Saturday, August 14, 2010

ग्राउंड ज़ीरो के पास मस्ज़िद



अमेरिका में 9/11 की साइट ग्राउंड ज़ीरो के नाम से प्रसिद्ध है। इसके पहले तक आमतौर पर किसी विस्फोट स्थल, खासतौर से जहां एटमी धमाका हुआ हो उस जगह को ग्राउंड ज़ीरो कहते थे। विकीपीडिया के अनुसारः-

The Oxford English Dictionary, citing the use of the term in a 1946 New York Times report on the destroyed city of Hiroshima, defines "ground zero" as "that part of the ground situated immediately under an exploding bomb, especially an atomic one."

In and around New York City, "Ground Zero" is generally understood to mean the site of the World Trade Center, which was destroyed in the September 11, 2001 attacks. The phrase was being applied to the World Trade Center site within hours after the towers collapsed. The adoption of this term by the mainstream North American media with reference to the September 11th attacks began as early as 7:47 p.m. (EDT) on that day, when CBS News reporter Jim Axelrod said,
“ Less than four miles behind me is where the Twin Towers stood this morning. But not tonight. Ground Zero, as it's being described, in today's terrorist attacks that have sent aftershocks rippling across the country.[5] ”


Rescue workers also used the phrase "The Pile", referring to the pile of rubble that was left after the buildings collapsed.[6]

बहरहाल ग्राउंड ज़ीरो के करीब एक इस्लामिक केन्द्र बनाने की योजना है। इसे कानूनी मंज़ूरी भी मिल गई है। दूसरी ओर कुछ लोगों ने इस केन्द्र को बनाने का विरोध शुरू कर दिया है। वे लोग इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ते हैं। जबकि इसके समर्थक कहते हैं कि यह केन्द्र साबित करेगा कि इस्लाम शांति का प्रतीक है। राष्ट्रपति ओबामा ने भी मस्ज़िद बनाने का समर्थन किया है। उन्होंने कहा, मुसलमानों को भी वही धार्मिक अधिकार प्राप्त हैं, जो किसी दूसरे को हैं।
मस्ज़िद विरोधी कार्टून

Friday, August 13, 2010

ग्लोबल अपडेट

श्रीलंका से दो रोचक खबरें मिली हैं। एक तो लिट्टे के आतंक के खिलाफ लड़ी सेना के नायक जनरल सनत फोनसेका को वहाँ की फौजी अदालत ने अपने सेवाकाल में ही राजनीति में शामिल होने का दोषी पाया है। अब इस फैसले की पुष्टि सरकार कर देगी तो जनरल के पद और सारे अलंकरण छिन जाएंगे।

जनरल फोनसेका ने जनवरी में राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा था, जिसमें वे महीन्द्रा राजपक्षे से हार गए थे। न्हें इसके बाद गिरफ्तार कर लिया गया था। उनपर नागरिक सरकार का तख्ता पलटने की साज़िश का आरोप भी है।

सनकी मंत्री हटाया गया
श्रीलंका के एक उप राजमार्ग मंत्री मर्विन सिल्वा को पार्टी और पद से हटा दिया गया है। उन्होंने एक अफसर को रस्सी के सहारे पेड़ से बँधवा दिया था। अफसर पर आरोप था कि वह कुछ सरकारी बैठकों में शामिल नहीं हुआ।
लोकतंत्र का यह प्रयोग राष्ट्रपति महीन्द्र राजपक्षे को समझ में नहीं आया।

Wednesday, August 11, 2010

साथी हाथ बढ़ाना

एक ज़माने में हिन्दी फिल्मों की थीम गरीबों के इर्द-गिर्द होती थी। मदद करना, सहयोग करना, दूसरे के दुख में साझीदार होना उसका मकसद था। अब की फिल्मों के नायक चमक-दमक का जीवन जीते हैं। गरीब-गुर्बे पृष्ठभूमि में चले गए हैं। शायद इसीलिए हम सबने मदद के मूल्यों को बिसरा दिया है। अमेरिका के चालीस फीसदी अमीरों नें कम से कम अपनी आधी सम्पदा दान में देने की घोषणा करके भरोसा बढ़ाया है। शायद हमारे देश के सम्पन्न
वर्ग को भी अपनी जिम्मेदारी समझ में आए।
हिन्दुस्तान में छपा मेरा लेख पढ़ने के लिए कतरन पर क्लिक करें



अमेरिकी अमीरों ने संकल्प किया
संकल्प करने वालों की सूची
भारतीय दानशीलता पर बैन एंड कम्पनी की रपट
देविन बनर्जी की रपट
द क्रॉनिकल ऑव फिलैन्थ्रॉपी दानशीलता को समर्पित पत्रिका

Tuesday, August 10, 2010

हॉकी में हम नवें स्थान पर

भारत में हॉकी महासंघ का झगड़ा चल रहा है। वहीं एफआईएच ने नई विश्व रैंकिंग ज़ारी की है जिसमें भारतीय टीम नौवें स्थान पर है। पाकिस्तान से एक स्थान नीचे। 
रैंकिंग क्रम इस प्रकार हैः-
पुरुष
1. ऑस्ट्रेलिया     2620 पॉइंट
2. जर्मनी            2370
3. नीदरलैंड         2213
4. इंग्लैंड             2047
5. स्पेन               2040
6. कोरिया            1888
7. न्यूज़ीलैंड         1610
8. पाकिस्तान       1410
9. भारत               1280
10. कनाडा            1221  
11. अर्जेंटीना         1187
12. द अफ्रीका        1180
13 बेल्जियम         1148
14. चीन                 1053
15. मलेशिया          1039
16. जापान              0928

सम्पूर्ण हॉकी रैंकिंग



ट्विटरीकृत शोर के दौर में साख का सवाल


शनिवार के अखबारों में सहारा समूह के अध्यक्ष सुब्रत रॉय सहारा की  एक भावनात्मक अपील प्रकाशित हुई है। उन्होंने कहा है कि मीडिया में कॉमनवैल्थ गेम्स को लेकर जो निगेटिव कवरेज हो रहा है उससे उससे पूरे संसार में हमारे देश और निवासियों के बारे में गलत संदेश जा रहा है। हमें इन खेलों को सफल बनाना चाहिए। यह अपील टाइम्स ऑफ इंडिया में भी प्रकाशित हुई, जिसके किसी दूसरे पेज पर उनके टीवी चैनल 'टाइम्स नाव' का विज्ञापन है। टाइम्स नाव कॉमनवैल्थ खेलों के इस 'भंडाफोड़' का श्रेय लेता रहा है। और वह काफी अग्रेसिव होकर इसे कवर कर रहा है।

शनिवार के इंडियन एक्सप्रेस में शेखर गुप्ता का साप्ताहिक कॉलम नेशनल इंटरेस्ट इसी विषय को समर्पित है। उन्होंने लिखा है कि दो हफ्ते पहले हमारे मन में इन खेलों को लेकर यह भाव नहीं था। इंडियन एक्सप्रेस ने खुद इस भंडाफोड़ की शुरुआत की थी, पर हमने यह नहीं सोचा था कि इन सब बातों का इन खेलों के खिलाफ प्रचार करने और माहौल को इतना ज़हरीला बनाने में इस्तेमाल हो जाएगा। जिस तरीके से खेलों के खिलाफ अभियान चला है उससे पत्रकारिता के ट्विटराइज़ेशन का खतरा रेखांकित होता है।सब चोर हैं इस देश का लोकप्रिय जुम्ला है।

कॉमनवैल्थ गेम्स के बहाने हम मीडिया की प्रवृत्तियों को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं। साथ ही यह समझ भी आता है कि पत्रकार छोटी-छोटी बातों की उपेक्षा क्यों कर रह हैं। कॉमनवैल्थ गेम्स पर कितना खर्च हो रहा है, कहाँ-कहाँ खर्च हो रहा है और किस खर्च के लिए कौन जिम्मेदार है इसकी पड़ताल तो आसानी से की जा सकती है। दस-पन्द्रह हजार करोड़ के खर्च से शुरू होकर बात एक लाख करोड़ तक पर जा चुकी है। इंडियन एक्सप्रेस ने दिल्ली सरकार और खेल मंत्रालय की रपटों के हवाले से 41,589.35 करोड़ रु के खर्च का ब्योरा दिया है। इसमें फ्लाई ओवरों का निर्णाण, मेट्रो कनेक्टिविटी, लो फ्लोर डीटीसी बसों की संख्या में वृद्धि, सड़कों का मरम्मत, फुटपाथों का निर्माण वगैरह भी शामिल है। खेलों के दौरान होने वाले खर्च अलग हैं। दूर से लगता है कि सुरेश कलमाडी के पास चालीस-पचास हजार करोड़ अपने विवेक से खर्च करने का अधिकार था। ऐसा नहीं है। घपले हुए हैं तो पूरी व्यवस्था ने होने दिए हैं।

इसमें दो राय नहीं कि मीडिया ने जो मामले उठाए हैं, उनके पीछे कोई आधार होगा। उन्हें जाँचा और परखा जाना चाहिए। पब्लिक स्क्रूटिनी जितनी अच्छी होगी काम उतने अच्छे होंगे। इस बात को साफ-साफ बताना चाहिए कि किससे कहाँ चूक हुई है या किसने कहाँ चोरी की है। इसके लिए पत्रकारों को इस बात का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए कि वे हवाबाज़ी में न आ जाएं। जैसे-जैसे आर्थिक मसले बढ़ेंगे वैसे-वैसे पत्रकारों की जिम्मेदारी बढ़ेगी। ऐसे मौकों पर व्यक्तिगत हिसाब बराबर करने वाले भी आगे आते हैं। वे अधूरे तथ्य पत्रकारों को बताकर अपनी मर्जी से काम करा लेते हैं। इधर लगभग हर चैनल और अखबार में एक्सक्ल्यूसिव का ठप्पा लगाने का चलन बढ़ा है। एक्सक्ल्यूसिव होने की जल्दबाज़ी में हम तथ्यों को परखते नहीं। कई बार तथ्य सही होते हैं, पर उन्हें उछालने वाले कोई का कोई स्वार्थ होता है। उसे देखने की ज़रूरत भी है। अच्छी खबर पढ़ने में अक्सर सनसनीखेज नहीं होती, पर मीडिया की दिलचस्पी सनसनी में है।     
 
फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉगों पर जो शब्दावली चलती है, वह मुख्यधारा के मीडिया की शब्दावली कभी नहीं थी। जनता के बीच संवाद की भाषा और पत्रकारिता की भाषा एक जैसी नहीं हो सकती। कॉमनवैल्थ गेम्स के कारण पूरे देश की इज़्ज़त रसातल में जा रही है, इसलिए हम इस बात पर विचार कर रहे हैं। यों हमें सोचना चाहिए कि पत्रकारिता की भूमिका वास्तव में है क्या। तथ्यों को बाँचे-जाँचे बगैर पेश करने का चलन बढ़ता जा रहा है। जन-पक्षधरता अच्छी बात है, पर सारे तथ्यों की पड़ताल होनी चाहिए। कम से कम उस व्यक्ति का पक्ष भी जानने की कोशिश करनी चाहिए, जिस पर आरोप लगाए जा रहे हैं। पत्रकारिता परिपक्व विचार और समझ का नाम भी है। इन दिनों उसे जिस तरह उसके मूल्यों से काटने की कोशिश हो रही है, वह भी तो ठीक नहीं है।

ये खेल बचें या न बचें यह राष्ट्रीय हितों से जुड़ा सवाल है। हमारी दिलचस्पी पत्रकारिता को बचाने में भी है। इस सिलसिले में मैं आनन्द प्रधान के एक लेख का हवाला देना चाहूँगा, जो उन्होंने हिन्दी पत्रकार-लेखक हेम चन्द्र पांडे की मौत को लेकर लिखा है। हेम की मौत पर मीडिया ने कोई पड़ताल नहीं की। संयोग से सोहराबुद्दीन की मौत इन दिनों खबरों में है। चूंकि उस खबर के साथ बड़े नाम जुड़े हैं, इसलिए मीडिया का ध्यान उधर है। जिन मूल्यों-सिद्धांतों के हवाले से सोहराबुद्दीन की पड़ताल हुई, वे हेम के साथ भी तो जुड़े हैं। शायद यह मामला डाउन मार्केट है। अप मार्केट और डाउन मार्केट पत्रकारिता की मूल भावना से मेल नहीं खाते। पत्रकारिता सिर्फ व्यवसायिक हितों की रक्षा में लग जाएगी तो वह जनता से कटेगी। उसका दीर्घकालीन व्यावसायिक हित भी साख बचाने में है। सब चोर हैं का जुम्ला उसके साथ नहीं चिपकना चाहिए।

इधर हूट में एक खबर पढ़ने को मिली कि पेड न्यूज़ के मसले पर प्रेस काउंसिल की संशोधित रपट में अनेक कड़वे प्रसंग हट गए हैं। बहुमत के आधार पर तय हुआ कि प्रकाशकों की दीर्घकालीन साख और हितों को जिन बातों से चोट लगे उन्हें हटा देना चाहिए। पर पत्रकारिता की दीर्घकालीन साख और हित-रक्षा किसकी जिम्मेदारी है? कॉमनवैल्थ गेम्स होने चाहिए और हमें एशियाई खेल से भी नहीं भागना चाहिए। यह काम एक गम्भीर और आश्वस्त व्यवस्था ही कर सकती है। इसे सिविल सोसायटी कहते हैं। इसमें मीडिया भी शामिल है। सब चोर हैं का भाव पैदा करने में मीडिया की भूमिका भी है।

अफरा-तफरी के पीछे कौन लोग हैं, यह साफ तौर पर बताने का काम मीडिया का है। इस काम के लिए गम्भीर पत्रकारिता की ज़रूरत है। यही पत्रकारिता भीड़ की मनोवृत्ति से बचाने में सेफ्टी वॉल्व का काम करती है। एक अरसे से खबरों के कान मरोड़कर उन्हें या तो सनसनीखेज़ या मनोरंजक बनाकर पेश करने की प्रवृत्ति हावी है। साख चाहे सरकार की गिरे या बिजनेस हाउसों की जनता की बेचैनी बढ़तीहै। जैसे-जैसे ट्विटर संस्कृति बढ़ेगी, शोर और बढ़ेगा। ऐसे में हर तरह के संस्थानों को अपनी साख के बारे में भी सोचना चाहिए। पत्रकारिता की शिक्षा देने वाले संस्थानों से लेकर मडिया हाउसों तक अपनी साख को लेकर चेतेंगे तब वे उन तरीकों को खोजेंगे, जिनसे साख बनती है या बचती है।