दिल्ली में प्रदूषण रोकने के लिए सम और विषम संख्या की कारों का फॉर्मूला एक माने में बेहद सफल नजर आता है, भले ही वह अपने मूल उद्देश्य में विफल रहा हो। अब तक की जानकारी के अनुसार कारों पर पाबंदी की इस योजना से प्रदूषण को रोकने में किसी प्रकार की नाटकीय सफलता नहीं मिली है। बेशक कुछ प्रदूषण कम हुआ है, पर वह इतना कम नहीं हुआ कि इसे स्थायी समाधान मान लें। पर इस अभियान को जिस किस्म की सफलता मिली है, वह जरूर अविश्वसनीय है। इसे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि देश की जनता के भीतर अपनी समस्याओं के समाधान को लेकर जबर्दस्त ललक है। वह बड़े फैसले खुद नहीं कर सकती। उसके लिए उसे सरकारों का मुँह देखना पड़ता है, पर जब उसे किसी फैसले का महत्व समझ में आ जाता है तब वह उसे सफल बनाने में पीछे नहीं रहती।
Thursday, January 7, 2016
Monday, January 4, 2016
पठानकोट के बाद
पठानकोट पर हमले के बाद देश के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की प्रतिक्रिया बेहद आक्रामक रही है, वहीं अखबारों की प्रतिक्रिया संतुलित है। आज के इंडियन एक्सप्रेस का सम्पादकीय है कि बातचीत जारी रहनी चाहिए। बात करना समर्पण नहीं है। अलबत्ता अखबार की सलाह है कि हमें काउंटर टैररिज्म सामर्थ्य को सुधारना चाहिए। आज के हिन्दू, टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स ने भी तकरीबन यही राय व्यक्त की है। पाकिस्तान के अखबार डॉन का भी यही कहना है। डॉन का यह भी कहना है कि सन 2008 के मुम्बई हमले को लेकर पाकिस्तान की ओर से जो कमी रह गई है उसका नुकसान उसे होगा।
Indian Express
After Pathankot
Dialogue with Pakistan must go on. But India urgently needs counter-terrorism capacity-building.
Exactly a week after Prime Minister Narendra Modi landed in Lahore, hoping to “turn the course of history”, his ambitious project is being tested by fire. This weekend’s terrorist attack on Pathankot was no surprise; indeed, many in India’s intelligence community had predicted it. Each past effort at peace, after all, has provoked similar strikes. It is too easy, though, to attribute the strike to unnamed spoilers. The more complex truth is that while Pakistan’s all-powerful army seeks to avert a military crisis that would drain its energies at a time of grave internal turmoil, it does not seek normalisation. Pakistan’s army chief, General Raheel Sharif, has made it clear that he will not accept the status-quo on Kashmir. The strike on Pathankot, carried out by the Inter-Services Intelligence’s old client, the Jaish-e-Muhammad, serves a very specific purpose. It signals to Indian policymakers that the Pakistan army can inflict pain, but at a threshold below that which makes it worthwhile for New Delhi to retaliate. Barring reflexive hawks, after all, no one would argue that it makes sense for Delhi to risk even limited conflict after the strike on Pathankot.
Sunday, January 3, 2016
अभी कई तीखे मोड़ आएंगे राष्ट्रीय राजनीति में
भारतीय राज-व्यवस्था, प्रशासन और
राजनीति के लिए यह साल बड़ी चुनौतियों से भरा है। उम्मीद है कि इस साल देश की
अर्थ-व्यवस्था की संवृद्धि आठ फीसदी की संख्या को या तो छू लेगी या उस दिशा में
बढ़ जाएगी। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि संसद के बजट सत्र में क्या होता है। पिछले
दो सत्रों की विफलता के बाद यह सवाल काफी बड़े रूप में सामने आ रहा है कि भविष्य
में संसद की भूमिका क्या होने वाली है। देश के तकरीबन डेढ़ करोड़ नए नौजवानों को
हर साल नए रोजगारों की जरूरत है। इसके लिए लगातार पूँजी निवेश की जरूरत होगी साथ
ही आर्थिक-प्रशासनिक व्यवस्था को सुधारना होगा। व्यवस्था की डोर राजनीति के हाथों
में है। दुर्भाग्य से राजनीति की डोर संकीर्ण ताकतों के हाथ में रह-रहकर चली जाती
है।
Thursday, December 31, 2015
ऐसी भी कोई शाम है, जिसकी सहर न हो
सुबह और शाम के रूपक हमें आत्म निरीक्षण का मौका देते हैं. गुजरते साल की शाम ‘क्या खोया, क्या पाया’ का हिसाब लगाती है और अगली सुबह उम्मीदों की किरणें लेकर आती है. पिछले साल दिसम्बर के अंत में यानी इन्हीं दिनों मुम्बई के कुछ नौजवानों ने तय किया कि कुछ अच्छा काम किया जाए. उन्होंने किंग्स सर्किल रेलवे स्टेशन को साफ-सुथरा बनाने का फैसला किया. शुरुआत एक गंदे किनारे से की. देखते ही देखते इस टीम का आकार बढ़ता चला गया. इस टीम ने इस साल इस स्टेशन की शक्ल बदल कर रख दी. उन्होंने न केवल स्टेशन की सफाई की, बल्कि दीवारों पर चित्रकारी की, रोशनी की और 100 पेड़ लगाए. गौरांग दमानी के नेतृत्व में वॉलंटियरों की इस टीम के सदस्यों की संख्या 500 के ऊपर पहुँच चुकी है.
Thursday, December 24, 2015
संसद केवल शोर का मंच नहीं है
संसद के शीत सत्र को पूरी तरह धुला हुआ
नहीं मानें तो बहुत उपयोगी भी नहीं कहा जा सकता. पिछले कुछ वर्षों से हमारी संसद
राजनीतिक रोष और आक्रोश व्यक्त करने का मंच बनती जा रही है. वह भी जरूरी है, पर वह
मूल कर्म नहीं है. शीत सत्र में पहले दो
दिन गम्भीर विमर्श देखने को मिला, जब संविधान दिवस से जुड़ी चर्चा हुई. अच्छी-अच्छी
बातें करने के बाद के शेष सत्र अपने ढर्रे पर वापस लौट आया. सत्र के समापन के एक
दिन पहले जुवेनाइल जस्टिस विधेयक के पास होने से यह भी स्पष्ट हुआ कि हमारी
राजनीति माहौल के अनुसार खुद को बदलती है.
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