Monday, December 8, 2014

योजना आयोग : काम बदलें या नाम?

कांग्रेसी 'योजना' बनाम भाजपाई 'आयोग'

  • 1 घंटा पहले
भारत संघ के राज्यों के मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ.
भारत संघ के राज्यों के मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ.
रविवार को दिल्ली में हुई मुख्यमंत्रियों की बैठक में योजना आयोग को लेकर मचे घमासान और राजनीति का पटाक्षेप नहीं हुआ.
बल्कि लगता है कि इसे लेकर राजनीति का नया दौर शुरू होगा.
यह संस्था जवाहरलाल नेहरू ने शुरू ज़रूर की थी लेकिन इसके रूपांतरण की बुनियाद साल 1991 में बनी कांग्रेस सरकार ने ही डाली थी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व्यक्ति और विचारक के रूप में नेहरूवादी विरोधी के रूप में उभरे हैं.

कांग्रेस का मोह

राहुल गांधी, सोनिया गांधी
उन्होंने इस साल लाल किले की प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस के अपने पहले संदेश में योजना आयोग को समाप्त करने की घोषणा करके व्यवस्था-परिवर्तन के साथ-साथ प्रतीक रूप में अपने नेहरू विरोध को भी रेखांकित किया था.
लगता यह भी है कि कांग्रेस को इसके नाम से मोह है.
वह शायद चाहती है कि इसका काम बदल जाए, पर नाम न बदले. दूसरी ओर सारी कवायद नाम की लगती है. काम घूम-फिरकर फिर वैसा ही रहेगा.

Sunday, December 7, 2014

नवाज़ शरीफ का लश्कर कार्ड

कश्मीर में पाकिस्तान समर्थक आतंकवादियों के ताबड़-तोड़ फिदायी हमलों को लेकर न तो विस्मित होने की जरूरत है और न घबराने की। हमलों का उद्देश्य अपनी उपस्थिति को दर्ज कराना है।  विधानसभा चुनाव के तीसरे दौर और नरेंद्र मोदी की कश्मीर यात्रा के मद्देनज़र अपनी ओर ध्यान खींचना। आत्मघाती हमलों का पूर्वानुमान मुश्किल होता है और सुरक्षा की तमाम दीवारों के बावजूद एक बार हमला हो जाए तो उस पर काबू पाने में समय लगता है। हर साल प्रायः इन्हीं दिनों ज्यादातर हमले होते हैं। इसके बाद बर्फ पड़ने लगेगी और सीमा के आर-पार आना-जाना मुश्किल होगा। ध्यान देने वाली बात यह है कि जिस वक्त यह हमला चल रहा था लगभग उसी वक्त लाहौर के मीनार-ए-पाकिस्तान मैदान में जमात-द-दावा उर्फ लश्करे तैयबा का दो दिन का सम्मेलन चल रहा था और उसके अमीर खुले आम घोषणा कर रहे थे कि मुजाहिदीन को कश्मीर में घुसकर उसे आजाद कराने का हक़ है।

Friday, December 5, 2014

सहमे विपक्ष को साध्वी का सहारा

डूबते विपक्ष के लिए साध्वी बनी तिनका

  • 2 घंटे पहले
साध्वी निरंजन ज्योति
भारतीय जनता पार्टी सरकार के छह महीने बीत जाने के बाद भी सहमे-सहमे विपक्ष को केंद्रीय मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति के बयान से तिनके जैसा सहारा मिला है.
सोलहवीं लोकसभा के शीतकालीन सत्र में पहली बार एकताबद्ध विपक्षी राजनीति गरमाती नज़र आ रही है. ऐसे में साध्वी का बयान पार्टी के लिए बेहद नाज़ुक मोड़ पर सेल्फ़ गोल जैसा घातक साबित हुआ है.
पिछले छह महीने से नरेंद्र मोदी अपने समर्थकों को आश्वस्त और विरोधियों को परास्त करने में सफल रहे हैं. उनके बड़े से बड़े आलोचक भी मान रहे थे कि येन-केन प्रकारेण नरेंद्र मोदी हवा को अपने पक्ष में बहाने में कामयाब हैं.

हनीमून की समाप्ति

मोदी मंत्रमंडल
मोदी के आलोचक मानते हैं कि यह हनीमून है जो लम्बा खिंच गया है. साध्वी प्रकरण की वजह से यह हनीमून ख़त्म नहीं हो जाएगा और न ही मोदी की हवा निकल जाएगी.
अलबत्ता इससे भाजपा के वैचारिक अंतर्विरोध खुलेंगे. इसके अलावा संसद में हंगामों का श्रीगणेश हुआ. दोनों सदनों में तीन दिन से गहमागहमी है.
गुरुवार को राज्यसभा को पूरे दिन के लिए स्थगित करना पड़ा. यानी विपक्ष को एक होने और वार करने का मौका मिला है.

रामलला से दूर जाती भाजपा


राम मंदिर के मुद्दे से भाजपा ने कब किनाराकशी शुरू की यह कहना मुश्किल है, पर इतना साफ है कि नरेंद्र मोदी की सरकार पार्टी के हिंदुत्व को सिर-माथे पर लेकर नहीं चल रही है। सन 1992 के बाद 6 दिसम्बर की तारीख कई बार आई और गई। भाजपा ने इस मसले पर बात करना ही बंद कर दिया है। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद से केंद्र में यह तीसरा सरकार है, जिसमें भारतीय जनता पार्टी की प्रभावी भूमिका है। 1998 और 1999 में बनी सरकारें एनडीए की थीं। मान लिया उनमें सहयोगी दलों की सहमति मंदिर बनाने को लेकर नहीं थी। पर इस बार भाजपा अपने बूते बहुमत हासिल करके आई है। फिर भी वह राम मंदिर पर मौन है। क्या वजह है कि यह मसला भाजपा की राजनीति में टॉप से बॉटम पर आ गया है?

Thursday, December 4, 2014

छह महीने में उम्मीदें बढ़ीं

नरेंद्र मोदी सामान्य तरीके से सत्ता हासिल करके नहीं आए हैं। उन्होंने दिल्ली में प्रधानमंत्री बनने के पहले अपनी पार्टी के भीतर एक प्रकार की लड़ाई लड़ी थी। उनकी तुलना उस योद्धा से की जा सकती है जिसका अस्तित्व लगातार लड़ते रहने पर आश्रित हो। इस हफ्ते जब 26 मई को उनकी सरकार के छह महीने पूरे हुए तो उसके तीन दिन पहले राहुल गांधी ने झारखंड उपचुनावों में प्रचार के दौरान मोदी पर हमला बोलते हुए पूछा, क्या आपके अच्छे दिन आ गए? कहां है अच्छे दिन? छह महीने नहीं सौ दिन नहीं 26 मई को ही लोग पूछ रहे थे कि क्या आ गए अच्छे दिन? मोदी ने उम्मीदें जगाईं, अपेक्षाएं तैयार कीं और जीत हासिल करने के लिए अपने विरोधियों पर करारे वार किए, इसलिए उनपर वार होना अस्वाभाविक नहीं। नई सरकार की उपलब्धियों पर पाँच साल बाद ही बात होनी चाहिए, पर कम से कम समय की बात करें तो अगले बजट को एक आधार रेखा माना जाना चाहिए। वह भी पर्याप्त इसलिए नहीं है, क्योंकि सरकार के पूरे एक वित्तीय वर्ष का लेखा-जोखा तबतक भी तैयार नहीं हो पाएगा। फिर भी मोटे तौर पर मोदी के छह महीनों की पड़ताल की जाए तो कुछ बातें सामने आती हैं वे इस प्रकार हैः-

काम करने की संस्कृति
नेताओं और मंत्रियों के वक्तव्यों पर रोक
कुछ बड़े फैसले
वैश्विक मंच पर ऊर्जावान भारत का उदय