Friday, June 3, 2016

कई पहेलियों का हल निकालना होगा राहुल को

कांग्रेस पार्टी की जिम्मेदारी अब राहुल गांधी के कंधों पर पूरी तरह आने वाली है. एक तरह से यह मौका है जब राहुल अपनी काबिलीयत साबित कर सकते हैं. पार्टी लगातार गिरावट ढलान पर है. वे इस गिरावट को रोकने में कामयाब हुए तो उनकी कामयाबी होगी. वे कामयाब हों या न हों, यह बदलाव होना ही था. फिलहाल इससे दो-तीन बातें होंगी. सबसे बड़ी बात कि अनिश्चय खत्म होगा. जनवरी 2013 के जयपुर चिंतन शिविर में उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया था, तब यह बात साफ थी कि वे वास्तविक अध्यक्ष हैं. पर व्यावहारिक रूप से पार्टी के दो नेता हो गए. उसके कारण पैदा होने वाला भ्रम अब खत्म हो जाएगा.

Tuesday, May 31, 2016

पत्रकारिता की आत्मा व्यवस्था-विरोधी होगी, अखबार भले न हों

हिन्दी अख़बार के 190 साल पूरे हो गए. हर साल हम हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाकर रस्म अदा करते हैं. हमें पता है कि कानपुर से कोलकाता गए किन्हीं पं. जुगल किशोर शुक्ल ने उदंत मार्तंड अख़बार शुरू किया था. यह अख़बार बंद क्यों हुआ, उसके बाद के अख़बार किस तरह निकले, इन अखबारों की और पत्रकारों की भूमिका जीवन और समाज में क्या थी, इस बातों पर अध्ययन नहीं हुए. आजादी के पहले और आजादी के बाद उनकी भूमिका में क्या बदलाव आया, इसपर भी रोशनी नहीं पड़ी. आज ऐसे शोधों की जरूरत है, क्योंकि पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण दौर खत्म होने के बाद एक और महत्वपूर्ण दौर शुरू हो रहा है.

Monday, May 30, 2016

कश्मीर की इस तपिश के पीछे कोई योजना है

कश्मीर में कई साल बाद हिंसक गतिविधियाँ अचानक बढ़ीं हैं. सोपोर, हंडवारा, बारामूला, बांदीपुरा और पट्टन से असंतोष की खबरें मिल रहीं है. खबरें यह भी हैं कि नौजवान और किशोर अलगाववादी युनाइटेड जेहाद काउंसिल के नियंत्रण से बाहर हो रहे हैं. सुरक्षा दलों के साथ मुठभेड़ में मारे गए अलगाववादियों की लाशों के जुलूस निकालने का चलन बढ़ा है. इस बेचैनी को सोशल मीडिया में की जा रही टिप्पणियाँ और ज्यादा बढ़ाया है. नौजवानों को सड़कों पर उतारने के बाद सीमा पार से आए तत्व भीड़ के बीच घुसकर हिंसक गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं.

Sunday, May 29, 2016

हमारे आर्थिक विकास पर टिका है दुनिया का विकास

जिस समय मोदी सरकार के पहले दो साल का समारोह मनाया जा रहा है दुनिया आर्थिक मंदी के खतरे का सामना कर रही है। वैश्विक अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी होने और खासतौर से चीन में गाड़ी का पहिया उल्टा चलने के आसार हैं और अब दुनिया हमारी तरफ देख रही है। हाल में अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की प्रबंध निदेशक क्रिस्टीन लैगार्ड ने इस दौर में भारत को रोशनी की किरण बताया है। उन्होंने कहा कि यह देश चालू वित्त वर्ष में 7.2 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करेगा और 2019 तक इसकी जीडीपी जापान और जर्मनी की संयुक्त अर्थव्यवस्था से ज्यादा हो जाएगी।

Thursday, May 26, 2016

मोदी सरकार @दो साल


 Prime Minister Narendra Modi and Bharatiya Janata Party President Amit Shah. Credit: Reuters.
मोदी सरकार के दो साल पूरे होने पर राजनीति, प्रशासन और अर्थ-व्यवस्था को एकसाथ आँका जाएगा। राजनीति का मतलब केवल चुनावों में प्रदर्शन तक सीमित नहीं है। मोदी सरकार की पिछले दो साल में सबसे बड़ी विफलता है अल्पसंख्यकों के मन में बैठा भय। एक बड़ा तबका मानता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का छिपा एजेंडा सामने आ रहा है। मुसलमान वोटर मोदी के नेतृत्व से नाराज है। पार्टी नेतृत्व ने स्थिति को सुधारने की कोशिश भी नहीं की है। बेशक बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद से जुड़ी पार्टी है। उसे मुसलमानों का एकमुश्त समर्थन मिलने की उम्मीद करनी भी नहीं है, पर देश की प्रशासनिक व्यवस्था हाथ में लेने के बाद उसकी जिम्मेदारी है कि वह मुसलमानों के मन में बैठे डर को दूर करे। 

मोदी सरकार ने 'बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ', 'स्वच्छ भारत', 'मेक इन इंडिया' और 'सबका साथ-सबका विकास' जैसे नारों को लेकप्रिय बनाया। हमें देश को इन भावनाओं से जोड़ने की जरूरत है और इन बातों में नारों की भूमिका होती है। गांधी से लेकर माओ जे दुंग ने अतीत में नारों की मदद से ही अपने सामूहिक अभियान छेड़े थे। पर नारों को जमीन पर व्यावहारिक रूप से उतरना भी चाहिए। वे केवल प्रचारात्मक नारे नहीं हो सकते। जनता की उनमें भागीदारी होनी चाहिए।

मोदी सरकार बनने के बाद केन्द्र सरकार के सचिवालय में काम बढ़ा है। तमाम मंत्री अपना पूरा समय दफ्तरों में लगा रहे हैं। विदेश, बिजली, रेलवे, रक्षा, विदेश व्यापार, उद्योग, परिवहन और इसी तरह के कुछ दूसरे मंत्रालयों में काफी अच्छा काम हुआ है। बड़े नीतिगत बदलाव भी हुए हैं। संयोग से वैश्विक अर्थ-व्यवस्था के लिए खराब समय चल रहा है। इसलिए सबसे बड़ी चुनौती वित्त मंत्रालय के सामने है। आर्थिक उदारीकरण का काम धीमी गति से चल रहा है। यह गति यूपीए के शासन में भी धीमी थी। देश की राजनीतिक ताकतें उदारीकरण का मतलब अपने-अपने तरीके से निकाल रही हैं। मोदी सरकार और उससे पहले मनमोहन सरकार की कोशिश देश में पूँजी निवेश के माहौल को बेहतर बनाने की थी। मनमोहन सरकार को भी बीजेपी के अलावा अपनी ही पार्टी के विरोध का सामना करना होता था।