Tuesday, March 14, 2023

शब्दों से एक रोचक मुलाकात

अस्सी के दशक में कभी लखनऊ में रंजीत कपूर के निर्देशन में मैंने बेगम का तकिया नाटक देखा था। तब तक मुझे तकिया शब्द का मतलब सिरहाने लगाने वाला तकिया ही समझ में आता था। मसलन भरोसा करना, फ़क़ीर का आवास, क़ब्रिस्तान और छज्जे में रोक के लिए लगाई गई पत्थर की पटिया, जिसे अंग्रेजी में पैरापीट कहते हैं वगैरह। शब्दों का यह अर्थ-वैविध्य देश-काल के साथ तय होता है। जहाँ शब्द गढ़ा गया या जहाँ से और जब होकर गुज़रा। वक्त के साथ यह भी पता लगा कि शब्दों के मतलब बदलते भी जाते हैं। हाल में प्रकाशित डॉ सुरेश पंत की किताब 'शब्दों के साथ-साथ' को हाथ में लेते ही शब्दों से मुलाकात के कुछ पुराने प्रसंग याद आते चले गए।  

व्यक्तिगत रूप से मेरी मुलाकात शब्दों और उनके बनते-बिगड़ते रूपों के साथ अखबार की नौकरी के दौरान हुई। एक समय तक भाषा की ढलाई और गढ़ाई का काम अखबारों में ही हुआ था। कई साल तक मैंने कादम्बिनी में ज्ञानकोश नाम से एक कॉलम लिखा, जिसमें पाठक कई बार शब्दों का खास मतलब भी पूछते थे। नहीं भी पूछते, तब भी शब्द-संदर्भ निकल ही आते थे। एकबार किसी ने साबुन के बारे में पूछा, तो उसके जन्म की तलाश में मैंने दूसरे स्रोतों के अलावा अजित वडनेरकर के ब्लॉग शब्दों का सफर की मदद ली। 1993 में मैंने कुछ समय के लिए जयपुर के नवभारत टाइम्स में काम किया, तो एक दिन वहाँ अजित जी से मुलाकात भी हुई थी। शायद वे उस समय कोटा में अखबार के संवाददाता थे। पर मुझे उनके कृतित्व का पता अखबारी कॉलम से काफी बाद में लगा।

Sunday, March 12, 2023

विदेश में राहुल का भारतीय-लोकतंत्र पर प्रहार


हाल में ब्रिटेन-यात्रा के दौरान राहुल गांधी के बयानों की ओर देश का ध्यान गया है। वे क्या कहना चाहते हैं और क्यों? सबसे बड़ा सवाल है कि क्या उनकी बातों से कांग्रेस पार्टी की छवि बेहतर बनाने में मदद मिलेगी? इन बातों का ब्रिटिश समाज से क्या लेना-देना है और भारत का मतदाता क्या उनसे सहमत है? उम्मीद थी कि भारत-जोड़ो यात्रा के बाद वे परिपक्व हो चुके होंगे और अब नए सिरे से अपनी बात रखेंगे। पर उनके पास वही पुराना मोदी-मंत्र है और अपनी बात कहने का विदेशी-मंच। क्या उन्हें भारत में कोई ऐसी जगह नजर नहीं आई, जहाँ से वे अपनी बात कह सकें? वे किसे संबोधित कर रहे हैं, भारतीयों को या विदेशियों को? दस दिन के अपने प्रवास में राहुल गांधी ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय के एक बिजनेस स्कूल और ब्रिटिश संसद में एक कार्यक्रम को संबोधित किया, भारतवंशियों से भेंट की, ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय पत्रकारों के एक संगठन की संवाददाता सम्मेलन को संबोधित किया और चैथम हाउस में हुई एक बातचीत में भाग लिया। कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के वक्तव्य में उन्होंने लोकतंत्र, फ्री प्रेस और पेगासस आदि पर अपने विचार रखे। उन्होंने भारत की केंद्र-सरकार पर लोकतंत्र के मूल ढांचे पर हमला करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र के लिए जो संस्थागत ढांचा चाहिए जैसे संसद, स्वतंत्र प्रेस और न्यायपालिका… इन सभी पर अंकुश लग रहा है। मेरे खिलाफ कई आपराधिक मामले दर्ज हैं, जो किसी भी परिस्थिति में आपराधिक मामले नहीं हैं। जब आप मीडिया और लोकतांत्रिक ढांचे पर इस प्रकार का हमला करते हैं तो विरोधियों के लिए लोगों के साथ संवाद करना बहुत मुश्किल हो जाता है।

प्रश्न और प्रति-प्रश्न

राहुल गांधी के इन वक्तव्यों से कुछ सवाल खड़े हुए हैं। उन्होंने विदेश जाकर भारतीय-व्यवस्था की जो आलोचना की है, उसे क्या सामान्य राजनीतिक-आलोचना माना जाए? देश के प्रमुख विरोधी-दल के नेता से उम्मीद यही की जाती है कि वह व्यवस्था-दोषों पर रोशनी डाले। आलोचना व्यवस्था की है, तो वे अमेरिका और ब्रिटेन से किस प्रकार का हस्तक्षेप चाहते हैं? अपने देश में पराजित-पार्टी अपनी विफलता का ठीकरा सत्ताधारी दल पर क्यों फोड़ना चाहती है? क्या यह सच नहीं कि 2014 के चुनाव के पहले से ही ब्रिटिश अखबार गार्डियन में उन्हीं लोगों के पत्र और लेख छपने लगे थे, जो आज राहुल गांधी के कार्यक्रमों के पीछे हैं? ऐसी ही आलोचना क्या ब्रिटेन के राजनेता भारत आकर अपनी व्यवस्था की कर सकते हैं? बेशक उनकी व्यवस्थाएं हमारी व्यवस्था से बेहतर हैं, पर आलोचना तो उनकी भी होती है। वहाँ भी सत्तापक्ष और विपक्ष के रिश्ते  खराब रहते हैं, पर राजनीतिक-संवाद का तरीका हमारे तरीके से फर्क है। ब्रिटिश या अमेरिकी राजनेता भारत में आकर अपनी व्यवस्था की आलोचना कर भी लें, पर क्या चीन, रूस, तुर्की, सऊदी अरब, ईरान के राजनेता अपने शासन की आलोचना करके वापस अपने देश में सुरक्षित जा सकते हैं, जिनके साथ अब भारत की तुलना की जा रही है? क्या ये बातें औपनिवेशिक ब्रिटिश-धारणा को सही साबित कर रही हैं कि भारत अपने लोकतंत्र का निर्वाह नहीं कर पाएगा?  भारत में फासिज्म है, तो राहुल गांधी इतनी आसानी से अपनी बात कैसे कह पा रहे हैं? यदि उनकी घेराबंदी इतनी जबर्दस्त है, तो वे अपनी भारत-जोड़ो यात्रा को सफलता के साथ किस प्रकार पूरा कर पाए? क्या भारतीय मीडिया में राहुल गांधी और कांग्रेस के समर्थन और नरेंद्र मोदी की आलोचना में लेखों का प्रकाशन संभव नहीं है?

परिपक्व राहुल

इन कार्यक्रमों को आयोजित करने वाले मानते हैं कि इन कार्यक्रमों से केवल भारत की राजनीति से जुड़े प्रश्नों पर बहस खड़ी होगी, बल्कि दोनों देशों के सांस्कृतिक, सामाजिक और कारोबारी रिश्तों को भी बढ़ावा मिलेगा, जिसमें वहाँ रहने वाले भारतवंशी सेतु का काम करेंगे। उनके समर्थक मानते हैं कि राहुल गांधी ने अपनी परिपक्वता के झंडे गाड़ दिए हैं और उनके आलोचक मानते हैं कि उनकी सारी बातें गोल-मोल, अटपटी और अबूझ पहेली जैसी रही है। उनसे जो नीतिगत सवाल पूछे गए, उनके जवाबों को लेकर भी काफी चर्चा है। खासतौर से जब उनसे पूछा गया कि यदि उनकी सरकार आई, तो उनकी विदेश-नीति में नया क्या होगा, तो उन्होंने जो जवाब दिया, वह काफी लोगों को समझ में नहीं आया। ब्रिटेन जाकर वे चीन की तारीफ क्यों कर रहे हैं? भारत को राज्यों का संघ बताकर वे क्या साबित करना चाहते हैं? वे पिछले एक साल में कम से कम तीन बार कह चुके हैं कि भारत राष्ट्र नहीं है, केवल राज्यों का संघ है। संविधान के पहले अनुच्छेद में यह लिखा गया है तो इससे क्या भारत का राष्ट्र-राज्य होना खारिज हो गया? ऐसा है, तो प्रस्तावना में 'राष्ट्र की एकता अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता' का क्या मतलब है? हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का लक्ष्य क्या था? भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस क्या है? क्या राज्यों ने भारत का गठन किया है जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका का गठन हुआ था? 

देश के इन राज्यों और नागरिकों के बीच हजारों साल से संवाद चलता रहा है। हमारा समाज गतिशील है। तीर्थयात्राओं और साधुओं की यात्राओं के मार्फत यह संवाद चलता रहा है। विविधता के बीच यही हमारी एकता का प्रमाण है। राहुल के विरोधी मानते हैं कि उनकी इस यात्रा के पीछे, पश्चिमी-देशों के भीतर सक्रिय भारत-विरोधी लॉबी है, जिसका जिक्र हाल में अमेरिकी रिसर्च कंपनी हिंडनबर्ग की रिपोर्ट और अमेरिकी पूँजीपति जॉर्ज सोरोस के बयानों के कारण हुआ था। क्या इसे भारतीय राजनीति में पश्चिमी हस्तक्षेप का हिस्सा माना जाए? क्या इन कार्यक्रमों से राहुल गांधी की साख बढ़ी है?

Saturday, March 11, 2023

चीन पर काबू पाने की कोशिशें

 देस-परदेश

अमेरिका-चीन और भारत-2, इस आलेख की पहली किस्त पढ़ें यहाँ


नब्बे के दशक के वैश्वीकरण का सबसे बड़ा फायदा चीन को मिला. पश्चिमी देशों के पूँजी निवेश के कारण उसकी अर्थव्यवस्था का तेज विस्तार हुआ. पश्चिम को शुरुआती वर्षों में चीन का उदय अपने पक्ष में जाता नज़र आता था, पर ऐसा हुआ नहीं. सामरिक और आर्थिक, दोनों मोर्चों पर चीन आज पश्चिम के सबसे बड़े प्रतिस्पर्धी के रूप में उभर कर आया है. असली टकराव अब अमेरिका और चीन के बीच है.

हाल में जी-20 की बैठक में भाग लेने आए रूसी विदेशमंत्री सर्गेई लावरोव ने कहा कि हम भारत और चीन की दोस्ती चाहते हैं. रूस, भारत और चीन के विदेशमंत्री इस साल त्रिपक्षीय समूह की बैठक के लिए मिलेंगे, पर भारत सरकार के सूत्रों का कहना है कि जब तक उत्तरी सीमा की स्थिति में सुधार नहीं होगा, भारत ऐसी किसी बैठक में भाग नहीं लेगा. आरआईसी (रूस, भारत, चीन) के विदेशमंत्री पिछली बार नवंबर 2021 में वर्चुअल माध्यम से मिले थे. फरवरी 2022 में यूक्रेन युद्ध की शुरुआत के बाद से नहीं मिले हैं. लावरोव जो भी कहें भारत और चीन की प्रतिस्पर्धा आकाश में लिखी दिखाई पड़ती है. रूस और चीन के हित भी टकराते हैं, पर आज वे दिखाई पड़ नहीं रहे हैं.

अमेरिकी रुख

भारत और अमेरिका आज जितने करीबी नज़र आ रहे हैं, उतने अतीत में नहीं थे. 1971 में बांग्लादेश-युद्ध के दौरान अमेरिका की दिलचस्पी चीन से दोस्ती गाँठने की थी, ताकि वह रूस को संतुलित करने वाली ताकत बने. पर चीन अब भस्मासुर बन चुका है. बांग्लादेश की मुक्ति सामान्य लड़ाई नहीं थी. उस मौके पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के नाम जो खुला पत्र लिखा था, उसे फिर से पढ़ने की जरूरत है.

उस दौरान अमेरिकी पत्रकारों ने अपने नेतृत्व की इस बात के लिए आलोचना भी की थी कि भारत को रूस के साथ जाने को मजबूर होना पड़ा. विदेशमंत्री एस जयशंकर ने गत 10 अक्तूबर को ऑस्ट्रेलिया में एक प्रेस-वार्ता के दौरान कहा कि हमारे पास रूसी सैनिक साजो-सामान होने की वजह है, पश्चिमी देशों की नीति. पश्चिमी देशों ने हमें रूस की ओर धकेला.

1998 में भारत के एटमी परीक्षण के फौरन बाद पाकिस्तान ने भी एटमी परीक्षण किया. दुनिया जानती थी कि पाकिस्तानी एटम बम वस्तुतः चीनी मदद से तैयार हुआ है. उस दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को एक पत्र लिखा, ‘हमारी सीमा पर एटमी ताकत से लैस एक देश बैठा है, जो 1962 में हमला कर भी चुका है… इस देश ने हमारे एक और पड़ोसी को एटमी ताकत बनने में मदद की है.’ कहा जाता है कि अमेरिकी प्रशासन ने इस पत्र को सोच-समझकर लीक किया. यह अमेरिकी नीति में बदलाव का प्रस्थान-बिंदु था.

चीन पर नकेल

अमेरिका अब उस प्रक्रिया को उलटना चाहता है, जिसके कारण चीन का आर्थिक महाविस्तार हुआ है. सवाल है कि क्या उसे सफलता मिलेगी? हिंद-प्रशांत क्षेत्र में क्वाड एक कदम है. उधर अमेरिका के दबाव में दिसंबर 2020 में हुआ यूरोपियन यूनियन और चीन का कांप्रिहैंसिव एग्रीमेंट ऑन इनवेस्टमेंट (सीएआई) खटाई में पड़ गया. इस निवेश समझौते (सीएआई) पर सहमति सात साल तक चली बातचीत के बाद जाकर बनी थी. इसमें व्यवस्था थी कि ईयू और चीन की कंपनियां एक दूसरे के यहां आसानी से निवेश कर पाएंगी.

Thursday, March 9, 2023

चीन को काबू करने की कोशिशें और भारत

 देस-परदेश

अमेरिका-चीन और भारत-1

ताज़ा खबर है कि चीन ने इस साल 5 फीसदी संवृद्धि का लक्ष्य तय किया है, जो पिछले 35 वर्षों का सबसे नीचा स्तर है. चीनी संसद में प्रधानमंत्री ली ख छ्यांग ने अपने कार्यकाल के अंतिम दिन यह घोषणा की है. सन 1978 में जबसे चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था को खोला है उसकी संवृद्धि औसतन नौ फीसदी तक रही है, पर अब उसमें ठहराव आ रहा है.

इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है तीन साल तक चली कोविड-19 महामारी. उधर तरफ अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी खेमे की कोशिश है कि चीन के आर्थिक और सैनिक विस्तार पर किसी तरह से रोक लगाई जाए. जिस तरह पहले अमेरिका ने सोवियत संघ को काबू में करने की कोशिशें की थीं, अब उसी तर्ज पर वह चीन को काबू करने का प्रयास कर रहा है.

क्या अमेरिका अपने इस प्रयास में सफल होगा? बड़ी संख्या में पर्यवेक्षक मानते हैं कि इसमें देर हो चुकी है. चीन अब अमेरिका के दबाव में आने वाला नहीं है. अब शीतयुद्ध की तरह दुनिया की अर्थव्यवस्था दो भागों में विभाजित नहीं है. वह आपस में जुड़ी हुई है. वह एक-ध्रुवीय भी नहीं है, पर अब दो-ध्रुवीय भी नहीं रहेगी, जैसी कि चीनी मनोकामना है.

दुनिया अब बहुध्रुवीय होने जा रही है. इसमें एक बड़ी भूमिका भारत की होगी. यह भूमिका केवल दुनिया को बहुध्रुवीय बनाने वाली ही नहीं है, बल्कि विश्व-व्यवस्था में संतुलन स्थापित करने की है. पर उसके पहले हमें चीन की जवाबी ताकत बनना होगा.

जी-20 की बैठकें

पिछले कुछ वर्षों में पश्चिमी देशों की चीन-विरोधी रणनीति ने धीरे-धीरे अपनी जगह बनाई है. इसमें सबसे बड़ी भूमिका पिछले साल यूक्रेन पर हुए रूसी सैनिक हस्तक्षेप ने निभाई है. यूक्रेन में रूसी हठ के पीछे चीन का हाथ नज़र आने लगा है. पिछले हफ्ते भारत में हुई जी-20 की दो मंत्रिस्तरीय बैठकों में वैश्विक-राजनीति का यह टकराव खुलकर सामने आया. बेंगलुरु में वित्तमंत्रियों और केंद्रीय बैंकों के गवर्नरों तथा दिल्ली में विदेशमंत्रियों की बैठक, विश्व-व्यवस्था पर कोई आमराय बनाए बगैर ही संपन्न हो गईं.

हालांकि भारतीय-नजरिए में औपचारिक बदलाव नहीं है, पर इस घटनाक्रम का दूरगामी असर होगा, जिसके संकेत मिलने लगे हैं. नवंबर में जी-20 का शिखर सम्मेलन जब होगा, तब ज्यादा बड़ी चुनौतियाँ सामने आएंगी. जी-20 की बैठकों के फौरन बाद शुक्रवार को दिल्ली में हुई क्वॉड विदेशमंत्रियों की बैठक से इस मसले के अंतर्विरोध और ज्यादा खुलकर सामने आए हैं.

कांग्रेस के फैसले, मर्जी परिवार की


राहुल गांधी की भारत-जोड़ो यात्रा और कांग्रेस के नवा रायपुर-अधिवेशन को जोड़कर देखें, तो लगता है कि विचारधारा, संगठन और चुनावी रणनीति की दृष्टि से पार्टी नया कुछ गढ़ना नहीं चाहती है। वह राहुल गांधी सिद्धांतपर चल रही है, जो 2019 के चुनाव के पहले तय हुआ था। पार्टी के कार्यक्रमों पर नजर डालें, तो 2019 के घोषणापत्र के न्याय कार्यक्रम की कार्बन कॉपी हैं। इसमें न्यूनतम आय और स्वास्थ्य के सार्वभौमिक अधिकार को भी शामिल किया गया है। तब और अब में फर्क केवल इतना है कि पार्टी अध्यक्ष अब मल्लिकार्जुन खड़गे हैं, जिनकी अपनी कोई लाइन नहीं है। संयोग से परिणाम वसे नहीं आए, जिनका दावा किया जा रहा है, तो जिम्मेदारी खड़गे साहब ले ही लेंगे।  

कार्यक्रमों पर नज़र डालें, तो दिखाई पड़ेगा कि पार्टी ने बीजेपी के कार्यक्रमों की तर्ज पर ही अपने कार्यक्रम बनाए हैं। नयापन कोई नहीं है। इस महाधिवेशन से दो-तीन बातें और स्पष्ट हुई हैं। कांग्रेस अब सोनिया गांधी से बाद की राहुल-प्रियंका पीढ़ी के पूरे नियंत्रण में है। अधिवेशन में जो भी फैसले हुए, वे परिवार की मर्जी को व्यक्त करते हैं। पार्टी में पिछली पीढ़ी के ज्यादातर नेता या तो किनारे कर दिए गए हैं या राहुल की शरण में चले गए हैं। जी-23 जैसे ग्रुप का दबाव खत्म है।

दूसरी तरफ राहुल-सिद्धांत की विसंगतियाँ भी कायम हैं। राहुल ने खुद को ‘सत्याग्रही’ और भाजपा को ‘सत्ताग्रही’ बताया। नौ साल सत्ता से बाहर रहना उनकी व्यथा है। दूसरी तरफ पार्टी का अहंकार बढ़ा है। वह विरोधी दलों से कह रही है कि हमारे साथ आना है, तो हमारे नेतृत्व को स्वीकार करो। बगैर किसी चुनावी सफलता के उसका ऐसा मान लेना आश्चर्यजनक है। सवाल है कि गुजरात में मिली जबर्दस्त हार के बावजूद पार्टी के गौरव-गान के पीछे कोई कारण है या सब कुछ हवा-हवाई है?  पार्टी मान कर चल रही है कि राहुल गांधी का कद बढ़ा है। उनकी भारत-जोड़ो यात्रा ने चमत्कार कर दिया है। छोटे से लेकर बड़े नेताओं तक ने भारत-जोड़ो जैसा यशोगान किया, वह रोचक है।  

यात्रा की राजनीति

हालांकि यात्रा को पार्टी के कार्यक्रम के रूप में शुरू नहीं किया गया था और उसे राजनीतिक कार्यक्रम बताया भी नहीं गया था, पर पार्टी यह भी मानती है कि इस यात्रा ने पार्टी में प्राण फूँक दिए हैं और अब ऐसे ही कार्यक्रम और चलाए जाएंगे, ताकि राहुल गांधी के ही शब्दों में उनकी तपस्या के कारण पैदा हुआ उत्साह भंग न होने पाए। तपस्या बंद नहीं होनी चाहिए। जयराम रमेश ने फौरन ही पासीघाट (अरुणाचल) से पोरबंदर (गुजरात) की पूर्व से पश्चिम यात्रा की घोषणा भी कर दी है, जो जून या नवंबर में आयोजित की जाएगी। यह यात्रा उतने बड़े स्तर पर नहीं होगी और पदयात्रा के साथ दूसरे माध्यमों से भी हो सकती है।

बहरहाल यात्रा की राजनीति ही अब कांग्रेस का रणनीति है। उनकी समझ से बीजेपी के राष्ट्रवाद का जवाब। बीजेपी पर हमला करने के लिए कांग्रेस ने वर्तमान चीनी-घुसपैठ के राजनीतिकरण और 1962 में चीनी-आक्रमण के दौरान तैयार हुई राष्ट्रीय-चेतना का श्रेय लेने की रणनीति तैयार की है। नरेंद्र मोदी के मेक इन इंडिया औरआत्मनिर्भर भारत जैसे कार्यक्रमों की देखादेखी अधिवेशन में पारित एक प्रस्ताव में कहा गया है कि देश के उत्पादों के बढ़ावा देने का समय आ गया है। इसके लिए मझोले और छोटे उद्योगों, छोटे कारोबारियों को संरक्षण देने तथा जीएसटी को सरल बनाने की जरूरत है।