Friday, May 20, 2011

बुनियाद के पत्थरों को डरना क्या



चुनाव परिणाम आते ही पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि करके केन्द्र सरकार ने राजनैतिक नासमझी का परिचय दिया है। पेट्रोल कम्पनियों के बढ़ते घाटे की बात समझ में आती है, पर इतने दिन दाम बढ़ाए बगैर काम चल गया तो क्या कुछ दिन और रुका नहीं जा सकता था? इसका राजनैतिक फलितार्थ क्या है? यही कि वामपंथी पार्टियाँ इसका विरोध करतीं थीं। वे हार गईं। अब मार्केट फोर्सेज़ हावी हो जाएंगी।  इधर दिल्ली में मदर डेयरी ने दूध की कीमतों में दो रुपए प्रति लिटर की बढ़ोत्तरी कर दी। उसके पन्द्रह दिन पहले अमूल ने कीमतें बढ़ाईं थीं। इस साल खरबूजे 30 रुपए, आम पचास रुपए, तरबूज पन्द्रह रुपए और सेब सौ रुपए के ऊपर चल रहे हैं। ककड़ी और खीरे भी गरीबों की पहुँच से बाहर हैं।

Tuesday, May 17, 2011

टॉप गोज़ टु बॉटम

अखबार के मास्टहैड का इस्तेमाल अब इतने तरीकों से होने लगा है कि कुछ लोगों के लिए यह दिलचस्पी का विषय नहीं रह गया है। फिर भी 14 मई के टेलीग्राफ के पहले सफे ने ध्यान खींचा है। इसमें मास्टहैड अखबार की छत से उतर कर फर्श पर चला गया है।

अखबार के ब्रैंड बनने पर तमाम बातें हैं। पत्रकारों और सम्पादकों, खबरों और विश्लेषणों से ज्यादा महत्वपूर्ण है ब्रैंड। बाकी उत्पादों की बात करें तो ब्रैंड माने प्रोडक्ट की गुणवत्ता की मोहर। अखबार इस माने में हमेशा ब्रैंड थे। उन्हें पढ़ा ही इसीलिए जाता था कि उनकी पहचान थी। लेफ्ट या राइट। कंज़र्वेटिव या लिबरल। कांग्रेसी या संघी। दृष्टिकोण या पॉइंट ऑफ व्यू, खबरों को पेश करने का सलीका, तरीका वगैरह-वगैरह। एक हिसाब से देखें तो अखबारों ने ही सारी दुनिया को ब्रैंड का महत्व समझाया। दुनिया भर की खबरों को एक पर्चे पर छाप दो तो वह अखबार नहीं बनता। सिर्फ मास्टहैड लगा देने से वह अखबार बन जाता है। और इस तरह वह सिर्फ मालिक की ही नहीं पाठक की धरोहर भी होती है। बहरहाल...

हाल में बड़ी संख्या में अखबारों ने अपने मास्टहैड के साथ खेला है। हिन्दी में नवभारत टाइम्स तो लाल रंग में अंग्रेजी के तीन अक्षरों के आधार पर खुद को यंग इंडिया का अखबार घोषित कर चुका है। ऐसे में टेलीग्राफ ने अपने मास्टहैड के मार्फत नई सरकार का स्वागत किया है। अच्छा-बुरा उसके पाठक जानें, पर बाकी अखबार दफ्तरों में कुलबुलाहट ज़रूर होगी कि इसने तो मार लिया मैदान, अब इससे बेहतर क्या करें गुरू।

क्या कोई बता सकता है कि इसका मतलब कुछ अलग सा करने के अलावा और क्या हो सकता है?

Monday, May 16, 2011

आमतौर पर वोटर नाराज़गी का वोट देता है



भारतीय राजनीति के एक्टर, कंडक्टर, दर्शक, श्रोता और समीक्षक लम्बे अर्से से समझने की कोशिश करते रहे हैं कि वोटर क्या देखकर वोट देता है। व्यक्ति महत्वपूर्ण होता है या पार्टी, मुद्दे महत्वपूर्ण होते हैं या नारे। जाति और धर्म महत्वपूर्ण हैं या नीतियाँ। कम्बल, शराब और नोट हमारे लोकतंत्र की ताकत है या खोट हैं? सब कहते हैं कि भारतीय लोकतंत्र पुष्ट, परिपक्व और समझदार है। पर उसकी गहराई में जाएं तो नज़र आएगा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था कुछ घाघ लोगों के जोड़-घटाने पर चलती है। जिसका गणित सही बैठ गया वह बालकनी पर खड़ा होकर जनता की ओर हाथ लहराता है। नीचे खड़ी जनता में आधे से ज्यादा पार्टी कार्यकर्ता होते हैं जिनकी आँखों में नई सरकार के सहारे अपने जीवन का गणित बैठाने के सपने होतें हैं।

Saturday, May 14, 2011

पोल पंडितों की पोल

हर चुनाव में एक्जिट पोल पंडितों की परीक्षा होती है। वे हर बार गलत साबित होते हैं, फिर भी कहीं न कहीं से खुद को सही साबित कर लेते हैं। इस बार भी बंगाल और असम के मामले में प्रायः सभी पोल सही साबित हुए, सबके अनुमान ऊपरनीचे रहे। केरल, तमिलनाडु और पुदुच्चेरी में पोलों की पोल खुली।

एक्जिट पोल को हम मोटे तौर पर देखते हैं। बंगाल यानी टीएमसी+ या वाम मोर्चा प्लस, असम में इतने बड़े अन्य का ब्रेक अप नहीं मिलता। तमिलनाडु में अगर छोटे-छोटे दलों के बारे में पता करेंगे तो पोल काफी गलत साबित होंगे। ज्यादातर पोल अपने निष्कर्षों को साबित करना चाहते हैं। इनके वैज्ञानिक अध्ययन का वैज्ञानिक अध्ययन होना चाहिए। 

इन नतीजों में छिपी हैं कुछ पहेलियाँ



कोलकाता के टेलीग्राफ का पहला पेज
इस चुनाव परिणाम ने पाँच राज्यों में जितने राजनैतिक समाधान दिए हैं उससे ज्यादा पहेलियाँ  बिखेर दी हैं। अब बंगाल, तमिलनाडु और केरल से रोचक खबरों का इंतज़ार कीजिए। जनता बेचैन है। वह बदलाव चाहती है, जहाँ रास्ता नज़र आया वहां सब बदल दिया। जहाँ नज़र नहीं आया वहाँ गहरा असमंजस छोड़ दिया। बंगाल में उसने वाम मोर्चे के चीथड़े उड़ा दिए और केरल में दोनों मोर्चों को म्यूजिकल चेयर खेलने का आदेश दे दिया। बंगाल की जीत से ज्यादा विस्मयकारी है जयललिता की धमाकेदार वापसी। ममता बनर्जी की जीत तो पिछले तीन साल से आसमान पर लिखी थी। पर बुढ़ापे में करुणानिधि की इस गति का सपना एक्ज़िट पोल-पंडितों ने नहीं देखा।

पोस्ट-घोटाला भारत के इस पहले चुनाव का संदेश क्या है? कि भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है। और जनता ने सन 2009 में यूपीए पर जो भरोसा जताया था, वह अब भी कायम है? क्या हाल के सिविल सोसायटी-आंदोलन की जनता ने अनदेखी कर दी? तब फिर तमिलनाडु में जयललिता की जीत को क्या माना जाए? और तमिलनाडु की जनता की भ्रष्टाचार से नाराज़गी है तो जयललिता को जिताने का क्या मतलब है? उनपर क्या कम आरोप हैं?