कर्नाटक में संशयों से घिरी भारतीय
जनता पार्टी को दक्षिण भारत में अपने एकमात्र दुर्ग में पराजय का सामना करना पड़ा
है। यह आलेख लिखे जाने तक पूरे परिणाम आए नहीं थे, पर यह लगभग साफ है कि कांग्रेस
को स्पष्ट बहुमत मिलेगा। गौर से देखें, तो पाएंगे कि कांग्रेस का वोट करीब 5
प्रतिशत बढ़ा है। 2018 में वह 38 प्रश था, जो अब 43 प्रश हो गया है। बीजेपी का मत
कमोबेश वही 36 प्रश है, जितना 2018 में था। जेडीएस का मत 18.4 से घटकर 13.3
प्रतिशत हो गया है। उसमें करीब पाँच फीसदी की गिरावट है। जेडीएस का घटा वोट
कांग्रेस को मिला और परिणामों में इतना अंतर आ गया। इन परिणामों में कांग्रेस और
बीजेपी दोनों के लिए महत्वपूर्ण संदेश छिपे हैं। बीजेपी के लिए इस हार से उबरना
मुश्किल नहीं है, पर कांग्रेस हारती, तो उसका उबरना मुश्किल था। उसने स्पष्ट बहुमत
हासिल करके मुकाबले को ही नहीं जीता, यह जीत उसके लिए निर्णायक मोड़ साबित होगी। ऐसा
भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने चुनाव में सफलता का टेंपलेट हासिल कर लिया है,
जिसे वह अब दूसरे राज्यों में दोहरा सकती है। पर यह नहीं मान लेना चाहिए कि 2024 के
लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी के प्रति जनता के बदले हुए मूड का यह संकेत है। लोकसभा
चुनाव के मुद्दे अलग होते हैं। साल के अंत में तेलंगाना, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़
और मिजोरम विधानसभाओं के चुनाव भी होंगे। मिजोरम को छोड़ दें, तो शेष सभी राज्य
महत्वपूर्ण हैं। रणनीति में धार देने के कई मौके बीजेपी को मिलेंगे।
स्थानीय नेतृत्व
इस जीत के बाद कांग्रेस का
जैकारा सुनाई पड़ा है कि यह राहुल गांधी की जीत है। उनकी भारत-जोड़ो यात्रा की
विजय है। यह बात मल्लिकार्जुन खड़गे से लेकर सिद्धरमैया तक ने कही है। ध्यान से
देखें, यह स्थानीय नेतृत्व की विजय है। राज्य के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे का
पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर होना महत्वपूर्ण साबित हुआ, पर कांग्रेस की जीत
के पीछे राष्ट्रीय नेतृत्व की भूमिका सीमित है। खड़गे को भी कन्नाडिगा के रूप में
देखा गया। वे राज्य के वोटरों से कन्नड़ भाषा में संवाद करते हैं। कांग्रेस ने कन्नड़-गौरव, हिंदी-विरोध नंदिनी-अमूल और
उत्तर-दक्षिण भावनाओं को बढ़ाने का काम भी किया। इन बातों का असर आप देख सकते हैं। दूसरी तरफ बीजेपी के नेतृत्व की भूमिका देखें। 2021
में येदियुरप्पा को जिस तरह हटाया गया, वह क्या बताता है?
कांग्रेस की उपलब्धि
हिमाचल जीतने के बाद कर्नाटक में भी विजय हासिल
करना कांग्रेस की उपलब्धि है। अब वह राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के
चुनावों में ज्यादा उत्साह के साथ उतरेगी। मल्लिकार्जुन खड़गे को इस बात का श्रेय
मिलेगा कि उन्होंने अपने गृहराज्य में पार्टी को जीत दिलाई। कांग्रेस के पास यह आखिरी
मौका था। कर्नाटक जाता, तो बहुत कुछ चला जाता। राहुल और खड़गे के अलावा कर्नाटक
में कांग्रेस के सामाजिक-फॉर्मूले की परीक्षा भी थी। यह फॉर्मूला है अल्पसंख्यक,
दलित और पिछड़ी जातियाँ। इसकी तैयारी सिद्धरमैया ने सन 2015 से शुरू
कर दी थी, जब उन्होंने राज्य की जातीय जनगणना कराई। उसके
परिणाम घोषित नहीं हुए, पर सिद्धरमैया ने पिछड़ों और दलितों को
70 फीसदी आरक्षण देने का वादा जरूर किया। आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं किया जा
सकता था, पर उन्होंने कहा कि हम इसे 70 फीसदी करेंगे।
ऐसा तमिलनाडु में हुआ है, पर इसके लिए संविधान के 76 वां संशोधन
करके उसे नवीं अनुसूची में रखा गया, ताकि अदालत में
चुनौती नहीं दी जा सके। कर्नाटक में यह तबतक संभव नहीं, जबतक केंद्र की स्वीकृति
नहीं मिले।
कांग्रेसी
महत्वाकांक्षा
लोकसभा चुनाव के पहले
कांग्रेस मज़बूत पार्टी के रूप में उभरना चाहती है। इसी आधार पर वह विरोधी गठबंधन
का राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व करना चाहती है। साथ ही वह इसे बीजेपी के पराभव की
शुरूआत के रूप में भी देख रही है। इस विजय से उसके कार्यकर्ताओं का उत्साहवर्धन
हुआ है। राज्य में पार्टी सिद्धरमैया और डीके शिवकुमार दोनों शीर्ष नेता अपने
चुनाव जीत गए हैं, जबकि भारतीय जनता पार्टी के कई मंत्री परास्त हुए हैं।
निवृत्तमान मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई जरूर जीत गए हैं। अंतिम समय में बीजेपी
छोड़कर कांग्रेस में गए जगदीश शेट्टार हार गए हैं, जबकि लक्ष्मण सावडी को जीत मिली
है। देखना यह भी होगा कि इस विजय से क्या बीजेपी-विरोधी राष्ट्रीय गठबंधन की संभावनाएं बेहतर होंगी? क्या शेष विरोधी दल कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करेंगे? इस प्रश्न का उत्तर लोकसभा चुनाव के ठीक पहले ही मिलेगा। अभी चार राज्यों के चुनाव परिणामों का इंतजार और करें।