कश्मीर में
पाकिस्तान समर्थक आतंकवादियों के ताबड़-तोड़ फिदायी हमलों को लेकर न तो विस्मित
होने की जरूरत है और न घबराने की। हमलों का उद्देश्य अपनी उपस्थिति को दर्ज कराना
है। विधानसभा चुनाव के तीसरे दौर और
नरेंद्र मोदी की कश्मीर यात्रा के मद्देनज़र अपनी ओर ध्यान खींचना। आत्मघाती हमलों
का पूर्वानुमान मुश्किल होता है और सुरक्षा की तमाम दीवारों के बावजूद एक बार हमला
हो जाए तो उस पर काबू पाने में समय लगता है। हर साल प्रायः इन्हीं दिनों ज्यादातर
हमले होते हैं। इसके बाद बर्फ पड़ने लगेगी और सीमा के आर-पार आना-जाना मुश्किल
होगा। ध्यान देने वाली बात यह है कि जिस वक्त यह हमला चल रहा था लगभग उसी वक्त
लाहौर के मीनार-ए-पाकिस्तान मैदान में जमात-द-दावा उर्फ लश्करे तैयबा का दो दिन का
सम्मेलन चल रहा था और उसके अमीर खुले आम घोषणा कर रहे थे कि मुजाहिदीन को कश्मीर
में घुसकर उसे आजाद कराने का हक़ है।
क्या नवाज शरीफ
ने अबकी बार लश्करे तैयबा का कार्ड खेला है? 26/11 को हुए मुंबई
हमले के 6 साल बीत चुके हैं, पर इन हमलों का मुख्य आरोपी हाफिज़ सईद खुले आम घूम रहा है। इस संगठन को नवाज़ शरीफ का
शुरू से आशीर्वाद प्राप्त है। शुरु के दिनों में लश्कर तालिबानियों के साथ
अफगानिस्तान में सक्रिय रहा। फिर 1990 के बाद जब सोवियत सैनिक अफगानिस्तान से निकल
गए, तो हाफिज़ सईद ने अपने जेहादी मिशन को भारत के कश्मीर की
तरफ़ मोड़ दिया। कश्मीर में शुरुआती पाकिस्तानी रणनीति सीधे-सीधे सेना की मदद से
कब्ज़ा करने की थी। सन 1948, 1965 और 1999 की लड़ाइयों में उसे विफलता मिली।
नब्बे के दशक में
पाकिस्तान ने ‘नॉन-स्टेट एक्टर’ यानी जेहादियों
का सहारा लेना शुरू किया। 13 दिसंबर 2001-संसद पर हमला, 28 अक्टूबर 2005-इंडियन
इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बेंगलूर पर हमला, 29 अक्टूबर 2005-दिल्ली में
सीरियल ब्लास्ट, 7 मार्च 2006- वाराणसी में हमला,
11 जुलाई 2006- मुंबई की लोकल ट्रेन में सीरियल ब्लास्ट, अगस्त
2007-हैदराबाद के पार्क में धमाका और 26 नवंबर 2008 को मुम्बई हमला। इनमें
प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लश्कर का हाथ था। लेकिन 26-11 मुंबई हमले पर पाकिस्तान
की तरफ़ से, आतंकवाद निरोधक अदालत में दायर की गई चार्जशीट में भारतीय
सबूतों का मज़ाक उड़ाते हुए हाफिज़ सईद का नाम तक नहीं लिखा गया। इसमें लश्कर
कमांडर ज़की उर रहमान लखवी का नाम दिया गया, पर वह मुकदमा भी जस का तस है।
हाफिज सईद ने
सामाजिक और धार्मिक नेता का चोला ओढ़ रखा है। नवाज़ शरीफ उसे संत साबित करते हैं।
पाकिस्तान सरकार इस बात को खुले आम नहीं कहती, पर 1947 से आज तक इसी नीति पर चल
रही है। दूसरी और सीमा पर पिछले कुछ महीनों से चल रही जबर्दस्त गोलाबारी और
राजनेताओं के बीच का ‘अबोला’ अजब असमंजस पैदा कर रहा है। इस असमंजस के कारण कुछ सवाल
खड़े हुए हैं:-
· भारत की रणनीति थी कि पाकिस्तान को बातचीत में शामिल करके और विश्वास बढ़ाने वाले कदम उठाकर शत्रुता का माहौल कम होगा और धीरे-धीरे सद्भावना का माहौल बनेगा। पर अनुभव यह रहा है कि जब भी सद्भावना का माहौल बनाने की कोशिश की जाती है कहीं न कहीं से कोई उत्तेजक कार्रवाई हो जाती है। भारत को क्या अब पाकिस्तान से बात करने के बजाय उसकी पूरी तरह उपेक्षा का रुख अपनाना चाहिए?
· भारत में अब यह कहा जा रहा है कि पाकिस्तान के साथ कड़ाई से पेश आने की जरूरत है। इस कड़ाई का मतलब क्या है? काठमांडू में सात देशों के शासनाध्यक्षों ने एक-दूसरे से मुलाकात की। केवल भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों ने नहीं की। पर सम्मेलन के अंत में हाथ मिला लिए गए। इस प्रकार की प्रतीकात्मक हाथ-मिलाई या नजर मिलाई होने या न होने का कोई मतलब होता भी है नहीं?
· पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के सलाहकार सरताज़ अजीज ने इसी गुरुवार को कहा कि दोनों देशों के बीच निकट भविष्य में बातचीत होने की कोई सम्भावना नहीं है। फिदायी हमलों की पृष्ठभूमि में बात होगी भी तो क्या होगा? खासतौर से तब जब अंदेशा यह है कि कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों का नया दौर शुरू कराने की कोशिश है।
· हाफिज़ सईद की ताज़ा चेतावनी के पीछे क्या पाकिस्तान सरकार और सेना की कोई योजना है? खुफिया संगठनों का कहना है कि कश्मीर में लश्करे तैयबा आतंकवाद को पुनर्जीवित करना चाहता है। इसमें दो राय नहीं कि कश्मीर में एक साथ चार जगहों पर फिदायी हमले करने वाले लोग लश्करे तैयबा ने भेजे थे।
· कहा जा रहा है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के बाद पाकिस्तानी आतंकवादी कश्मीर का रुख करेंगे। तब क्या हमें कश्मीर में एक नए खूनी खेल के लिए तैयार रहना चाहिए? क्या यह कोशिश विधानसभा चुनाव में ऊँचे बेहतर मतदान के प्रति नाराज़गी व्यक्त करने के लिए है? क्या आतंकवादी संगठन लड़ाई हार रहे हैं?
वैश्विक अर्थ-व्यवस्था फिर से सक्रिय हो रही है। जी-20 देशों ने दुनिया की अर्थ-व्यवस्था में जान डालने के लिए 10 सूत्री कार्यक्रम तैयार किया है। अगले पांच वर्षों में आर्थिक विकास की दर को गति प्रदान करने के प्रयास किए जा रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और आर्थिक विकास एवं सहयोग संगठन के आकलन के अनुसार प्रस्तावित उपाय अर्थव्यवस्था की विकास दर को अतिरिक्त 1.8% की वृद्धि प्रदान करेंगे। इसमें दक्षिण एशिया की जबर्दस्त भूमिका हो सकती है, क्योंकि विकास की अपार क्षमता इस इलाके में है। ऐसे में क्या कश्मीर में आतंक की लहर इस इलाके के विकास पर असर नहीं डालेगी? या फिर यह आतंकवाद की बुझती लौ की अंतिम फड़-फड़ाहट है?
पाकिस्तान के लोग
क्या कश्मीर के नाम पर अनंत काल तक भरमाते जाए रहेंगे? वहाँ की सरकार जनता की मुसीबतों के कारण उभरे जनांदोलनों
से घिरती जा रही है। इन आंदोलनों की तरफ से जनता का ध्यान हटाने के लिए सरकारी
संरक्षण में लश्करे तैयबा का तथाकथित इश्तिमाह (सभा) आयोजित कराया गया। एक प्रकार
से यह आतंकवाद को मुख्य धारा में लाने का काम हुआ है। यही काम अफगानिस्तान पर रूसी
कब्जे के बाद किया गया था। पाकिस्तान अब अपने ही अंतर्विरोधों का शिकार है। वहाँ
की सरकार कहती है कि हाफिज सईद के खिलाफ कोई सबूत उसके पास नहीं है। जबकि भारत, अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और
संयुक्त राष्ट्र ने उनके संगठन पर रोक लगा रखी है। उसके अमीर हाफिज सईद को संयुक्त
राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने आतंकवादी घोषित कर रखा है। आतंकवादी घोषित होने के
बावजूद वह पाकिस्तान में आजादी के साथ घूमता है। जब तक उसका ऐसा सम्मान वहाँ है तब
तक भारत के साथ शांति-वार्ता सम्भव नहीं।
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