मॉस्को में शंघाई
सहयोग संगठन की बैठक के दौरान भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर और चीनी विदेश मंत्री
वांग यी के बीच पाँच सूत्री समझौता हो जाने के बाद भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा
सकता कि चीनी सेना अप्रेल-मई की स्थिति पर वापस चली जाएंगी। ऐसा मानने का सबसे
बड़ा कारण यह है कि इस समझौते में न तो वास्तविक नियंत्रण रेखा का नाम है और न
यथास्थिति कायम करने का जिक्र है। होता भी तो वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर चीन
और भारत की अलग-अलग परिभाषाएं
हैं। सन 2013 में जब चीनी सैनिकों की लद्दाख में घुसपैठ का मामला सामने आया, तब भी यही बात कही
गई थी।
भारत और चीन की सीमा पर कम से कम 20 जगहों के सीमांकन को
लेकर दोनों देशों के बीच असहमतियाँ हैं। सन 1980 से लेकर अबतक दोनों के
बीच वार्ताओं के कम से कम 20 दौर हो चुके हैं। चीन के
सीमा विस्तार की रणनीति को ‘सलामी स्लाइस’ की संज्ञा दी जाती है। माना जाता है कि
चीनी सेनाएं धीरे-धीरे किसी इलाके के में गश्त के नाम पर घुसपैठ बढ़ाती हैं और
सलामी के टुकड़े की तरह उसे दूसरे देश से काटकर अलग कर देती हैं। चीन इस रणनीति को
दक्षिण चीन सागर में भी अपना रहा है। इस इलाके में अंतरराष्ट्रीय सीमा तो स्पष्ट
नहीं है, सन 1962 के युद्ध के बाद की
वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर भी अस्पष्टता है।
सन 2013 में भारत के पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने अपनी एक
रिपोर्ट में कहा था कि चीन ने पूर्वी लद्दाख में इसी किस्म की गश्त से भारत का 640 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र हथिया लिया है। श्याम सरन तब यूपीए
सरकार की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के अंतर्गत काम करने वाले राष्ट्रीय सुरक्षा
सलाहकार बोर्ड के अध्यक्ष थे। सरकार ने उनकी बात को स्वीकार नहीं किया, पर यह बात रिकॉर्ड में मौजूद है। लगभग उसी अंदाज में इस साल
सरकार ने शुरू में चीनी घुसपैठ की बात को स्वीकार नहीं किया था।
भारत ने उसी साल
चीन के साथ बॉर्डर डिफेंस कोऑपरेशन एग्रीमेंट (बीसीडीए) पर हस्ताक्षर किए थे।
बीसीडीए प्रस्ताव चीन की ओर से आया था। वह चाहता था कि चीन के प्रधानमंत्री ली
खछ्यांग की भारत यात्रा के पहले वह समझौता हो जाए। इस समझौते के बावजूद उसी साल
अप्रैल में देपसांग इलाके में चीनी घुसपैठ हुई और उसके अगले साल चुमार इलाके में।
दरअसल चीन के साथ 1993, 1996, 2005 और 2012 में भी ऐसे ही समझौते हुए थे, पर सीमा को लेकर चीन के दावे हर साल बदलते रहे।
बहरहाल मॉस्को
में हुआ समझौता दो कारणों से महत्वपूर्ण है। लगता है कि चीन को इस टकराव के
दूरगामी परिणाम समझ में आए हैं, और वह दबाव में है। यह हमारा अनुमान है। वास्तव
में ऐसा है या नहीं, यह कुछ समय बाद स्पष्ट होगा। हम मानते हैं कि वह फिर भी नहीं
माना और टकराव बढ़ाने कोशिश करता रहा, तो उसे उसकी कीमत चुकानी होगी। सीमा विवाद
को लेकर जिस पाँच सूत्री योजना पर सहमति बनी है, उसे पढ़ने से कोई सीधा निष्कर्ष
नहीं निकाला जा सकता। असल बात भरोसे की और समझौते की शब्दावली को समझने की है। दूसरी बात यह है कि चीनी सेना की ताकत को लेकर दुनिया
का भ्रम टूटा है। अमेरिका सहित तमाम पश्चिमी देशों ने चीन को सैनिक महाशक्ति के
रूप में दिखाना शुरू कर दिया है। चीन खुद भी ऐसा दिखाने का प्रयास करता है। वह
भ्रम टूटा है और यदि गतिरोध बना रहा, तो और टूटेगा।
सवाल है कि अप्रेल-मई
से पहले की स्थिति पर चीन वापस जाएगा या नहीं? नहीं गया, तो हमारे पास उसे रास्ते पर लाने का
तरीका क्या है? इस समझौते के सिलसिले में जो खबरें मिली हैं उनमें सबसे
महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय विदेशमंत्री ने कहा है कि अब भारतीय सेना तबतक
पीछे नहीं हटेगी, जबतक वह चीनी सेना के पीछे हटने के बारे में आश्वस्त नहीं हो
जाएगी। इसका मतलब है कि भारत अब दबकर नहीं, बल्कि चढ़कर बात करेगा।