Sunday, July 28, 2019

संसद या सड़क? कांग्रेस के धर्मसंकट


राज्यसभा में सरकार ने गुरुवार को विपक्षी एकजुटता के चक्रव्यूह को तोड़कर कांग्रेस सहित समूचे विपक्ष के सामने चुनौती पैदा कर दी है।  इसके एक दिन पहले ही कांग्रेस ने सूचना के अधिकार (आरटीआई) संशोधन और तीन तलाक सहित सात विधेयकों का रास्ता राज्यसभा में रोकने की रणनीति तैयार की थी। यह रणनीति पहले दिन ही धराशायी हो गई। सत्तारूढ़ दल ने विरोधी-एकता में सेंध लगाने में कामयाबी हासिल कर ली।
लोकसभा चुनाव में भारी पराजय का सामना करने के बाद विरोधी, दलों खासतौर से कांग्रेस के सामने चुनौती है कि अब क्या किया जाए। पार्टी के पास संसद के भीतर आक्रामक मुद्रा अपनाने का मौका है, पर कैसे? दूसरी तरफ उसके सामने संसद से बाहर सड़क पर उतरने का विकल्प है, पर कैसे? सवाल नेतृत्व का है और विचारधारा का। पार्टी के सामने केवल नेतृत्व का संकट नहीं है। उससे ज्यादा विचारधारा का संकट है। पार्टी अब ट्विटर के भरोसे है।
राज्यसभा में घटता रसूख
लोकसभा में कुछ किया नहीं जा सकता। केवल राज्यसभा में ही संख्याबल के सहारे सत्तारूढ़ दल पर एक सीमा तक अंकुश लगाया जा सकता है, पर इसके लिए क्षेत्रीय दलों के साथ सहमति तैयार करनी होगी। फिलहाल लगता है कि कांग्रेस को इसमें सफलता नहीं मिल रही है। बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति, अद्रमुक और वाईएसआर कांग्रेस का रुझान केन्द्र सरकार के पक्ष में नजर आ रहा है। यह समर्थन लोकसभा चुनाव के दौरान भी नजर आ गया था।

Friday, July 26, 2019

कारगिल युद्ध ने बदली भारतीय रक्षा-नीति की दिशा


इस साल फरवरी में हुए पुलवामा कांड के ठीक बीस साल पहले पाकिस्तानी सेना कश्मीरी चरमपंथियों की आड़ में कारगिल की पहाड़ियों पर कब्जा जमा रही थी। यह एक अप्रत्याशित प्रयास था, धोखाधड़ी का। भारतीय सेना ने उस प्रयास को विफल किया और कारगिल की पहाड़ियों पर फिर से तिरंगा फहराया, पर इस युद्ध ने भारतीय रक्षा-नीति को आमूल बदलने की प्रेरणा दी। साथ ही यह सीख भी दी कि भविष्य में पाकिस्तान पर किसी भी रूप में विश्वास नहीं करना चाहिए।
कारगिल के बाद भी भारत ने पाकिस्तान के प्रति काफी लचीली नीति को अपनाया था। परवेज मुशर्रफ को बुलाकर आगरा में उनके साथ बात की, पर परिणाम कुछ नहीं निकला। सन 1947 के बाद से पाकिस्तान ने कश्मीर को हथियाने के कम से कम तीन बड़े प्रयास किए हैं। तीनों में कबायलियों, अफगान मुजाहिदों और कश्मीरी जेहादियों के लश्करों की आड़ में पाकिस्तानी फौज पूरी तरह शामिल थी। कारगिल की परिघटना भी उन्हीं प्रयासों का एक हिस्सा थी।
बालाकोट में नई लक्ष्मण रेखा
कारगिल के बाद मुम्बई, पठानकोट, उड़ी और फिर पुलवामा जैसे कांडों के बाद पहली बार भारत ने 26 फरवरी को बालाकोट की सीधी कार्रवाई की है। यह नीतिगत बदलाव है। बालाकोट के अगले दिन पाकिस्तानी वायुसेना ने नियंत्रण रेखा को पार किया। यह टकराव ज्यादा बड़ा रूप ले सकता था, पर अंतरराष्ट्रीय प्रभाव और दबाव में भारत ने अपने आप को रोक लिया, पर अब एक नई रेखा खिंच गई है। भारत अब कश्मीर के तथाकथित लश्करों, जैशों और हिज्बों के खिलाफ सीधे कार्रवाई करेगा।
3 मई, 1999 को पहली बार हमें कारगिल में पाकिस्तानी कब्जे की खबरें मिलीं और 26 जुलाई को पाकिस्तानी सेना आखिरी चोटी से अपना कब्जा छोड़कर वापस लौट गई। करीब 50 दिन की जबर्दस्त लड़ाई के बाद भारतीय सेना ने इन चोटियों पर कब्जा जमाए बैठी पाकिस्तानी सेना को एक के बाद एक पीछे हटने को मजबूर कर दिया। इसके साथ ऑपरेशन विजय पूरा हुआ।
पाकिस्तानी सेना ने अपने नियमित सैनिकों को नागरिकों के भेस में नियंत्रण रेखा को पार करके इन चोटियों पर पहुँचाया और करीब दस साल से चले आ रहे भारत-विरोधी छाया युद्ध को एक नया आयाम दिया। ऊंची पहाड़ियों पर यह अपने किस्म का सबसे बड़ा युद्ध हुआ है। इसमें विजय हासिल करने के लिए हमें  युद्ध ने भारतीय रक्षा-प्रतिष्ठान को एक बड़ा सबक दिया।
इस युद्ध में भारतीय सेना के 500 से ज्यादा सैनिक शहीद हुए। चोटी पर बैठे दुश्मन को हटाने के लिए तलहटी से किस तरह वे ऊपर गए होंगे, इसकी कल्पना करना भी आसान नहीं है। वायुसेना के लड़ाकू विमानों और हेलिकॉप्टरों ने भी इसमें भाग लिया। सरकार ने 25 मई को इसकी अनुमति दी, पर ऑपरेशन सफेद सागरके पहले ही दिन 26 मई को  परिस्थितियों का अनुमान लगाने में गलती हुई और एक मिग-21 विमान दुश्मन की गोलाबारी का शिकार हुआ। एक मिग-27 दुर्घटनाग्रस्त हुआ। इसके अगले रोज 27 मई को हमारा एक एमआई-17 हेलिकॉप्टर गिराया गया।
वायुसेना का महत्व
इन विमानों के गिरने के बाद ही यह बात समझ में आ गई थी कि शत्रु पूरी तैयारी के साथ है। उसके पास स्टिंगर मिसाइलें हैं। हेलिकॉप्टरों को फौरन कार्रवाई से हटाया गया। वायुसेना ने अपनी रणनीति पर फिर से विचार करना शुरू किया। 30 मई के बाद वायुसेना ने मिरा-2000 विमानों से लेजर आधारित गाइडेड बमों का प्रयोग शुरू किया। काफी ऊंचाई से ये विमान अचूक निशाना लगाने लगे।
दुर्भाग्य से मिराज-2000 के साथ आई लेजर बमों की किट कारगिल के ऑपरेशन के लिए उपयुक्त नहीं पाई गई। ऐसे में वायुसेना के तकनीशियनों ने अपने कौशल से उपलब्ध लेजर किटों का इस्तेमाल किया। जून के महीने में इन हवाई हमलों की संख्या बढ़ती गई और भारतीय विमानों ने दूर से न केवल चोटियों पर जमे सैनिकों को निशाना बनाया, साथ ही नियंत्रण रेखा के दूसरी तरफ बनाए गए उनके भंडारागारों को भी ध्वस्त करना शुरू कर दिया।
जुलाई आते-आते स्थितियाँ काफी नियंत्रण में आ गईं। भारत के बहादुर इनफेंट्री सैनिकों ने एक-एक इंच करते हुए पहाड़ियों पर फिर से कब्जा कायम किया, जिसमें उनकी सहायता तोपखाने की जबर्दस्त गोलाबारी ने की। कश्मीरी उग्रवाद की आड़ में इस घुसपैठ को बढ़ावा देने के पीछे पाकिस्तानी सेना का सामरिक उद्देश्य हिंसा को भड़काना था, जिसे वे जेहाद कहते हैं, ताकि दुनिया का ध्यान कश्मीर के विवाद की ओर जाए।
द्रास, मुश्कोह घाटी और काक्सर सेक्टर में उनका फौजी लक्ष्य था, श्रीनगर-लेह राष्ट्रीय मार्ग 1ए को कारगिल जिले से अलग करना ताकि भारत को लेह से जोड़ने वाली जीवन-रेखा कट जाए और सियाचिन ग्लेशियर के पश्चिम में स्थित साल्तोरो रिज की रक्षा करने वाली भारतीय सेना को रसद मिलना बंद हो जाए।
एक और सैनिक लक्ष्य था, कश्मीर घाटी और पीर पंजाल पर्वत माला के दक्षिण के डोडा क्षेत्र में अमरनाथ की पहाड़ियों तक घुसपैठ का एक नया रास्ता खोला जा सके। सियाचिन ग्लेशियरों की पट्टी से लगी बटालिक और तुर्तक घाटी में पाकिस्तानी सेना एक मजबूत बेस बनाना चाहती थी, जिससे कि श्योक नदी घाटी के रास्ते से बढ़ते हुए वह भारत की सियाचिन ब्रिगेड से एकमात्र सम्पर्क को काट दे।
निशाना था सियाचिन
इन लक्ष्यों के अलावा पाकिस्तानी सेना यह भी चाहती थी कि कारगिल जिले में नियंत्रण रेखा के भारतीय क्षेत्र पर कब्जा कर लिया जाए, ताकि इसके बाद मोल-भाव किया जा सके। खासतौर से सियाचिन क्षेत्र से भारतीय सेना की वापसी सुनिश्चित की जा सके। कारगिल अभियान के पीछे सबसे बड़ी कामना था सियाचिन को हथियाना, जो 1984 से भारतीय सेना के नियंत्रण में है। तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल वेद प्रकाश मलिक ने अपनी पुस्तक कारगिल-एक अभूतपूर्व विजय में लिखा है कि पाकिस्तानी सेना की घुसपैठ का एक प्रमुख कारण और सैन्य उद्देश्य सियाचिन ग्लेशियर पर फिर से कब्जा जमाना था।

Wednesday, July 24, 2019

लाखों बेटियों की प्रेरणा हैं हिमा और दुती


हिमा दास और दुती (या द्युति) चंद दो एकदम साधारण घरों से निकली लड़कियाँ हैं, पर उनकी उपलब्धियाँ असाधारण हैं. दोनों की चर्चा इन दिनों खेल के मैदान में है. हिमा दास भारत की पहली एथलीट हैं, जिन्होंने आईएएएफ की अंडर 20 प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीता है. हाल में यूरोप की प्रतियोगिताओं में लगातार पाँच स्वर्ण पदक जीतकर वे खबरों में हैं. दुती चंद ने वर्ल्ड यूनिवर्सिटी गेम्स में स्वर्ण पदक जीता. हिमा 400 और 200 मीटर में दौड़ती हैं और दुती चंद 100 और 200 मीटर में.
छोटी दूरी की ये रेस बहुत मुश्किल मानी जाती हैं और इनके खास तरह की ट्रेनिंग और शारीरिक गठन की दरकार होती है. एथलेटिक्स के मैदान में हरेक प्रतियोगिता का अपना महत्व होता है. छोटी रेस की अपनी जरूरत है और लम्बी रेस की अपनी. इतना ही नहीं, 100 मीटर 400 मीटर की तकनीक भी अलग है. दोनों खिलाड़ी रिले टीम की सदस्य के रूप में अपनी विशेषज्ञता से बाहर जाकर भी दौड़ती हैं, ताकि देश को पदक मिले.
दोनों उदीयमान खिलाड़ी हैं और उनसे देश को काफी उम्मीदें हैं. जो बात महत्वपूर्ण है वह यह कि दोनों कई तरह की परेशानियों से लड़ते हुए आगे बढ़ी हैं. दुति चंद ने खेल के मैदान के अलावा अंतरराष्ट्रीय खेल अदालत में जो लड़ाई लड़ी, वह महत्वपूर्ण है. हिमा ने असम में धान के खेतों में प्रैक्टिस करके खुद को निखारा. दुति चंद ने उड़ीसा के ग्रामीण इलाकों में. उनका परिवार गरीबी की रेखा के नीचे परिवार है. दोनों भारत की स्त्री-शक्ति को रेखांकित करती हैं और बदलते भारत की कहानी भी कहती हैं. खेल के मैदान में भारतीय लड़कियों की उपलब्धि के साथ-साथ अक्सर यह बात पीछे रह जाती है कि वे कितने किस्म की विपरीत परिस्थितियों का सामना करके सामने आती हैं.

Tuesday, July 23, 2019

प्रकृति को मत कोसो, प्रबंधकों से पूछो


असम और बिहार के काफी बड़े हिस्से में बाढ़ आई हुई है। बिहार के 12 जिलों के 102 प्रखंडों में बाढ़ का पानी फैला हुआ है, जिससे 66 लाख से ज्यादा की जनसंख्या प्रभावित है। इस साल बारिश देर से हुई है, जिसकी वजह से बाढ़ की खबरें कुछ देर से मिल रही हैं, वर्ना ये खबरें हर साल की हैं। कुछ दिन पहले सूखे की खबरें थीं, बल्कि आज भी हैं। कुछ दिन पहले मुम्बई शहर के लोग गर्मी से परेशान थे। मना रहे थे कि बारिश जल्द से जल्द हो। और जब हुई, तो शहर पानी में डूब गया।
एक टीवी चैनल दिल्ली की खबर दिखा रहा था, जिसमें एक ट्रैक्टर वाला 10-10 रुपये सवारी के रेट से पानी से भरी सड़क पार करा रहा था। देश की राजधानी और कोसी की बाढ़ के दर्द अलग-अलग हैं, पर दर्द है जो खत्म होकर नहीं दे रहा। इस साल समुद्र के किनारे बसे चेन्नई शहर में पीने का पानी खत्म हो गया। स्पेशल ट्रेन से वहाँ पानी भेजा गया। 2015 में वहाँ भारी वर्ष के कारण पूरा शहर पानी में डूब गया था। इस साल गर्मी वहाँ की सवा करोड़ आबादी को पानी का महत्व समझा गई।

Sunday, July 21, 2019

कर्नाटक में गुब्बारा फूटने की घड़ी


कर्नाटक में अब धैर्य की प्रतीक्षा है। सत्तारूढ़ गठबंधन के अंतर्विरोध बढ़ते जा रहे हैं और गुब्बारा किसी भी समय फूट सकता है। पर इस दौरान कुछ सांविधानिक प्रश्नों को उत्तर भी मिलेंगे। बड़ा सवाल दल-बदल कानून को लेकर है, जो अंततः अब और ज्यादा स्पष्ट होगा। यह काम सुप्रीम कोर्ट में ही होगा, पर उसके पहले राजनीतिक अंतर्विरोध खुलेंगे। चुनाव-पूर्व और चुनावोत्तर गठबंधनों की उपादेयता पर भी बातें होंगी। प्रतिनिधि सदनों में सदस्यों की भूमिका राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के रूप में है। यह भूमिका बनी रहेगी, पर सवाल यह तो उठेगा कि दो राजनीतिक दल जो जनता के सामने वोट माँगने गए, तब एक-दूसरे के विरोधी थे। वे अपना विरोध मौका पाते ही कैसे भुला देते हैं?
सन 2006 में जब मधु कोड़ा झारखंड के मुख्यमंत्री बने थे, तबसे यह सवाल खड़ा है कि जनादेश की व्याख्या किस तरह से होगी? यही सवाल अब कर्नाटक में है कि 225 के सदन में 37 सदस्यों का नेता मुख्यमंत्री कैसे बन सकता है? जो लोग इस वक्त बागी विधायकों को लेकर नैतिकता के सवाल उठा रहे हैं उन्हें यह भी देखना चाहिए कि राजनीतिक नैतिकता अंतर्विरोधी है। पिछले साल मई के महीने में जब कांग्रेस-जेडीएस सरकार बन रही थी, तब प्रगतिशील विश्लेषक उसे साम्प्रदायिकता के खिलाफ वैचारिक लड़ाई के रूप में देख रहे थे। वे नहीं देख पा रहे थे कि राजनीतिक सत्ता अपने आप में बड़ा प्रलोभन है। उसे किसी भी तरीके से हथियाने का नाम विचारधारा है।