Friday, July 20, 2012

राहुल को चाहिए एक जादू की छड़ी

राहुल ने नौ साल लगाए राजनीति में ज्यादा बड़ी भूमिका स्वीकार करने में। उनका यह विचार बेहतर था कि पहले ज़मीनी काम किया जाए, फिर सक्रिय भूमिका निभाई जाए। पर यह आदर्श बात है। हमारी राजनीति आदर्श पर नहीं चलती। और न राहुल किसी आदर्श के कारण महत्वपूर्ण हैं। वे तमाम राजनेताओं से बेहतर साबित होते बशर्ते वे उस कांग्रेस की उस संस्कृति से बाहर आ पाते जिसमें नेता को तमाम लोग घेर लेते हैं। बहरहाल अब राहुल सामने आ रहे हैं तो अच्छा है, पर काम मुश्किल है। नीचे पढ़ें जनवाणी में प्रकाशित मेरा लेख
हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून

राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के चुनाव में यूपीए की रणनीति को जितनी आसानी से सफलता मिली है उसकी उम्मीद नहीं थी। इसके लिए बेशक एनडीए का बिखराव काफी सीमा तक ज़िम्मेदार है, पर बिखरा हुआ तो यूपीए भी था। और आज भी कहना मुश्किल है कि आने वाला वक्त यूपीए या दूसरे शब्दों में कहें तो कांग्रेस के लिए आसान होगा। 7 अगस्त को उप राष्ट्रपति पद का चुनाव है और उसके अगले दिन 8 अगस्त से सरकार ने संसद का सत्र बुलाने का आग्रह किया है। उसके बाद अगले एक महीने में राष्ट्रीय राजनीति की कुछ पहेलियाँ बूझी जाएंगी।

राष्ट्रपति चुनाव में अंततः ममता बनर्जी ने भी प्रणब मुखर्जी का समर्थन करने की घोषणा कर दी। उनके सामने इसके अलावा कुछ और करने का विकल्प नहीं था। पीए संगमा को भाजपा का समर्थन होने के कारण मुस्लिम वोट की उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। इसके अलावा बंगाली प्रत्याशी का विरोध करके बंगाल में रहना आसान नहीं था। यों भी पार्टी के अनेक सांसद, विधायक प्रणब दा को वोट दे देते जिससे अनुशासन टूटने का खतरा था। इसके अलावा ममता को अभी बंगाल के लिए पैसा चाहिए। यूपीए से बैर करके पैकेज लेना आसान नहीं था। इसका मतलब यह भी नहीं कि यूपीए की राजनीति को ममता का समर्थन मिल जाएगा। प्रणब मुखर्जी को समर्थन देने की घोषणा करते वक्त ही ममता ने साफ कर दिया कि पेट्रोल की कीमतें बढ़ाने, खुदरा बाज़ार में एफडीआई, उद्योगों के लिए भूमि अधिग्रहण कानून और इंश्योरेंस में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने के पक्ष में मैं नहीं हूँ।

सपा-बसपा, तृणमूल और सीपीएम, शिवसेना और जेडीयू सब एक साथ। यानी कांग्रेस की पौबारह। राष्ट्रपति चुनाव के सहारे कांग्रेस पार्टी के भीतर राजनीतिक आत्म विश्वास जागा है। सबसे बड़ी सफलता आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी के समर्थन से मिली है। जगनमोहन ने भी प्रणब दा का समर्थन करने की घोषणा कर दी है। इस सफलता का एक अर्थ प्रणव मुखर्जी के व्यक्तित्व की सफलता भी है। प्रणब मुखर्जी के व्यक्तिगत प्रभामंडल का मतलब सोनिया गांधी के प्रभामंडल का जगमग होना नहीं है। ऐसा माना जा रहा है कि सोनिया गांधी हामिद अंसारी को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाना चाहतीं थीं। यों भी हामिद अंसारी को मौका दिया जाना सहज होता। प्रणब मुखर्जी के रूप में लोकसभा चुनाव बाद की सम्भावित राजनीति की सुगबुगाहट भी देखी जा सकती है।

कांग्रेस के सामने इस वक्त तीन चुनौतियाँ हैं। पहली है मॉनसून सत्र पार करने की। इस साल बारिश ने धोखा दे दिया है, जिसका असर खेती और महंगाई पर पड़ेगा। यानी सूखे की शक्ल में राजनीतिक बाढ़ आने वाली है। लोकपाल, भोजन का अधिकार, भूमि अधिग्रहण और इंश्योरेंस सहित तमाम तरह के विदेशी निवेश से जुड़े मसले सामने हैं। ऐसा माना जा रहा है कि कांग्रेस इस सत्र को सफलता के साथ पार कर ले गई तो वैतरणी पार है। उसके बाद चुनाव 2014 में ही होंगे। कांग्रेस पार्टी ने ममता के अलावा सपा और बसपा को अपने साथ ले लिया है। डीएमके भी साथ है। शिवसेना और जेडीयू कांग्रेस के राजनीतिक मित्र नहीं हो सकते। पर सपा, बसपा और ममता को उनके समर्थन की कीमत देनी होगी। इन्हें केवल कीमत ही नहीं दी जाएगी, बल्कि लोकसभा चुनाव में इन सब दलों को कांग्रेस की कीमत पर आगे आने का मौका दिया जाएगा।

इस प्रकार दूसरी चुनौती है उस राजनीतिक गठबंधन की तैयारी जो अगले विधान सभा और लोकसभा चुनाव में काम करेगा। अगले साल कुछ छोटे राज्यों के अलावा गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान और हिमाचल में और 2014 में झारखंड, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, हरियाणा और उड़ीसा विधान सभाओं के चुनाव होंगे। राष्ट्रपति चुनाव में सफलता का अर्थ यह नहीं कि यूपीए-2 के बाद यूपीए-3 का श्रीगणेश हो गया है। बल्कि जिस तीसरे मोर्चे को अभी तक बन पाने में विफलता मिली है उसका रास्ता खुलता नज़र आता है। पर उसके पहले यह देखना है कि आने वाले वक्त की महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्तियाँ कौन सी हैं। क्षेत्रीय छत्रपों की राजनीति उन्हें अपने हितों तक सीमित रखती है, वे व्यापक हित में देख नहीं पाते हैं। देखना यह भी है कि राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति चुनाव में कोई रणनीति बनाने में विफल एनडीए क्या किसी नए हथियार के साथ सामने आ पाएगा या नहीं।

कांग्रेस की तीसरी चुनौती वही है जो एनडीए की चुनौती है। यानी नेतृत्व का सवाल। यूपीए को मिली आज की सफलता उसके 2009 के बेहतर चुनाव परिणाम के कारण है। ऐसा परिणाम अगले लोकसभा चुनाव में भी मिलेगा, इसकी फिलहाल सम्भावना नज़र नहीं आती। कांग्रेस को नया मुहावरा, नया कार्यक्रम और नया नेता चाहिए। नए नेता का नाम कई साल से तय है, पर उनके आगे आने का इंतज़ार है। बुधवार की शाम सोनिया गांधी ने पहली बार राहुल गांधी के बाबत कोई बात कही। वह यह कि फैसला राहुल को करना है। इसी हफ्ते दिग्विजय सिंह ने कहा था कि राहुल सितम्बर में सम्भवतः किसी बड़ी भूमिका में सामने आएंगे। दिग्विजय सिंह राहुल गांधी के इतने करीब तो हैं कि उनकी बात पर विश्वास किया जा सकता है। राहुल ने अब खुद भी कहा है कि मैं ज्यादा बड़ी भूमिका निभाना चाहता हूँ। यूपी में कांग्रेस को सफलता मिली होती तो शायद उसके हाइप में राहुल अब तक मैदान में सक्रिय होते। बहरहाल अब वे किस किस्म की भूमिका में सामने आएंगे, इसका कयास भर है। लगता है कि वे कार्यकारी अध्यक्ष या पार्टी उपाध्यक्ष या किसी कोर ग्रुप के प्रमुख के रूप में आ सकते हैं। यानी पार्टी के किसी पद पर आएंगे।

राहुल के पार्टी के किसी पद पर आने का मतलब यह है कि अगले लोकसभा चुनाव के पहले वे सरकार का नेतृत्व करने नहीं आ रहे हैं। प्रणव मुखर्जी के नाम के विकल्प में जब ममता बनर्जी ने मनमोहन सिंह का नाम राष्ट्रपति पद के लिए लिए सुझाया था तब सोनिया गांधी ने स्पष्ट किया था कि नेतृत्व बदलने का कोई विचार नहीं है। संसद के मॉनसून सत्र में सरकार अपने आर्थिक सुधार एजेंडा को आगे बढ़ाना चाहती है। यह एक बुनियादी कदम होगा। सोनिया गांधी और कांग्रेस पार्टी इस वक्त दो नावों की सवारी कर रहे हैं। एक ओर आर्थिक सुधारों का कार्यक्रम है जिसपर राजनीतिक आम राय नहीं है। दूसरी ओर वह अनेक लोक लुभावन कार्यक्रमों को आगे लाना चाहती है। इसमें सबसे बड़ा कार्यक्रम ग्रामीण रोज़गार योजना का है। दूसरा बड़ा कार्यक्रम राइट टू फूड है, जिसका बिल दिसम्बर 2011 में संसद में पेश किया गया था और जिसे स्थायी समिति के पास भेज दिया गया था। राजनीतिक स्तर पर लोकपाल विधेयक, ह्विसिलब्लोवर कानून, ज्युडीशियल स्टैंडर्ड बिल और सामान्य सेवाओं और शिकायतों से जुड़े सुधार इसमें शामिल हैं। सरकार की दिक्कत यह है कि राजकोषीय घाटे को काबू में रखने के लिए वह सब्सिडी और इसी प्रकार के सामाजिक कार्यों पर रकम खर्च करने से बचना चाहती है। आर्थिक विकास की गति धीमी पड़ जाने के कारण इन्फ्रास्ट्रक्चर की योजनाओं में लगभग बीस फीसदी की कसौटी का अंदेशा है।

क्या राहुल गांधी किसी नए राजनीतिक-आर्थिक विचार के साथ सामने आने वाले हैं, जिसमें आर्थिक विकास की योजना हो और सामाजिक कल्याण का रास्ता भी। आज कई तरह के दोषों के लिए सरकार को ज़िम्मेदार मान लिया जाता है। प्रधानमंत्री कई तरह से अपनी मज़बूरियों को व्यक्त कर चुके हैं। ये मज़बूरियाँ गठबंधन से जुड़ी हैं और अपनी टीम पर नियंत्रण को लेकर भी हैं। वरिष्ठ नेताओं के बीच असहमतियों के प्रसंग भी हैं। सन 1971 में इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का जैसा चमत्कारिक नारा दिया था। फिलहाल कांग्रेस को वैसी ही जादू की छड़ी चाहिए। वैसा चमत्कार राहुल गांधी की झोली में हो तभी बात बनेगी। उन्हें देश की बागडोर लोकसभा चुनाव के बाद सौंपने की तैयारी है तो चुनाव में कांग्रेस की जीत सुनिश्चित करनी होगी। या यह मानें कि राहुल गांधी विपक्ष में रहकर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन पहले करेंगे, फिर सत्ता में आएंगे। बहरहाल फिलहाल अलसाए और सीले मॉनसून का धुँधलका है।

No comments:

Post a Comment