Thursday, April 16, 2015

‘लुक ईस्ट’ के बाद ‘लुक वेस्ट’

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यूरोप और कनाडा यात्रा के राजनीतिक और आर्थिक महत्व के बरक्स तकनीकी, वैज्ञानिक और सामरिक महत्व भी कम नहीं है. इन देशों के पास भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं की कुंजी भी है. इस यात्रा के दौरान ‘मेक इन इंडिया’ अभियान, स्मार्ट सिटी और ऊर्जा सहयोग सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण विषय बनकर उभरे हैं. न्यूक्लियर ऊर्जा में फ्रांस और सोलर इनर्जी में जर्मनी की बढ़त है. इन सब बातों के अलावा अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद इन सभी देशों की चिंता का विषय है.

आज कनाडा में प्रधानमंत्री की यात्रा का अंतिम दिन है. कनाडा की आबादी में भारतीय मूल के नागरिकों का प्रतिशत काफी बड़ा है. अस्सी के दशक में खालिस्तानी आंदोलन को वहाँ से काफी हवा मिली थी. सन 1985 में एयर इंडिया के यात्री विमान को कनाडा में बसे आतंकवादियों ने विस्फोट से उड़ाया था, जिसकी यादें आज भी ताज़ा हैं. सामरिक दृष्टि से हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में भारत-अमेरिका-जापान और ऑस्ट्रेलिया की पहलकदमी में कनाडा की भी महत्वपूर्ण भूमिका है.
 
आणविक ऊर्जा को लेकर भारत का शुरूआती सहयोगी देश कनाडा था. माना जाता है कि सन 1974 में भारत के पहले आणविक परीक्षण के लिए न्यूक्लियर सामग्री जिस ‘सायरस’ रिएक्टर से प्राप्त हुई थी वह कनाडा के सहयोग से लगा था. इस विस्फोट के बाद अमेरिका और कनाडा के साथ भारत के नाभिकीय सहयोग में खटास आई थी वह सन 2008 के भारत-अमेरिका और 2010 के भारत-कनाडा न्यूक्लियर डील के बाद खत्म हुई.

सामरिक दृष्टि से फ्रांस के साथ रफ़ाएल लड़ाकू विमान का सौदा इस यात्रा की सबसे महत्वपूर्ण घटना है. एक तरह से इस सौदे को नए ढंग से परिभाषित किया गया है. पहले इस सौदे के तहत 18 तैयारशुदा विमान फ्रांस मिलते. शेष 108 विमानों के लिए फ्रांस तकनीकी जानकारी हमें उपलब्ध कराता. उन्हें एचएएल में बनाने की योजना थी. अब 36 विमान सीधे वहीं से तैयार हो कर आएंगे. इसका मतलब क्या यह लगाया जाए कि मोदी सरकार मेक इन इंडिया नीति से हट रही है? अभी एक विकल्प और है. फ्रांस सरकार किसी भारतीय कम्पनी के साथ सहयोग करके निजी क्षेत्र में भी इस विमान को तैयार कर सकती है. इस व्यवस्था में भारतीय कम्पनी की हिस्सेदारी 51 फीसदी की होगी.

रफ़ाएल विमानों को लेकर फिलहाल एक अनिश्चितता खत्म हुई. पर यह समस्या का समाधान नहीं है. हमारे फ़ाइटर स्क्वॉड्रन कम होते जा रहे हैं. आदर्श रूप से हमारे पास 45 स्क्वॉड्रन होने चाहिए. पर उनकी संख्या 36 के आसपास हो जाने का अंदेशा है. मिग-21 विमानों की जगह लेने के लिए तेजस विमानों का विकास किया जा रहा है. हमें केवल विमान ही नहीं तकनीक भी चाहिए. तकनीक केवल पैसे से नहीं डिप्लोमेसी से मिलती है.

रफ़ाएल दो इंजन का फ्रंटलाइन फाइटर विमान है. इसके लिए टेंडर 2007 में निकला था. भारत अपनी सेनाओं के आधुनिकीकरण में लगा है. लगभग 100 अरब डॉलर के इस कार्यक्रम के लिए धन से ज्यादा तकनीक हासिल करने की चुनौती है. तकनीक आसानी से नहीं मिलती. पैसा देने पर भी नहीं. सैनिक तकनीक सरकारों का नियंत्रण होता है. उसे हासिल करने के दो ही तरीके हैं. पहला है हम अपनी तकनीकी शिक्षा का स्तर सुधारें और धातु विज्ञान, रसायन विज्ञान और उच्चस्तरीय इलेक्ट्रॉनिक्स का आधार ढाँचा तैयार करें. दूसरा तरीका है कि हम मित्र बनाएं और तकनीक हासिल करें. इतना तय है कि जब तक हमारे पास तकनीक नहीं होगी हम स्वावलम्बी नहीं हो पाएंगे.

भारत ने पचास के दशक में ही सुपरसोनिक लड़ाकू विमान तैयार करने का फैसला किया था. भारत ने आजादी के फौरन बाद वैमानिकी के विश्व प्रसिद्ध जर्मन डिज़ाइनर कुर्ट टैंक की सेवाएं ली थीं. कुर्ट टैंक पहले मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी में और बाद में हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स की सेवा में आए. उन्होंने एचएफ-24 मरुत विमान का डिज़ाइन तैयार किया. उसके लिए अपेक्षित इंजन की तकनीक ब्रिटेन से ली जा रही थी कि वह काम अधूरा रह गया. एचएफ-24 विमान ने 1971 की लड़ाई में हिस्सा भी लिया. बहरहाल हम उसके विकास पर ध्यान नहीं दे पाए. सन 1962 की लड़ाई के बाद हड़बड़ी में मिग-21 को अपना मुख्य विमान बनाना पड़ा और अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में मरुत पूरी तरह विदा हो गए.

अस्सी के दशक में हमने फिर से अपना विमान विकसित करने के बारे में विचार किया. भारतीय लड़ाकू विमान एलसीए तेजस कम्पोज़िट फाइबर के फ्रेम, कलाबाजी के लिए उपयुक्त डिज़ाइन और नेवीगेशन प्रणाली आदि के क्षेत्र में मिग-21 की तुलना में बेहतर है. पर इसका विकास भी अवरोधों का शिकार होता रहा है. उसमें अमेरिकी जीई-404 इंजन लगा है. इसका विकास करने वाली एजेंसी एडीए (एरोनॉटिकल डेवलपमेंट एजेंसी) ने वायुसेना से वादा किया था कि उसे 2010 तक बीस तेजस विमान सौंप दिए जाएंगे. पर सन 1998 के पोखरण आणविक विस्फोट के कारण अमेरिका ने भारत पर जो पाबंदियाँ लगाईं थीं उनसे तेजस के विकास पर भी असर पड़ा. अमेरिकी इंजन नहीं मिला. विकल्प में कावेरी इंजन का विकास शुरू किया. पर वह इंजन अपेक्षित शक्ति तैयार नहीं कर पाया. बहरहाल राजनीतिक घटनाक्रम बदला है.

जनरल इलेक्ट्रिक ने न केवल जीई-404 दिया है उससे ज्यादा ताकतवर जीई-414 इंजन देने की पेशकश भी की है. वायुसेना तेजस का मार्क-2 चाहती है जिसमें जीई-414 इंजन हो और विमान का आकार कुछ बड़ा हो. पर उसके डिजाइन में सुधार करने में समय लगेगा. भारत ने रूस के साथ मिलकर पाँचवीं पीढ़ी का लड़ाकू विमान विकसित करने का काम भी शुरू किया है. इस कार्यक्रम में भी अवरोध पैदा हो गए. एफ़जीएफ़ए (फिफ्थ जेनरेशन फाइटर एयरक्राफ्ट) नाम से जाना जाता है टी-50 का प्रारूप भी बनाया जा चुका है. इस प्रारूप को एक ही पायलट चला सकता है. भारतीय वायुसेना पारम्परिक रूप से दो पायलटों द्वारा चालित विमानों को प्राथमिकता देती है.

रफ़ाएल सौदे के बाद एक सम्भावना यह भी है कि भारत और रूस मिलकर पाँचवीं पीढ़ी के स्टैल्थ विमान पर फिर से काम करें. रूस सुखोई-35 में पाँचवीं पीढ़ी की सुविधाएं विकसित करने को भी तैयार है. अभी तक दुनिया में सिर्फ़ अमरीका के पास ही पाँचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान हैं. चीन भी इस दिशा में काम कर रहा है, पर इंजन के लिए वह रूस पर आश्रित है.

पर मसला केवल लड़ाकू विमान का ही नहीं है. केवल रक्षा के लिए ही नहीं जीवन के हर क्षेत्र के लिए हमें हाई टेक्नॉलजी की जरूरत है. तोपखाने, टैंकों, जहाजों तथा मिसाइल तकनीक में तेजी से काम करना है. हाल में फ्रांस के सहयोग से बन रही स्कोर्पीन पनडुब्बी का जलावतरण किया गया है. परमाणु शक्ति चालित पनडुब्बी ‘अरिहंत का भी परीक्षण चल रहा है. विक्रांत वर्ग के विमानवाहक पोत का परीक्षण भी जारी है. सम्भवतः अगला विमानवाहक पोत परमाणु शक्ति चालित होगा, जिसके लिए अमेरिकी मदद ली जाएगी.

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