Friday, May 20, 2011

बुनियाद के पत्थरों को डरना क्या



चुनाव परिणाम आते ही पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि करके केन्द्र सरकार ने राजनैतिक नासमझी का परिचय दिया है। पेट्रोल कम्पनियों के बढ़ते घाटे की बात समझ में आती है, पर इतने दिन दाम बढ़ाए बगैर काम चल गया तो क्या कुछ दिन और रुका नहीं जा सकता था? इसका राजनैतिक फलितार्थ क्या है? यही कि वामपंथी पार्टियाँ इसका विरोध करतीं थीं। वे हार गईं। अब मार्केट फोर्सेज़ हावी हो जाएंगी।  इधर दिल्ली में मदर डेयरी ने दूध की कीमतों में दो रुपए प्रति लिटर की बढ़ोत्तरी कर दी। उसके पन्द्रह दिन पहले अमूल ने कीमतें बढ़ाईं थीं। इस साल खरबूजे 30 रुपए, आम पचास रुपए, तरबूज पन्द्रह रुपए और सेब सौ रुपए के ऊपर चल रहे हैं। ककड़ी और खीरे भी गरीबों की पहुँच से बाहर हैं।
सरकारी सूत्रों की बात मानें तो अभी डीज़ल, मिट्टी तेल और रसोई गैस की कीमतें और बढ़ेगी। पेट्रोल में भी अभी बढ़ोत्तरी सम्भव है। वित्त मंत्रालय के मुख्य सलाहकार कौशिक बसु और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया के अनुसार सब्सिडी का बोझ कम करने के लिए ऐसा करना ज़रूरी है। उनकी बात सही है, पर भारत में पेट्रोल का मायाजाल समझना भी ज़रूरी है। पेट्रोल को 65 रुपए के ऊपर बेचने की नौबत क्यों आ रही है? और क्या वजह है कि पाकिस्तान में हमारे देश के मुकाबले करीब आधी कीमत पर पेट्रोल मिल जाता है? अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में पेट्रोल की जो कीमत आज है वह 2008 में भी थीं। फिर तब और अब में इतना फर्क क्यों? एक सच यह है कि हाल के वर्षों में तेल की कीमतों से ज्यादा टैक्स बढ़ा है। दूसरे टैक्सों से तुलना करें तो पाएंगे कि पेट्रोल की कीमत बढ़ने पर कई चीज़ों की कीमतें बढ़तीं हैं। महंगाई और बढ़ जाती है।
भारत में पेट्रोल की बुनियादी कीमत 30 रुपए प्रति लिटर के आसपास होती है। इसपर 5 रुपए बेसिक कस्टम ड्यूटी, 14.35 रुपए अतिरिक्त कस्टम ड्यूटी और 14.35 रुपए सेंट्रल एक्साइज़ ड्यूटी पड़ती है। इसके बाद एजुकेशन सेस और राज्य सरकारों के टैक्स अलग से हैं। इतनी कीमत होने के बाद भी पेट्रोल कम्पनियाँ घाटे में हैं या सरकार पर सब्सिडी का बोझ है तो इसकी वजह क्या है? क्या ऐसा नहीं लगता कि सरकार सारे टैक्स पेट्रोल में वसूल लेना चाहती है। एक रोचक तथ्य यह भी है कि आम आदमी के इस्तेमाल के पेट्रोल पर एक्साइज़ ड्यूटी चौदह रुपए से ऊपर है तो हवाई जहाज़ों पर लगने वाले पेट्रोल पर यह ड्यूटी साढ़े तीन रुपए के आसपास है। यानी हवाई जहाज से चलने वालों पर बोझ कम रखने की ज़रूरत है।
कौशिक बसु और मोंटेक अहलूवालिया के अनुसार राजकोषीय घाटे को अपनी सीमा में रखने के लिए यह कड़ा फैसला करना पड़ा। क्या ऐसा सम्भव है कि हम पेट्रोल पर लगने वाले भारी टैक्स को कारों, महंगे रेफ्रिजरेटरों, प्लाज़्मा टीवी, महंगे परिधानों की खरीद पर या महंगे ब्यूटी पार्लरों और मौज-मस्ती के उपक्रमों पर पर लगा दें? सच यह है कि हमारे यहाँ अभी तमाम विलासिता की चीज़ों पर टैक्स लग सकता है। आर्थिक विकास का वर्तमान दर्शन इस बात पर ज़ोर देता है कि कारों, रेफ्रिजरेटरों, प्लाज्मा टीवी वगैरह का उत्पादन बढ़ने से सरकार को टैक्स मिलेगा और लोगों को रोज़गार भी मिलेगा। आर्थिक विकास के बुनियादी विचार से किसी को असहमति नहीं, पर आप देखें कि भारत में या तो सॉफ्टवेयर उद्योग का विकास हुआ है या सर्विस सेक्टर का। इन कारोबारों में पढ़े-लिखे लोगों की खपत है। अपेक्षाकृत कम पढ़े-लिखे लोगों और शारीरिक श्रम करने वालों को रोजगार देने के लिए निर्माण के क्षेत्र में उत्पादकता बढ़नी चाहिए और उनका विकास होना चाहिए। पिछले कुछ साल से सरकार राष्ट्रीय मैन्युफैक्चरिंग पॉलिसी की बात कर रही है। देश में पहली बार मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की बात हो रही है। उसका मसौदा तैयार है। इसका उद्देश्य दस करोड़ नए रोजगार तैयार करना है।
विकास की कोई भी अवधारणा केवल बिजनेस और कॉरपोरेट सेक्टर के लक्ष्यों को लेकर नहीं चल सकती। उसका रिश्ता मानव विकास, शिक्षा, आवास, सार्वजनिक स्वास्थ्य से भी होना चाहिए। और जब ये बेहतर होंगे तो कारोबारी विकास भी होगा। सरकार के सामने श्रम कानूनों में बदलाव का काम भी है। पूँजी निवेशक चाहते हैं कि श्रमिकों से जुड़े कानून ऐसे होने चाहिए जिनसे कारोबारों को चलाने में अड़ंगा न लगे। पर इसके साथ ही श्रमिकों के हितों को भी देखने की ज़रूरत है। बिजनेस के लोग चाहते हैं हायर एंड फायर की नीति, पर मजदूरों को भी सुरक्षा चाहिए। इसके लिए दोतरफा कौशल चाहिए। हमारे यहाँ श्रमिक संगठनों की अराजकता के किस्से हैं या उद्योगपतियों की मनमानी के। इसके नियमन के लिए जिस मजबूत राजनैतिक शक्ति की ज़रूरत है वह अनुपस्थित लगती है।
बंगाल में वाम मोर्चे की पराजय का सबसे बड़ा कारण यह था कि उसने एक उभरते भारतीय मध्यवर्ग की आकांक्षाओं को नहीं पहचाना। दो रोज पहले कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव एबी वर्धन ने दिल्ली के एक अखबार से कहा कि हम मध्य वर्ग से खुद को नहीं जोड़ पाए। उन्होंने कहा कि नया मध्य वर्ग पुराने मध्य वर्ग से फर्क है। वह अब ज्यादा उपभोक्तावादी है। अपने करियर को लेकर जागरूक है। एबी वर्धन सही सोच रहे हैं। भारत में वामपंथी आंदोलन अब सिर्फ औद्योगिक कामगारों के सहारे नहीं चल सकता। खेत-मजदूर और किसान गाँव के दो विपरीत ध्रुव हैं। गाँव की सारी समस्याएं एक नहीं हैं। कम्युनिस्ट पार्टियाँ मध्यवर्गीय किसान को साथ नहीं रखतीं। ऐसे ही तमाम वैचारिक प्रश्नों पर वामपंथी पार्टियों को विचार करने की ज़रूरत है। यह इसलिए कि देश की जनता ने वामपंथी पार्टियों को परास्त किया है, खारिज नहीं किया।
सन 1991 मे जिस नई आर्थिक नीति की शुरुआत हुई उसे लेकर हमारे यहाँ या तो पूर्ण समर्थन है या पूर्ण विरोध। अब वक्त है कि इसके समर्थक और विरोधी पुनर्विचार करें। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी क्रोनी कैपटलिज्म के खतरों की ओर संकेत कर चुके हैं। किसी भी देश के कारोबारी उसके निर्माता होते हैं। वे तमाम लोगों के रोजगार का इंतज़ाम करते हैं। इसके विपरीत व्यावहारिक धरातल का सच दूसरा है। राजनीति, बिजनेस, ब्यूरोक्रेसी और माफिया का गठज़ोड़ होने से एक प्रकार की दादागिरी पैदा होती है। टू-जी घोटाला इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। दूसरी ओर बंद और घेराव के उजाड़वादी राजनैतिक दर्शन से भी किसी को हासिल कुछ नहीं होता। यह बात हम अपने फलते-फूलते वस्त्र उद्योग की तबाही के रूप में देख चुके हैं। हमारा वस्त्र उद्योग एक बड़े वर्ग को रोजगार देता था। उसके आधुनिकीकरण की जब ज़रूरत थी, तब वह आंदोलनों माफिया-संग्रामों में उलझा हुआ था।
वक्त बदल गया है। वाम मोर्चे ने बंगाल में इसे जब समझा तब तक राजनैतिक कमान उसके हाथ से निकलने लगी थी। वाम मोर्चा ने नन्दीग्राम और सिंगूर में औद्योगीकरण की जो योजनाएं बनाईं, वे जबरन लागू की जा रहीं थीं। तीस साल पहले उसने ऐसी योजना बनाई होती तो शायद उसका ऐसा विरोध न होता। पर आज वह वक्त नहीं बचा। वाम मोर्चे के मुकाबले एक वैकल्पिक राजनीति तैयार हो चुकी है। कोई आश्चर्य नहीं कि टाटा सिंगूर में वापस लौटें। अगले कुछ महीने रोचक होंगे।
हमने बात शुरू की थी महंगाई से। आर्थिक विकास के विपरीत प्रभावों को रोकने वाली शक्ति भी होनी चाहिए। आम जनता को उसके दुष्प्रभाव से बचाने वाली ताकत की भी जरूरत है। भारत में वामपंथ की उपयोगिता कभी खत्म होने वाली नहीं। हाँ उसके नए ढंग से परिभाषित होने की ज़रूरत ज़रूर है। भारतीय जनता पर भरोसा कीजिए। आप खुद देखिए क्या होता है। ज़लज़ला ऊँची इमारत को गिरा देता है/ तुम तो बुनियाद के पत्थर हो तुम्हें डर क्या है
दैनिक जनवाणी में प्रकाशित

2 comments:

  1. People voted against arrogant communists and not against communism concept. Theory of communism will always remain logical until this world will remain with inequality and injustice towards any part of people.
    Secondly your article is perfect on rising rates of essential items, at this time it is really hard for poor peoples to live easily- all the essential commodities are not out of reach for them. on another side Planning commission trying to fix the number of peoples living under poverty line without counting them in real.Perhaps government has searched the formula to delete the poor instead of poverty.

    Jai ho .....

    ReplyDelete