Tuesday, July 3, 2012

मसाज़ तक ठीक, मज़ाक तो न बने मीडिया

अखबार के दफ्तरों में हाल में नए आए पत्रकारों में एक बुनियादी फर्क उनके काम की शैली का है। आज के पत्रकार को जो तकनीक उपलब्ध है वह बीस साल पहले उपलब्ध नहीं थी। बीस साल पहले फोटो टाइप सैटिंग शुरू हो गई थी, पर सम्पादकों ने पेज बनाने शुरू नहीं किए थे। कम से कम हमारे देश में नहीं बनते थे। 1985 में ऑल्डस कॉरपोरेशन ने जब अपने पेजमेकर का पहला वर्ज़न पेश किया तब इरादा किताबों के पेज तैयार करने का था। उन्हीं दिनों पहली एपल मैकिंटॉश मशीनें तैयार हो रहीं थीं। 1987 में माइक्रोसॉफ्ट की विंडोज़ 1.0 आ गई थी। 1987 में ही क्वार्क इनकॉरपोरेटेड ने क्वार्कएक्सप्रेस का मैक और विंडो संस्करण पेश कर दिया। यह पेज बनाने का सॉफ्टवेयर था, पर सूचना और संचार की तकनीक का विस्तार उसके पहले से चल रहा था। टेलीप्रिंटर, लाइनो-मोनो टाइपसैटिंग, फैक्स और जैरॉक्स जैसी तमाम तकनीकों का वैश्विक-संवाद में क्या स्थान है इसे समझने की कोशिश ज़रूर करनी चाहिए। आज से तीस साल पहले वेस्ट इंडीज़ में हो रहे क्रिकेट मैच की खबर तीसरे रोज़ अखबारों में पढ़ने को मिलती थी। कुछ समर्थ अखबार ब्लैक एंड ह्वाइट फोटो भी छापते थे। पर 1996 के एटलांटा ओलिम्पिक के रंगीन टीवी प्रसारण से फोटो ग्रैब करके एक हिन्दी अखबार ने जब छापे तब लगा कि क्रांति तो हो गई। पर इस लेख का उद्देश्य अखबारों की तकनीकी क्रांति पर रोशनी डालना नहीं है।

भारत में इंटरनेट की शुरूआत 1995 में हुई। संयोग से उसी साल 9 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया कि हवा की तरंगों पर किसी का विशेषाधिकार नहीं है। यानी प्रसारण के निजीकरण का रास्ता खुला। लम्बे अरसे से ‘प्रधानमंत्री ने आज कहा…’ से खबरों की शुरूआत करने वाले दूरदर्शन के विकल्प में निजी चैनलों का रास्ता खुला। उस वक्त भारत में टीवी प्रसारण के तीन दशक पूरे होने ही वाले थे। दूरदर्शन के राष्ट्रीय नेटवर्क को शुरू हुए बारह साल और कुछ महीने ही हुए थे। यों 1995 के पहले ही हांगकांग के रास्ते आकाश मीडिया भारत में आ गया था, पर फ्री एयरवेव्स वाला फैसला क्रांतिकारी था। पर इस लेख का उद्देश्य मीडिया की क्रांति पर रोशनी डालना भी नहीं है।

मसला यह है कि तकनीकी, कानूनी, वैचारिक और संचार से जुड़ी क्रांतियाँ हमें जिस मुकाम पर लेकर आई हैं वह क्या है। तकनीकी क्रांति अपने आप में कोई लक्ष्य नहीं होती। वह किसी लक्ष्य को पूरा करने के वास्ते होती है। जानकारी, विचार और समाचार का प्रसार लोकतांत्रिक पद्धति का मूलाधार है। इस दुनिया में हम जो तमाम क्रांतियाँ होते देख रहे हैं वे मनुष्य जाति की बौद्धिक क्षमता के कारण सम्भव हो सकीं। और इनका निरंतर विस्तार हो रहा है। संयोग से मनोरंजन, मसाला, मौज और मस्ती भी इसका हिस्सा हैं और इसके मार्फत वैचारिक क्रांति के समानांतर हमारे अंतर्विरोध उभरते हैं। इंटरनेट के व्यावसायिक दोहन में सबसे बड़ी हिस्सेदारी पोर्नोग्राफी की है, पर लक्ष्य पोर्नोग्राफी नहीं। इस लेख का है उद्देश्य संचार और तकनीक के हार्डवेयर यानी भौतिक विस्तार के साथ उसके कंटेंट की विसंगति की ओर ध्यान दिलाना।

पिछले हफ्ते मंगलवार की शाम मीडिया पर खबर आई कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति ने सरबजीत सिंह को रिहा करने का आदेश दिया है। भारत के लोगों के लिए यह खुशी की बात थी। देखते ही देखते सीमा के दोनों ओर टीवी स्टूडियो में बहसें छिड़ गईं। जो लोग देर रात टीवी की बहस देख और सुनकर सोए थे उन्हें सुबह के अखबारों में खबर मिली कि धोखा हो गया, सरबजीत नहीं सुरजीत की रिहाई का आदेश है। बहरहाल अगले रोज़ इस बात पर बहस हुई कि धोखा क्यों हुआ। राष्‍ट्रपति आसिफ अली जरदारी क्‍यों पलट गए? एक अखबार का शीर्षक था, पाकिस्तान का दगा। एक और शीर्षक था, आधी रात को धोखा।

सरबजीत या सुरजीत के नाम को लेकर जो भी भ्रम फैला उसके लिए जिम्मेदारी पाकिस्तान सरकार के ऊपर डाली जा रही है, पर जो बातें सामने आईं वे बताती हैं कि गलती मीडिया ने की। दोनों देशों के मीडिया ने इस मामले में जल्दबाज़ी की। 28 जून के हिन्दू में पाकिस्तान संवाददाता अनिता जोशुआ की छोटी सी रिपोर्ट में कहा गया है कि पाकिस्तानी राष्ट्रपति के मीडिया सलाहकार ने पहली बार भी सुरजीत सिंह का नाम लिया था, सरबजीत का नहीं। एक पाकिस्तानी चैनल ने न जाने कैसे इसे सरबजीत सुन लिया और फिर सारे चैनलों में भगदड़ मच गई। एक ज़माने तक अखबारों के पत्रकार टेलीप्रिंटर से खबरों का इंतज़ार करते थे। आज वे या तो चैनल देखते हैं या नेट। तब खबरें देर से छपती थीं। आज फौरन छपती हैं। तकनीक ने हमें गति दी, उस गति को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी तो हमारी थी। गलती होना बड़ी बात नहीं है। गलतियाँ हो जाती हैं, पर किसी मीडिया हाउस ने इसे गलती नहीं माना। अलबत्ता हिन्दू ने इस पर सम्पादकीय लिखकर अपनी गलती को स्वीकार किया और फिर सवाल उठाया कि मीडिया ने अपनी इस गलती पर ध्यान क्यों नहीं दिया। अखबार या चैनल निरंतर प्रतियोगिता में रहते हैं। वे आपने पाठकों या दर्शकों तक जल्दी से जल्दी जानकारी पहुँचाना चाहते हैं, ताकि उनका रसूख बना रहे। पर यह कैसा रसूख है, जिसमें बड़ी से बड़ी गलतियों को भुला दिया जाता है?

पिछली सदी में मीडिया ने लोगों को जागरूक बनाने और सामाजिक विमर्श को बढ़ाने का काम किया। उसकी तकनीकी प्रगति के कारण इस काम को और आगे जाना चाहिए था, पर बजाय इसके कुछ और होने लगा। इसका एक कारण मीडिया का अपना स्वरूप है। टीवी का बॉक्स मनोरंजन के माध्यम के रूप में रूढ़ हो गया है। संज़ीदगी बोरिंग होती है। चैनल नरेश रिमोट से डरते हैं। हर सेकंड रोचक होना चाहिए। जैसे भी हो। टीवी ने व्यक्ति को प्रसिद्ध बनाया। यह प्रसिद्धि उसके विचारों और जानकारियों के कारण नहीं है। इसमें प्रसिद्धि का वही कारण है जो सिनेमा के अभिनेता का है। फिल्मी महानायक बनने में समय लगता है टीवी में ‘फिफ्टीन मिनिट्स ऑफ फेम’ की अवधारणा है। महानायक जल्दी-जल्दी बदलते हैं। उन्हें पंद्रह मिनट के लिए फेमस होना है तो उतने में ही कोई बड़ा काम निपटा देंगे। वे सेलिब्रिटी हैं, और उनके शो हैं। नेता, अधिकारी, लेखक, विचारक उन्हें अपने से नीचे स्तर के लगते हैं। उनके लिए सूचना या विचार महत्वपूर्ण नहीं बल्कि उससे उपजी प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण है। उन्हें विवाद खड़े करना अच्छा लगता है। इसलिए विवाद न हो तो उन्हें मजा नहीं आता। इस काम में वे अकेले नहीं हैं। उस मीडिया का पूरा प्रतिष्ठान उनके साथ है क्योंकि यह एक कारोबार है।

'मीडिया डेमोक्रेसी' हाल का शब्द है। आपकी प्राथमिकताएं, पसंद-नापसंद अब आपकी नहीं हैं। मीडिया ने मुकर्रर की हैं, आपके सहयोग से। आप अक्सर एसएमएस भेजकर बेसुरों के हाथों अच्छे गायकों को हराते हैं। इसलिए कि वह आपके शहर का है या प्रदेश का। या इसलिए कि देखने में अच्छा है। उसकी अदाएं रोचक हैं। यह मीडिया सिर्फ चैनल नहीं है और न सिर्फ अखबार है। यह नेट पर है और अब आपके हाथ में रखे आईपैड या स्लेट पर है। आपके मोबाइल फोन में भी। आने वाले समय में यह और रोचक, मनोरंजक रूप में आपके सामने आएगा। पर इसका सबसे महत्वपूर्ण पक्ष आप हैं मीडिया नहीं। मीडिया तो माध्यम है, बुनियादी संदेश नहीं। पर जैसाकि मार्शल मैकलुहान ने कहा था कि मीडियम ही मैसेज है जो मसाज बन गया है। इस आलेख के पीछे मीडिया से एक शिकायत थी कि सरबजीत की खबर की सनसनी में उसने एक परिवार की भावनाओं की ओर ध्यान नहीं दिया। दो देशों के रिश्तों की उपेक्षा की। पर इस मीडिया की एक सिफत यह है कि इन बातों की जानकारी भी वही देता है। उनपर बहस का मौका भी वह देता है, बशर्ते आपकी अनुमति हो, रिमोट का बटन न दबाएं। आप चाहेंगे तो यह मीडिया रास्ते पर रहेगा, क्योंकि यह आपके सहारे चलता है। आपका मीडिया है। इसमें दोष हैं तो आप विचार करें कि इसमें आपका कितना हाथ है। कृपया सोचिए, आप दर्शक, पाठक और श्रोता हैं।

यह लेख सी एक्सप्रेस के लिए लिखा गया था




2 comments:

  1. मुख्य सवाल यही है, पर कितने लोग इस पर विचार करेंगे ? लेख बिलकुल सटीक है.

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  2. आज के अधिकाँश पत्रकार बिना प्रशिक्षण अब अपने को सम्पूर्ण पत्रकार मान बैठने की गलती कर रहे हैं. आज की युवा पीढ़ी की तरह उन्हें भी ये लगता है की "उन्हें सब कुछ पता है... पुराने लोग ( उनकी नजर में अब(44) हम भी पुराने हैं) हमें क्या समझायेंगे ???"
    लिहाजा मीडिया का अधिकांश हिस्सा अब मजाक में ही तब्दील होता दिख रहा है ....यह निश्चित ही चिंता का विषय है .

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