Monday, December 14, 2015

राजनीति की फुटबॉल बना समान कानून का मसला

सन 1985 में शाहबानो मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद राजीव गांधी की कांग्रेस पार्टी ने पचास के दशक की जवाहर लाल नेहरू जैसी दृढ़ता दिखाई होती तो शायद राष्ट्रीय राजनीति में साम्प्रदायिकता की वह भूमिका नहीं होती, जो आज नजर आती है। दुर्भाग्य से समान नागरिक संहिता की बहस साम्प्रदायिक राजनीति की शिकार हो गई और लगता नहीं कि लम्बे समय तक हम इसके बाहर आ पाएंगे। इस अंतर्विरोध की शुरुआत संविधान सभा से ही हो गई थी, जब इस मसले को मौलिक अधिकारों से हटाकर नीति निर्देशक तत्वों का हिस्सा बनाया गया। यह  सवाल हमारे बीच आज भी कायम है तो इसकी वजह है हमारे सामाजिक अंतर्विरोध और राजनीतिक पाखंड। राजनीतिक दलों ने प्रगतिशीलता के नाम पर संकीर्णता को ही बढ़ावा दिया। यह बात समझ में आती है कि सामाजिक बदलाव के लिए भी समय दिया जाना चाहिए, पर क्या हमारे समाज में विवेकशीलता और वैज्ञानिकता को बढ़ाने की कोई मुहिम है?

पचास के दशक में नेहरू का मुकाबला अपनी ही पार्टी के हिन्दूवादी तत्वों से था। उनके दबाव में हिन्दू कोड बिल निष्फल हुआ और आम्बेडकर ने निराश होकर इस्तीफा दे दिया। उस दौर में पार्टी को दुधारी तलवार पर चलना पड़ा था। उसे यह भी साबित करना था कि उसकी प्रगतिशीलता केवल हिन्दू संकीर्णता के विरोध तक ही सीमित नहीं है। अंततः सन 1956 में हिन्दू कोड बिल भी आया। पर इससे बहुसंख्यक हिन्दू कांग्रेस के खिलाफ नहीं हुए। और न जनसंघ किसी बड़ी ताकत के रूप में उभर कर सामने आई थी।


राजनीतिक लिहाज से 1985 में राजीव गांधी की कांग्रेस पचास के दशक की नेहरू की कांग्रेस कम ताकतवर नहीं थी। उस वक्त भाजपा का हिन्दुत्व हवा में था, पर वह बड़ी ताकत नहीं थी। मंदिर आंदोलन की तैयारी चल रही थी। कांग्रेस उस वक्त तक दो नावों की सवारी कर रही थी। एक तरफ शाहबानो मामले को लेकर मुस्लिम मन को जीतने की कोशिश थी, दूसरी ओर मंदिर का ताला खुलवा कर और शिलान्यास करवा कर हिन्दू मन पर विजय पाने की कोशिश की गई। अंततः उसे दोनों ही नहीं मिले। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद के ढहने के बाद कांग्रेस के साथ न तो बहुसंख्यक हिन्दू बचे और न मुसलमान। पार्टी दृढ़ता दिखाती तो दोनों सम्प्रदायों का प्रगतिशील तबका तो साथ रह सकता था। मंडल राजनीति का उदय भी तभी हुआ जो, कांग्रेस की बची-खुची जमीन भी छीन ले गई।

मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट के तीन सदस्यीय पीठ ने यह स्पष्ट किया है कि देश में समान नागरिक संहिता लागू करने का अधिकार केवल संसद के पास है और न्यायपालिका इस सिलसिले में कुछ नहीं कर सकती। अलबत्ता अदालत ने यह भी कहा कि हम अतीत में ऐसे कानून की उपादेयता बताते रहे हैं, पर अदालत इस मामले में सरकार को निर्देश नहीं दे सकती। अदालत की यह टिप्पणी शक्ति-पृथक्करण सिद्धांत से सहज है, पर यह राजनीतिक सवाल है। इसे लागू करने के लिए एक राजनीतिक प्रक्रिया और आम सहमति की जरूरत है।

राजनीतिक दलों का यह इरादा नहीं है। हमारा लोकतंत्र इतना प्रौढ़ भी नहीं है। सवाल है कि क्या कभी ऐसा समय आएगा जब हमारे यहाँ सभी के लिए समान नागरिक संहिता होगी? संविधान निर्माताओं ने जिन कारणों से तब इस सिलसिले में कोई फैसला नहीं किया और इसे भविष्य के लिए छोड़ दिया क्या वे खत्म हो चुके हैं? क्या यह माना जाए कि संविधान निर्माताओं ने जिस समझदारी के साथ देश पर समान नागरिक संहिता लागू नहीं की उसके मद्देनज़र इस मामले को जस का तस रहने दिया जाए?

संविधान निर्माताओं ने इसे नीति निर्देशक तत्वों का हिस्सा बनाकर एक वांछनीय आदर्श तो बनाया, अनिवार्य नहीं बनाया। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि अदालत किसी निजी कानून के कारण किसी के मौलिक अधिकार का हनन भी नहीं होने देगी। याचिका दायर करने वाले ने उदाहरण के लिए कहा था कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के कारण कोई महिला प्रताड़ित होगी तो क्या किया जाएगा? इसपर अदालत ने कहा कि यदि कोई महिला अदालत के सामने आएगी और प्रताड़ना के मामले को सामने रखेगी तो अदालत हस्तक्षेप करेगी। अलबत्ता अदालत की राय है कि यह बात उस समुदाय पर छोड़ दी जाए कि वह लैंगिक असमानता को किस तरह दूर करे।

देश की राजनीति में बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक का सवाल पिछले 68 साल में सबसे ऊपर रहा है। देश की एकता और अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा के लिए ही समान नागरिक संहिता के सिद्धांत को संविधान निर्माताओं ने पीछे रखा था। और वे कारण आज भी प्रासंगिक हैं। इस मसले का हल देश के नागरिकों, धार्मिक सुधार से जुड़े लोगों और राजनीतिक दलों के विचार-विमर्श से ही तय होगा। संयोग से यह वोट की राजनीति से जुड़ा मसला है, इसलिए इसमें पेच-दर पेंच हैं।

पिछले साल केंद्र में सत्ता हासिल करने के कुछ ही महीने बाद सत्तारूढ़ दल के गोरखपुर से सांसद योगी आदित्यनाथ ने समान नागरिक संहिता लागू करने पर अपनी सरकार से रुख स्पष्ट करने की मांग की। भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव के अपने चुनाव घोषणा-पत्र में वादा किया था कि सत्ता में आने पर वह समान नागरिक संहिता को लागू करेगी। आज इस सवाल को उठाने का मतलब असहिष्णुता की बहस के कारण जली आग में घी डालना। योगी आदित्यनाथ क्या मुस्लिम महिलाओं के हितों की रक्षा के कारण समान नागरिक संहिता चाहते हैं? नहीं, उनका उद्देश्य अंतर्विरोधों को खोलना है, ताकि उनकी राजनीति चमके। यह उद्देश्य केवल उनका ही नहीं है। उनके विरोध में खड़ी राजनीति भी यही काम कर रही है।

भारतीय संविधान के चौथे अध्याय में अनुच्छेद 36 से 51 तक राज्य के नीति- निर्देशक तत्वों की व्यवस्था है। अनुच्छेद 37 में कहा गया है कि ये तत्व न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होंगे, फिर भी ये देश के शासन में मूलभूत हैं। कानून बनाने में इनको शामिल करना राज्य का कर्तव्य है। व्यावहारिकता को ध्यान में न रखा जाए तो भारतीय संविधान के नीति निर्देशक तत्व कल्याणकारी राज्य के स्वप्न को पूरा करते हैं। एमसी छागला ने लिखा है, इन सिद्धांतों को लागू कर दिया जाए तो हमारा देश वास्तव में धरती पर स्वर्ग बन जाएगा। पिछले 68 साल में भारतीय राज-व्यवस्था ने इन निर्देशों का अनुपालन करते हुए तमाम कानून बनाए भी है, पर अनुच्छेद 44 समान नागरिक संहिता, 47 नशाबंदी और 48 गोबध निषेध को लेकर राजनीतिक बहस है।

ऐसा नहीं कि दुनिया में समान नागरिक संहिता कोई अनोखी बात है। अनेक प्रगतिशील मुस्लिम देशों में भी शादी-विवाह और तलाक के कानून आधुनिक रूप में लागू हैं। हमारे यहाँ हिन्दुत्व की राजनीति इन कानूनों पर जोर देती है, इसलिए विवेकशील धर्म निरपेक्ष राजनीति फेल हो जाती है। भारतीय जनता पार्टी के उदय का श्रेय सन 1992 के बाबरी विध्वंस को जाता है। इस आग को हवा देने में शाहबानो मामले की भूमिका कम नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के 23 अप्रैल, 1985 के इस फैसले से अल्पसंख्यक अधिकारों की बहस तेज हो गई।

तत्कालीन सरकार ने गर्दन बचाने के लिए 1986 में ‘तलाक शुदा मुस्लिम महिला अधिकार’ नाम से कानून पारित किया। इसमें प्रावधान किया गया कि तलाक शुदा मुस्लिम महिला के गुजारे का उत्तरदायित्व उसके पिता के परिवार पर होगा, किन्तु यदि पिता का परिवार उसका गुजारा करने में असमर्थ है तो उसके जीवनयापन का दायित्व वक्फ बोर्ड पर होगा। यह एक रास्ता था, पर समस्या का समाधान नहीं। विडंबना है कि समान नागरिक संहिता की माँग करने वालों का लक्ष्य देश में कल्याणकारी व्यवस्था लागू कराने के बजाय कांग्रेस के ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ की पोल खोलना है।

सवाल है कि क्या समान नागरिक संहिता धार्मिक स्वतंत्रता पर रोक लगाती है? सर्वोच्च न्यायालय ने 1985 के बाद भी कई बार अनुच्छेद 44 को लागू करने की बात कही है, पर यह मामला अंततः राजनीतिक आमराय के हवाले हो जाता है। फिलहाल राजनीतिक आमराय बनाना मुंगेरी लाल के सपनों से भी ज्यादा हसीन है। 10 मई, 1995 को ‘सरला मुदगल बनाम भारत सरकार’ केस में अदालत ने कहा कि निर्णय देते हुए कहा था कि अनुच्छेद 44 किसी भी स्थिति में संविधान के अनुच्छेद 25,26 व 27 में दिए गए मूल अधिकारों का हनन नहीं करता। ये तीनों अनुच्छेद धार्मिक स्वतंत्रता से जुड़े हैं। इसके बाद अदालत ने 21 जुलाई, 2003 को ‘वल्लामत्तम बनाम भारत सरकार’ केस में फिर कहा, अनुच्छेद 25 जहां धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है, वहीं अनुच्छेद 44 धर्म को सामाजिक संबंधों तथा निजी कानून से पृथक करने का प्रावधान करता है। ध्यान से पढ़ें तो अनुच्छेद 25, 26 और अनुच्छेद 44 एक दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं। यह बात जब राजनीति को समझ में आ जाएगी तो समाधान निकल जाएगा। राजनीति इतनी समझदार होती तो बात क्या थी।




राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित

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