चंद्रयान-3 की सफलता ने देश-विदेश में करोड़ों भारतीयों को खुशी का मौका दिया है। इतिहास में ऐसे अवसर कभी-कभी आते हैं, जब इस तरह करोड़ों भावनाएं एकाकार होती हैं। दुनिया ने भारत को स्पेस-पावर के रूप में स्वीकार कर लिया है। हालांकि रूस और अमेरिका पाँच दशक पहले चंद्रमा पर विजय प्राप्त कर चुके हैं, फिर भी भारत की यह उपलब्धि बहुत महत्वपूर्ण है। अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ के संसाधनों को देखते हुए हमारी उपलब्धि हल्की नहीं है। चंद्रयान की इस सफलता के चार दिन पहले ही रूस को चंद्रमा पर निराशा का सामना करना पड़ा। भारत ने जिस तकनीक और किफायत से इस उपलब्धि को हासिल किया, उसपर गौर करने की जरूरत है। किफायती हाई-टेक के क्षेत्र में भारत ने अपने झंडे गाड़े हैं। चंद्रयान-2 की विफलता से हासिल अनुभव का इसरो ने फायदा उठाया और उन सारी गलतियों को दूर कर दिया, जो पिछली बार हुई थीं। उन्नत चंद्रयान-3 लैंडर को आकार देने के लिए 21 उप-प्रणालियों को बदला गया। ऐसी व्यवस्था की गई कि यदि किसी एक पुर्जे या प्रक्रिया में खराबी आ जाए, तो दूसरा उसकी जगह काम संभाल लेगा। लैंडिंग की प्रक्रिया को मिनटों और सेकंडों के छोटे-छोटे कालखंडों में बाँटकर इस तरह से संयोजित किया गया कि अभियान के विफल होने की संभावना ही नहीं बची।
14 दिन का कार्यक्रम
चंद्रयान-3 के तीन बड़े लक्ष्य हैं। इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए चंद्रयान के पास 14 दिन का समय है। पहला, चंद्र सतह पर सुरक्षित और सॉफ्ट लैंडिंग की क्षमता प्रदर्शित करना। दूसरा, रोवर प्रज्ञान का चंद्रमा की सतह पर भ्रमण और तीसरा वैज्ञानिक प्रयोगों को पूरा करना। इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए लैंडर व रोवर में सात पेलोड लगे हैं। विक्रम और प्रज्ञान दोनों ही सौर ऊर्जा से संचालित हैं। जिस इलाके में ये उतरे हैं, वहाँ सूरज की रोशनी तिरछी पड़ती है। सूर्य से प्राप्त ऊर्जा का इस्तेमाल करने के लिए इनमें लंबवत यानी खड़े सोलर पैनल लगे हैं। भविष्य में चंद्रमा को डीप स्पेस स्टेशन के तौर पर इस्तेमाल करने के लिहाज से 14 दिन के ये प्रयोग अहम साबित होंगे। इन क्रेटरों में इंसान भविष्य में टेलिस्कोप लगाकर सुदूर अंतरिक्ष का अध्ययन कर सकता है। यहाँ से बहुमूल्य खनिजों को हासिल किया जा सकता है।