Monday, December 12, 2011

नीति-अनीति और सत्ता की राजनीति


अन्ना हजारे के आंदोलन का अगला चरण सत्ता की राजनीति के अपेक्षाकृत ज्यादा करीब होगा। राहुल गांधी चाहते तो इस सभा में जाते और वही घोषणा करते जो एक-दो दिन बाद सरकार करने वाली है तो कांग्रेस के लिए वह बेहतर होता। बहरहाल कांग्रेस का गणित कुछ और है। या वह इतना अस्पष्ट है कि कांग्रेस को भी समझ में नहीं आ रहा। पर चिन्ता का विषय है समूची राजनीति का विचार और नीति से दूर होते जाना। लोकपाल विधेयक से बड़ा भारी बदलाव नहीं हो जाएगा। खराबी जन-प्रतिनिधित्व कानून में है और सामाजिक व्यवस्था में भी। इसके लिए अलग-अलग किस्म की राजनीति की दरकार है। हमारी पहली ज़रूरत है राजनीति को वैधानिकता प्रदान करना। एक अरसे से यह अपराधियों के चंगुल में फँसी है। 

पिछले हफ्ते एक रोज पटना से दिल्ली जाने वाली राजधानी एक्सप्रेस को अचानक रोक लिया गया। पता लगा कि कुछ सांसदों को प्रथम श्रेणी एसी की बर्थ नहीं मिल पाईं। ट्रेन से कुल 18 सांसद यात्रा करने वाले थे। उनमें से छह को प्रथम एसी में जगह मिल पाई। बाकी को सेकंड एसी में जगह दी गई है। ऐसा पहली बार हुआ। कुछ सासंदों की ट्रेन छूटी या कुछ देर से आए। संसदीय कार्यों में उनकी ठीक से शिरकत नहीं हो पाई। बहरहाल इसकी शिकायत रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी से की गई। उन्होंने सासंदों से माफी माँगी। कुछ सरकारी अफसरों का तबादला किया गया। साथ ही रेलमंत्री ने आश्वासन दिया कि भविष्य में सासंदों के रिजर्वेशन का काम सीधे रेल बोर्ड से किया जाएगा। रेलमंत्री ने एक जानकारी यह भी दी कि सरकारी सर्कुलर है कि कोई नया डिब्बा लगाने के लिए तीन दिन पहले से सूचना होनी चाहिए। वह सूचना नहीं थी इसलिए नया डिब्बा नहीं लग पाया।


सांसदों के विशेषाधिकार और उन्हें प्राप्त सुविधाओं का सम्मान होना चाहिए। और जब ऐसा नहीं हो पाता तब यह बड़ी खबर बनती है। सामान्य व्यक्ति अक्सर इस तरह की दिक्कतों का शिकार होता रहता है। राजनेता अपने मान-सम्मान के प्रति बेहद संवेदनशील हैं। वेतन भत्तों के प्रस्तावों के पास होने की गति से इसका अनुमान लगाया जा सकता है। अभी 30 नवम्बर को लोकसभा की विशेषाधिकार समिति ने अपनी सिफारिशें सदन के पटल पर रखी हैं। इनमें एक यह है कि मर्यादा सूची यानी वारंट ऑफ प्रेसेडेंस में सांसदों को राज्यों के हाईकोर्टों के मुख्य न्यायाधीशों के बराबर रखा जाए। साथ ही उनकी गाड़ियों के ऊपर लालबत्ती लगाने की अनुमति दी जाए। इसी तरह की कुछ और सिफारिशें हैं।

पिछले दिनों अन्ना आंदोलन के दौरान राजनीति और राजनीतिक नेताओंको लेकर व्यंग्य वाण चलाए गए थे। राजनीति को घटिया और अपवित्र साबित करने की कोशिश भी की गई थी। वह सब अनुचित था, क्योंकि अंततः रास्ता राजनीति से होकर जाता है। हमारा जो कुछ भी श्रेष्ठतम है उसका श्रेय भी राजनीति को जाना चाहिए। पर राजनीति को भी देखना चाहिए कि क्या वह देश की अपेक्षाओं पर पूरी तरह साबित हो पाई है। लगता है कि अन्ना हजारे का आंदोलन अब अगले दौर में प्रवेश करेगा। आंदोलन के नेताओं पर भी काफी कीचड़ उछला है। इसे जनता का समर्थन फिर भी मिल रहा है तो उसकी वजह को समझना चाहिए। जनता का गुस्सा सिर्फ कांग्रेस नहीं, समूची राजनीति के प्रति है। अन्ना आंदोलन उसका प्रतिनिधित्व कर रहा है। जनता के बीच ऐसा कोई दूसरा आंदोलन है भी नहीं।

केन्द्र सरकार ने खुदरा कारोबार में विदेशी पूँजी को अनुमति देने का फैसला एक संसदीय समिति की सिफारिशों के विरोध के बावजूद किया। टूजी मामले को लेकर लोक लेखा समिति और सत्ता पक्ष के बीच की असहमतियाँ छिपी नहीं हैं। हाल में वित्तीय मामलों से जुड़ी स्थायी समिति ने भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण बिल को अस्वीकारते हुए उसकी जगह एक नया बिल लाने का सुझाव दिया है। यूआईडी यानी विशिष्ट पहचान पत्र भी राजनीति का विषय बन गया है। इसकी तकनीक और खास तौर से लागत को लेकर आपत्तियाँ हैं। जिस समिति ने इस विधेयक को नामंजूर किया है उसके अध्यक्ष बीजेपी के यशवंत सिन्हा हैं। बीजेपी राष्ट्रीय पहचान पत्र की प्रबल समर्थक रही है। पर यह कार्यक्रम मनमोहन सिंह की देन है। इसके लिए उन्होंने नंदन नीलेकनी को चुना और उन्हें कैबिनेट मंत्री का ओहदा दिया। पर अब लगता है कि आधार कार्यक्रम के पक्ष में वैसी हवा नहीं है।

नंदन नीलेकनी निजी कारोबार के सम्मानित लोगों में गिने जाते हैं। उन्होंने अन्ना हजारे आंदोलन से असहमति जताते हुए कहा था कि हमारा ‘आधार’ हर तरह के भ्रष्टाचार को रोकने में मददगार होगा। इस प्राधिकरण के अध्यक्ष होने के बाद नीलेकनी की राजनीति के बारे में बेहतर राय बन गई थी। उन्होंने कहा था कि इस काम को करते हुए दो साल में मेरी राजनेताओं के बारे में धारणा पहले से बेहतर हो गई है। वे काफी मेहनत करते हैं। हमें उनका सम्मान करना चाहिए। नीलेकनी की राजनीति के बारे में आज क्या राय है हमें नहीं मालूम पर उनकी बात गलत भी नहीं। हमारी राजनीति में एक बड़ा तबका समझदार, गुणवान और ईमानदार है। पर व्यवस्था को पेचदार बनाने में भी राजनीति की भूमिका है। नीलेकनी का ‘आधार’ शायद सब्सिडी और इसी तरह की अन्य सामाजिक सहायता को ठीक लोगों तक पहुँचाने में मदद करता, नरेगा के मस्टर रोल में बेनामी लोगों के नाम आने से रोक लेता। पर हमारी व्यवस्था इतनी सरल नहीं। नीलेकनी के अनुभव में भी शायद इज़ाफा हुआ है तभी उन्होंने पिछले दिनों अमेरिकी पत्रिका ‘न्यूयॉर्कर’ से एक इंटरव्यू में पूछा था, ‘एम आय अ वायरस?’

वायरस कौन है? राजनीति या ईमानदारी? उत्तर प्रदेश को चुनाव सामने हैं। केन्द्र सरकार और प्रदेश सरकार के नेता अपनी-अपनी बात राजनीतिक संदर्भों में कह रहे हैं। पर सामान्य नागरिक के सामने तो दोनों सरकारें हैं। अपनी सरकारें। वह सरकारों को एक-दूसरे पर आरोप लगाते देखता है तो समझ नहीं पाता। राजनीति को हम आदर्शों से प्रेरित और राजनेताओं के महामानवों के रूप में देखना चाहते हैं। और उससे उम्मीद करते हैं कि वह सादगी और त्याग कि मिसाल बने। राजनेता को जनरल कम्पार्टमेंट में यात्रा करनी चाहिए, पर उसे सेकंड एसी भी अपमानजनक लगता है तो जनता को मोहभंग होता है। ऐसा क्यों है? हम जीवन में कितने सादगी पसंद हैं? हमारा पुराना मुहावरा है ‘यथा राजा तथा प्रजा’। पर अब यथा प्रजा तथा राजा का समय है। प्रजा और राजा जैसे शब्दों का ज़माना भी नहीं है। पर हम उन्हीं मुहावरों से बात को समझते है। अब राजनीति प्रफेशन है, कारोबार है, करीअर है। उसके नियम भी वही हैं।    

जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित


2 comments:

  1. परन्तु जोशी जी, सत्तात्मक राजनीति तो स्वतंत्रा मिलने के तुरंत बाद १५ अगस्त १९४७ की रात १२ बज कर एक मिनिट से प्रारम्भ हो गयी थी. वर्षों हम गुलाम रहे और तबसे राजा बनने की ख्वाहिश हमारे मन में पनप रही थी.आजादी मिलते ही इच्छापूर्ति हुई. पहले राजा खानदानी होते थे अब राजनेता खानदानी होते हैं. बस एक ही अंतर आया है पहले इस प्रकार खुलेआम टिप्पणी नही हो सकती थी-अब हो रही है-पर पता नहीं कब तक...! राजनेता हो या पार्टी कार्यकर्ता सबके दिमाग में लालबती, एसी प्रथम श्रेणी और फर्शी सलाम मिलने की आकांक्षा मात्र रह जाती है-जनसेवा तो सेकेंड्री है.

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  2. FDI को लागू करने के प्रति सरकार की जल्दबाजी, और लोकपाल को लटकाने या कमजोर बना देने की नियत ये तो साबित करती ही है कि हमारे राजनेता, राजनीति और संसद की संवेदना और जिमेदारी आम जनता के प्रति नहीं बल्कि बड़े उधोय्ग्पतिओं के प्रति है.

    जो कुछ राजनेता या राजनितिक दल ईमानदार हैं भी तो उनका कामकाज या उनके प्रयास आम आदमी को दिख नहीं रहे हैं इसलिए लोगों का गुस्सा सभी के प्रति समान रूप से प्रकट होता है

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