने का होगा. अर्थ-व्यवस्था राजनीतिक-व्यवस्थाओं को जोड़ती है. केवल भारत-पाकिस्तान रिश्तों के संदर्भ में ही नहीं, सारी दुनिया पर यह बात लागू होती है.

विदेशमंत्री सुषमा स्वराज हालांकि अफगानिस्तान को लेकर हो रहे हार्ट ऑफ एशिया सम्मेलन में हिस्सा लेने गईं हैं, पर उनकी यह यात्रा दो काम पूरे करेगी. अफगानिस्तान की अशांति पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति से जुड़ी है. वहाँ कट्टरपंथी तबकों पर रोक नहीं लगी तो शांति स्थापना सम्भव नहीं. जरूरी है कि उनपर नकेल कसी जाए. सवाल है कि क्या पाकिस्तान की नागरिक सरकार यह काम कर पाएगी? और यह भी कि वहाँ की नागरिक सरकार और सेना के रिश्ते कैसे हैं? और दोनों क्या चाहते हैं? फिलहाल शांति की राह खतरों से घिरी है. उसमें जोखिम भी हैं, पर जोखिम उठाने होंगे. ऐसा नहीं कि दुनिया में दो दुश्मन देशों ने अपने रिश्ते सुधारे नहीं है. सारी दुनिया जोखिमों की धार पर चल रही है.

इस्लामाबाद में हो रहा हार्ट ऑफ एशिया सम्मेलन इस्तानबूल प्रक्रिया का हिस्सा है. अफगानिस्तान में स्थिरता कायम करने के लिए सन 2011 में पहली बार तुर्की के इस्तानबूल शहर में यह सम्मेलन हुआ था. इस प्रयास में 14 देश और 17 बाहरी देशों के अलावा 12 क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगठन शामिल हैं. इसके सदस्य देश हैं अफगानिस्तान, अजरबैजान, चीन, भारत, ईरान, कजाकिस्तान, किर्गीजिस्तान, पाकिस्तान, रूस, सऊदी अरब, ताजिकिस्तान, तुर्की, तुर्कमेनिस्तान और संयुक्त अरब अमीरात. एक प्रकार से यह भी क्षेत्रीय सहयोग का मौका है. भारत की नजर से अफगानिस्तान का कोई पहलू ऐसा नहीं है जो हमारे लिए महत्वपूर्ण नहीं हो.

अफगानिस्तान की सरकार तालिबान से बातचीत शुरू करने को तैयार है. सवाल है कि तालिबान में किससे बात हो? भारत और अफगानिस्तान दोनों की मान्यता है कि पाकिस्तान तालिबान के हक्कानी धड़े को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा है. कुछ समय पहले तक तालिबान का सबसे महत्वपूर्ण नेता मुल्ला उमर को माना जाता था. पर दुनिया को आश्चर्य तब हुआ जब पता लगा कि मुल्ला उमर की मौत तो काफी पहले हो गई है. इस बीच मुल्ला मंसूर का नाम उनके उत्तराधिकारी के रूप में सामने आया. पिछले दो-तीन दिन से यह बात भी हवा में है कि मुल्ला मंसूर भी आपसी टकराव में या तो मारे गए हैं या घायल हैं.

पश्चिमी देशों की सेनाएं हटने के बाद अफगानिस्तान की व्यवस्था को बनाए रखना बड़ी चुनौती है. वहाँ हमारे हित भी जुड़े हैं. तालिबान के आपसी झगड़े के साथ-साथ पश्चिम एशिया में आईएसआईएस के उभार से एक नया खतरा पैदा हो गया है. ये खतरे दुधारी तलवार जैसे हैं. पाकिस्तानी समाज के लिए भी यह खौफनाक है. यह बात दावे से नहीं कही जा सकती कि भारत-पाकिस्तान वार्ता से समस्याएं सुलझ जाएंगी. पर वे सुलझेंगी तभी जब हम सकारात्मक हस्तक्षेप करेंगे. बातचीत उस कोशिश का हिस्सा है.

प्रभात खबर में प्रकाशित

2 comments:

  1. इस वार्ता से कोई ज्यादा उम्मीद करने की जरुरत नहीं है अंतर्राष्ट्रीय दबाव में हुई वार्ता पाकिस्तान के दोगले स्वभाव को नहीं बदल सकती , दुसरे पाकिस्तान की सरकार के हाथ में कुछ है भी नहीं वहां तो सेना ही करता धर्ता है ,और वह इस बातचीत के पक्ष में नहीं है , कहीं शरीफ इस चककर में सरकार न गँवा बैठे ,आतंकवाद पर पाकिस्तान का रुख बदलने वाला नही है , चाहे वह कितना ही खुद के पीड़ित होने का रोना रो ले , जब इस विषय पर वह अपने आका अमेरिका की नहीं सुनता तो भारत की कहाँ सुनेगा , उसे भी शांति के लिए ढोंग करना है सो कर रहा है

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  2. उम्मीद पर दुनिया कायम है ...
    भारत-पाक संबंध सदैव सौहार्द्धपूर्ण बने रहे यही कामना करते हैं

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