भारत-नेपाल रिश्ते-3
ताकतवर पड़ोसी देश होने के कारण नेपाल का चीन के साथ अच्छे रिश्ते बनाना स्वाभाविक बात है, पर इन रिश्तों के पीछे केवल पारंपरिक-व्यवस्था नहीं है, बल्कि आधुनिक जरूरतें हैं. दोनों के बीच 1 अगस्त 1955 को राजनयिक
रिश्ते की बुनियाद रखी गई. दोनों देशों के बीच 1,414 किलोमीटर लंबी सीमा है. यह
सीमा ऊँचे और बर्फ़ीले पहाड़ों से घिरी हुई है. हिमालय की इस लाइन में नेपाल के
16.39 फ़ीसदी इलाक़े आते हैं. शुरुआती समझ जो भी रही हो, पर नेपाल ने हाल के
वर्षों में चीन को खुश करने वाले काम ही किए हैं.
21 जनवरी 2005 को नेपाल की सरकार ने दलाई लामा
के प्रतिनिधि ऑफिस, जिसे तिब्बती शरणार्थी कल्याण कार्यालय
के नाम से जाना जाता था, उसे बंद कर दिया. काठमांडू स्थित
अमेरिकी दूतावास ने इसपर आपत्ति जताई, लेकिन नेपाल
फ़ैसले पर अडिग रहा. ज़हिर है कि चीन ने नेपाल के इस फ़ैसले का स्वागत किया.
युद्ध में तटस्थ
भारत के साथ रक्षा-समझौता होने के बावजूद 1962
के भारत-चीन युद्ध के समय नेपाल तटस्थ रहा. उसने किसी का पक्ष लेने से इनकार कर
दिया, जबकि भारत चाहता था कि भारत के साथ नेपाल खुलकर आए. नेपाल की इस ‘तटस्थता’ का एक परिचय 1969 में देखने को मिला, जब नेपाली
प्रधानमंत्री कीर्ति निधि बिष्ट ने धमकी दी कि यदि भारत ने नेपाल की उत्तरी सीमा
पर तैनात अपने सैनिकों को नहीं हटाया, तो मैं अनशन करूँगा.
इसके बाद भारत ने अपनी
सेना हटाई, जबकि 1962 के युद्ध के समय भारतीय सेना वहाँ तैनात थी. भारत-नेपाल के
बीच 1950 की संधि के अंतर्गत इसकी व्यवस्था है. नेपाल ऐसा करके अपनी तटस्थता को
साबित करना चाहता था और शायद चीन को भरोसा दिलाना चाहता था कि हम आपके खिलाफ भारत
के साथ नहीं हैं. 2017 में जब डोकलाम-विवाद खड़ा हुआ, तब सवाल था कि क्या नेपाल
अपनी तटस्थता को लंबे समय तक बनाए रख सकेगा.
2015 में नेपाल जब संविधान लागू कर रहा था,
तब भारत के तत्कालीन विदेश सचिव एस जयशंकर नेपाल गए और संविधान की निर्माण-प्रक्रिया
में भारत के पक्ष पर विचार करने का आग्रह उन्होंने किया. ये चिंताएं तराई में रहने
वाले मधेसियों को लेकर थीं. नेपाल
के संविधान में देश को धर्मनिरपेक्ष बनाने की घोषणा की गई है. इसके
निहितार्थ को लेकर भी कुछ संदेह थे. 26 मई 2006 को बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष
राजनाथ सिंह ने कहा था, ''नेपाल की मौलिक पहचान एक हिंदू राष्ट्र
की है और इस पहचान को मिटने नहीं देना चाहिए. बीजेपी इस बात से ख़ुश नहीं होगी कि
नेपाल अपनी मौलिक पहचान माओवादियों के दबाव में खो दे.''
नेपाल के राजनेताओं को इस बात पर आपत्ति है कि
भारत उनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करता है. बहरहाल संविधान बन गया और वहाँ सरकार भी बन गई. दूसरी
तरफ उन्हीं दिनों यानी 2015 में भारत ने अघोषित नाकेबंदी शुरू कर दी. नेपाल में
पेट्रोल और डीजल का संकट पैदा हो गया. इसपर नेपाल ने चीन के ट्रांज़िट रूट को
खोलने की घोषणाएं कीं. पर वह मुश्किल काम है. नेपाल में चीन की राजदूत के व्यवहार
से यह भी स्पष्ट था कि इन राजनेताओं को चीनी हस्तक्षेप पर आपत्ति नहीं थी. नेपाल
को यह भी लगता है कि भारत उसकी निर्भरता का फ़ायदा उठाता है, इसलिए चीन के साथ ट्रांज़िट रूट को और मज़बूत करने की ज़रूरत है.
हिरण्य लाल श्रेष्ठ ने अपनी किताब '60 ईयर्स ऑफ़ डायनैमिक पार्टनरशिप' में
लिखा है, ''नेपाल ने चीन के साथ 15 अक्तूबर 1961 को दोनों
देशों के बीच रोड लिंक बनाने के लिए एक समझौता किया. इसके तहत काठमांडू से खासा तक
अरनिको राजमार्ग बनाने की बात हुई. इस समझौते का भारत समेत कई पश्चिमी देशों ने भी
विरोध किया. समझौते के हिसाब से चीन ने अरनिको हाइवे बनाया और इसे 1967 में खोला
गया. कहा जाता है कि इस सड़क का निर्माण चीनी सेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने किया.
यह भारत से निर्भरता कम करने की शुरुआत थी.''
इस हाइवे को दुनिया की सबसे ख़तरनाक रोड कहा
जाता है. भूस्खलन यहाँ लगातार होता है और अक्सर यह सड़क बंद रहती है. नेपाल इसी
रूट के ज़रिए चीन से कारोबार करता है, लेकिन यह बहुत
ही मुश्किल है. यहाँ भारी बारिश होती है जिससे, भूस्खलन
यहाँ आम बात है. 112.83 किलोमीटर लंबी इस सड़क के दोनों तरफ खड़े ढाल हैं और कहा
जाता है कि इस पर गाड़ी चलाना जान जोखिम में डालने जैसा है. यह पुराने ज़माने में याकों के आवागमन का मार्ग था. चीन-नेपाल मैत्री
सेतु पर यह सड़क चीन के राजमार्ग 318 से मिलती है, जो ल्हासा तक
ले जाती है. उसके बाद शंघाई तक जाने वाली सड़क है.
भारत के बाद नेपाल का दूसरा सबसे बड़ा ट्रेड
पार्टनर चीन है. हालाँकि इसके बावजूद कारोबार का आकार बहुत छोटा है. नेपाल के
विदेश मंत्रालय के अनुसार 2017-18 में नेपाल ने चीन से कुल 2.3 करोड़ डॉलर का
निर्यात किया. इसी अवधि में नेपाल ने चीन से डेढ़ अरब डॉलर का आयात किया. नेपाल का
चीन से कारोबार घाटा लगातार बढ़ रहा है.