जून में अनुभवी प्रशासक एनएन वोहरा की जगह जब बिहार के राज्यपाल सतपाल मलिक को राज्यपाल के
रूप में लाया गया, तभी समझ में आ रहा था कि कुछ होने वाला है। 51 साल बाद कश्मीर
में इस पद पर किसी राजनेता की नियुक्ति हुई थी। सन 1967 में कर्ण सिंह के हटने के
बाद से राज्य में नौकरशाहों, राजनयिकों, पुलिस और फौज के अफसर ही राज्यपाल बनते रहे
हैं। बहरहाल बीजेपी की राजनीति के तार्किक परिणति तक पहुँचने के पहले ही गठबंधन
राजनीति अपनी चाल चल दी। जैसा इस साल कर्नाटक में हुआ था, उससे मिलता-जुलता कश्मीर
में हो गया। सिर्फ एक दिन के लिए।
Sunday, November 25, 2018
अंधी गुफा के मुहाने पर कश्मीर
Saturday, November 24, 2018
कश्मीर को नई शुरुआत का इंतजार
कश्मीर विधानसभा भंग करने के फैसले ने एक तरफ राजनीतिक
और सांविधानिक विवादों को जन्म दिया है, वहीं राज्य की जटिल समस्या को शिद्दत के
साथ उभारा है. कुछ संविधान विशेषज्ञों ने विधानसभा भंग करने के राज्यपाल के अधिकार
को लेकर आपत्ति व्यक्त की है. सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था है कि सरकार बनने की
स्थिति है या नहीं, इसका फैसला सदन के फ्लोर पर होना चाहिए. राज्यपाल सतपाल मलिक का कहना है कि मैं किसी भी पार्टी को
सरकार बनाने का मौका देता तो राज्य में बड़े पैमाने पर खरीद-फरोख्त होती.
सरकार बनाने के लिए वहाँ दो तरह की खिचड़ियाँ
पक रहीं थीं. दोनों के स्थायित्व की गारंटी नहीं थी. पता नहीं कि राज्यपाल के फैसले को चुनौती दी जाएगी या नहीं, पर इसके
सांविधानिक निहितार्थ पर विचार जरूर किया जाना चाहिए. सवाल है कि विधानसभा भंग
करने की भी जल्दी क्या थी? लोकतांत्रिक विकल्प खोजने चाहिए थे. विधानसभा भंग होनी ही थी, तो जून
में क्यों नहीं कर दी गई, जब बीजेपी के समर्थन वापस लेने के बाद महबूबा मुफ्ती ने
इस्तीफा दिया था?
Wednesday, November 21, 2018
सरकार और बैंक की सकारात्मक सहमतियाँ
सरकार, रिजर्व बैंक, उद्योग जगत की महत्वपूर्ण
हस्तियों और बैंकिंग विशेषज्ञों की आमराय से देश की पूँजी और मौद्रिक-व्यवस्था न
केवल पटरी पर वापस आ रही है, बल्कि भविष्य के लिए नए सिद्धांतों को भी तय कर रही
है. इस लिहाज से हाल में खड़े हुए विवादों को सकारात्मक दृष्टि से देखना चाहिए. ये
फैसले और यह विमर्श रिजर्व बैंक अधिनियम की धारा 7 की रोशनी में ही हुआ है. सोमवार
को रिजर्व बैंक बोर्ड की बैठक अपने किस्म की पहली थी. इतनी लम्बी बैठक शायद ही
पहले कभी हुई होगी. करीब नौ घंटे चली बैठक के बाद सरकार और बैंक के बीच तनातनी न
केवल ठंडी पड़ी, बल्कि भविष्य का रास्ता भी निकला है.
यों अब भी कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि टकराव अवश्यंभावी है, फिलहाल बैंक ने टकराव मोल नहीं लिया है और सरकार की काफी बातें मान ली हैं. इन विशेषज्ञों को बैंक के बोर्ड में शामिल प्राइवेट विशेषज्ञों को लेकर आपत्ति है, जिन्हें सरकार मनोनीत करती है. इसका एक मतलब है कि भविष्य में कभी टकराव इस हद तक बढ़े कि दोनों पक्ष अपने कदम वापस खींचने को तैयार नहीं हों, तो ये सदस्य सरकार के पक्ष में पलड़े को झुका देंगे. पर ऐसा माना ही क्यों जाए कि टकराव होना ही चाहिए. क्या दोनों पक्षों को एक-दूसरे की बात समझनी नहीं चाहिए, जैसा इसबार हुआ है?
यों अब भी कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि टकराव अवश्यंभावी है, फिलहाल बैंक ने टकराव मोल नहीं लिया है और सरकार की काफी बातें मान ली हैं. इन विशेषज्ञों को बैंक के बोर्ड में शामिल प्राइवेट विशेषज्ञों को लेकर आपत्ति है, जिन्हें सरकार मनोनीत करती है. इसका एक मतलब है कि भविष्य में कभी टकराव इस हद तक बढ़े कि दोनों पक्ष अपने कदम वापस खींचने को तैयार नहीं हों, तो ये सदस्य सरकार के पक्ष में पलड़े को झुका देंगे. पर ऐसा माना ही क्यों जाए कि टकराव होना ही चाहिए. क्या दोनों पक्षों को एक-दूसरे की बात समझनी नहीं चाहिए, जैसा इसबार हुआ है?
बैठक के पहले कयास था कि बैंक पर सरकार द्वारा
मनोनीत प्राइवेट निदेशक अपने संख्याबल के आधार पर हावी हो जाएंगे. ऐसा कुछ नहीं हुआ.
जो जानकारी बाहर आई है उसके अनुसार किसी भी प्रस्ताव पर मतदान की नौबत नहीं आई. बैंक-प्रतिनिधियों
ने सरकार की बातों को गौर से सुना और सरकार ने बैंक-प्रतिनिधियों को पूरा सम्मान
दिया. दोनों पक्षों ने आग पर पानी डालने का काम किया. यह तनातनी कितनी थी, इसे
लेकर भी कयास ज्यादा हैं. मीडिया और राजनीति के मैदान में इसका विवेचन ज्यादा हुआ
और ट्विटरीकरण ने आग लगाई.
Sunday, November 18, 2018
हिन्द महासागर की बदलती राजनीति
दो
पड़ोसी देशों के हालिया राजनीतिक घटनाक्रम ने भारत का ध्यान खींचा है। एक है
मालदीव और दूसरा श्रीलंका। शनिवार को मालदीव में नव निर्वाचित राष्ट्रपति इब्राहिम
मोहम्मद सोलिह के शपथ ग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी शामिल हुए। दक्षिण
एशिया की राजनयिक पृष्ठभूमि में यह महत्वपूर्ण परिघटना है। सन 2011 के बाद से किसी
भारतीय राष्ट्राध्यक्ष या शासनाध्यक्ष की पहली मालदीव यात्रा है। दक्षेस देशों में
मालदीव अकेला है, जहाँ प्रधानमंत्री मोदी सायास नहीं गए हैं। पिछले कुछ वर्षों में
इस देश ने भारत के खिलाफ जो माहौल बना रखा था उसके कारण रिश्ते लगातार बिगड़ते ही
जा रहे थे। तोहमत भारत पर थी कि वह एक नन्हे से देश को संभाल नहीं पा रहा है। यह
सब चीन और पाकिस्तान की शह पर था।
दूसरा
देश श्रीलंका है, जो इन दिनों राजनीतिक अराजकता के घेरे में है। यह अराजकता खत्म
होने का नाम नहीं ले रही है। वहाँ राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना ने प्रधानमंत्री
रानिल विक्रमासिंघे को बर्खास्त करके महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री बना दिया
है। संसद ने हालांकि राजपक्षे को नामंजूर कर दिया है, पर वे अपने पद पर जमे हैं। राजपक्षे
चीन-परस्त माने जाते हैं। जब वे राष्ट्रपति थे, तब उन्होंने कुछ ऐसे फैसले किए थे,
जो भारत के खिलाफ जाते थे।
Tuesday, November 13, 2018
‘नाम’ और उससे जुड़ी राजनीति
इलाहाबाद का नाम प्रयागराज करने और फिर फैजाबाद की जगह अयोध्या को
जिला बनाए जाने के बाद ‘नाम’ से जुड़ी खबरों की झड़ी लग गई है. केंद्र
सरकार ने पिछले एक साल में कम से कम 25 शहरों, कस्बों और गांवों के नाम बदलने के
प्रस्ताव को हरी झंडी दी है जबकि कई प्रस्ताव उसके पास विचाराधीन हैं. इनमें
पश्चिम बंगाल का नाम ‘बांग्ला’ करने, शिमला को श्यामला, लखनऊ को लक्ष्मणपुरी, मुजफ्फरनगर को लक्ष्मीनगर, अलीगढ़ को हरिगढ़ और आगरा को अग्रवन का नाम देने
के प्रस्ताव शामिल हैं. गुजरात के मुख्यमंत्री ने कहा है कि हम अहमदाबाद का नाम कर्णवती
करने पर विचार कर रहे हैं.
दो राय नहीं कि यह नाम-परिवर्तन बीजेपी के हिन्दुत्व का हिस्सा है और इस तरीके से पार्टी अपने जनाधार को बनाए रखना चाहती है. सवाल है कि क्या वास्तव में बड़ी संख्या में हिन्दुओं को यह सब पसंद आता है? क्या इन तौर-तरीकों से बड़े स्तर पर राष्ट्रवादी चेतना जागेगी? और क्या इस तरीके से देश की मुस्लिम संस्कृति को सिरे से झुठलाया या खारिज किया जा सकेगा? हमारी गंगा-जमुनी संस्कृति की वास्तविकता को क्या इस तरीके से खारिज किया जा सकता है?
दो राय नहीं कि यह नाम-परिवर्तन बीजेपी के हिन्दुत्व का हिस्सा है और इस तरीके से पार्टी अपने जनाधार को बनाए रखना चाहती है. सवाल है कि क्या वास्तव में बड़ी संख्या में हिन्दुओं को यह सब पसंद आता है? क्या इन तौर-तरीकों से बड़े स्तर पर राष्ट्रवादी चेतना जागेगी? और क्या इस तरीके से देश की मुस्लिम संस्कृति को सिरे से झुठलाया या खारिज किया जा सकेगा? हमारी गंगा-जमुनी संस्कृति की वास्तविकता को क्या इस तरीके से खारिज किया जा सकता है?
नाम-परिवर्तन की प्रक्रिया आज अचानक शुरू नहीं हुई है. काफी पहले से
चली आ रही है. भारत ही नहीं, सारी दुनिया में. कुंस्तुनतुनिया का नाम इस्तानबूल हो
गया. पाकिस्तान के लायलपुर का नाम अब फैसलाबाद है. इस नाम-परिवर्तन के अलग-अलग
कारण हैं. देश-काल, ऐतिहासिक घटनाक्रम और संस्कृतियों के बदलाव से ऐसा होता है. आज
के दौर के इतिहास को बदलने में राजनीति की बड़ी भूमिका है. इस बदलाव के सांस्कृतिक
और राजनीतिक कारण साफ हैं. बदलाव करने वाले इसे छिपाना भी नहीं चाहते.
Saturday, November 10, 2018
गठबंधन-परिवार के स्वप्न-महल

इन परिणामों के आने के पहले ही तेदेपा के
चंद्रबाबू नायडू ने दिल्ली आकर राहुल गांधी समेत अनेक नेताओं से मुलाकात की थी और
2019 के बारे में बातें करनी शुरू कर दी। सपनों के राजमहल फिर से बनने लगे हैं। पर
गौर करें तो कहानियाँ लगातार बदल रहीं हैं। साल के शुरू में जो पहल ममता बनर्जी और
के चंद्रशेखर राव ने शुरू की थी, वह इसबार आंध्र से शुरू हुई है।
महत्वपूर्ण पड़ाव कर्नाटक
कर्नाटक विधानसभा के चुनाव इस साल एक
महत्वपूर्ण पड़ाव साबित हुए हैं। यहाँ कांग्रेस ने त्याग किया है। पर क्या यह
स्थायी व्यवस्था है? क्या कांग्रेस दिल्ली में भी त्याग करेगी? क्या चंद्रबाबू पूरी तरह विश्वसनीय हैं? बहरहाल उनकी पहल के साथ-साथ तेलंगाना के
विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-तेदेपा गठबंधन का लांच भी हुआ है। अब चंद्रबाबू चाहते
हैं कि महागठबंधन जल्द से जल्द बनाना चाहिए, उसके लिए पाँच राज्यों के विधानसभा
चुनावों के परिणामों का इंतजार नहीं करना चाहिए।
Wednesday, November 7, 2018
बीजेपी के लिए खतरे का संकेत है बेल्लारी की हार
कर्नाटक
में विधानसभा के दो और लोकसभा के तीन क्षेत्रों में हुए उपचुनावों का राष्ट्रीय और
क्षेत्रीय राजनीति पर कोई खास प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। बेल्लारी को छोड़ दें,
तो ये परिणाम अप्रत्याशित नहीं हैं। बेल्लारी की हार बीजेपी के लिए खतरे का संकेत
है। इन चुनावों में दो बातों की परीक्षा होनी थी। एक, कांग्रेस और जेडीएस गठबंधन
कितना मजबूत है और मतदाता के मन में उसकी छवि कैसी है। दूसरे राज्य विधानसभा में
बीएस येदियुरप्पा का प्रभाव कितना बाकी है। विधानसभा में गठबंधन-सदस्यों की संख्या
बढ़कर 120 हो गई है। राज्य में गठबंधन सरकार फिलहाल आरामदेह स्थिति में है, पर
2019 के चुनाव के बाद स्थिति बदल भी सकती है। बहुत कुछ दिल्ली में सरकार बनने पर
निर्भर करेगा।
इस उपचुनाव
में काफी प्रत्याशी नेताओं के रिश्तेदार थे, जो अपने परिवार की विरासत संभालने के
लिए मैदान में उतरे थे। इस हार-जीत में ज्यादातर रिश्तेदारों की भूमिका रही। लोकसभा
की तीनों सीटों पर चुनाव औपचारिकता भर है। ज्यादा से ज्यादा 6-7 महीनों की सदस्यता
के लिए चुनाव कराने का कोई बड़ा मतलब नहीं। अलबत्ता ये चुनाव 2019 के कर्टेन रेज़र
साबित होंगे। कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों की 2019 में महत्वपूर्ण भूमिका होगी।
Monday, November 5, 2018
सरकार और रिज़र्व बैंक की निरर्थक रस्साकशी
भारतीय अर्थ-व्यवस्था के लिए दो-तीन अच्छी
खबरें हैं. ईरान से तेल खरीदने पर अमेरिकी पाबंदियों का खतरा टल गया है. अमेरिका
ने जापान, भारत और दक्षिण कोरिया समेत अपने आठ मित्र देशों को छूट दे दी है. तेल की
कीमतों में भी कुछ कमी आई है. विश्व बैंक की 16वीं कारोबार सुगमता (ईज़ ऑफ डूइंग
बिजनेस) रैंकिंग में भारत
इस साल 23 पायदान पार करके 100वें से 77वें स्थान पर पहुंच गया है. इससे भारत को
विदेशी निवेश आकर्षित करने में मदद मिलेगी. इसके पूँजी निवेश को लेकर निराशा का
भाव है. बैंकों की दशा खराब है.
वित्त मंत्रालय की कोशिशों के बावजूद लगता है
कि इस साल राजकोषीय घाटा लक्ष्य से बाहर चला जाएगा. व्यापार घाटे में लगातार इजाफा
हो रहा है. ऐसे में सीबीआई के भीतर टकराव और रिज़र्व बैंक के साथ केंद्र के टकराव
ने हालात को और बिगाड़ दिया है. विडंबना है कि यह टकराव सैद्धांतिक नहीं है, बल्कि
नासमझी का नतीज़ा है. और मीडिया ने इसे सनसनी का रूप दे दिया है. पराकाष्ठा पिछले
हफ्ते हुई, जब केंद्र सरकार ने आरबीआई कानून की धारा 7 के संदर्भ में विचार-विमर्श
शुरू कर दिया. केंद्र सरकार जरूरी होने पर इस धारा का इस्तेमाल करते हुए, रिज़र्व
बैंक को सीधे निर्देश भेज सकती है.
Sunday, November 4, 2018
मौद्रिक-व्यवस्था पर निरर्थक टकराव
ऐसे महत्वपूर्ण समय में जब देश को आर्थिक संवृद्धि की दर में तेजी से
वृद्धि की जरूरत है विश्व बैंक की
16वीं कारोबार सुगमता (ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस) रैंकिंग में भारत इस साल 23 पायदान पार करके 100वें से
77वें स्थान पर पहुंच गया है। पिछले दो सालों में भारत की रैंकिंग में 53 पायदान
का सुधार आया है। माना जा रहा है कि इससे भारत को अधिक विदेशी निवेश आकर्षित करने
में मदद मिलेगी। इस खुशखबरी के बावजूद देश में पूँजी निवेश को लेकर निराशा का भाव
है। वजह है देश के पूँजी क्षेत्र व्याप्त कुप्रबंध।
पिछले कुछ वर्षों से बैंकों के नियामक रिज़र्व
बैंक ऑफ इंडिया और भारत सरकार के बीच तनातनी चल रही है। इस तनातनी की पराकाष्ठा
पिछले हफ्ते हो गई, जब केंद्र सरकार ने आरबीआई कानून की धारा 7 के संदर्भ में
विचार-विमर्श शुरू किया। इसके तहत केंद्र सरकार जरूरी होने पर रिज़र्व बैंक को
सीधे निर्देश भेज सकती है। इस अधिकार का इस्तेमाल आज तक केंद्र सरकार ने कभी नहीं
किया। इस खबर को मीडिया ने नमक-मिर्च लगाकर सनसनीखेज
बना दिया। कहा गया कि धारा 7 का
इस्तेमाल हुआ, तो रिज़र्व बैंक के गवर्नर ऊर्जित पटेल इस्तीफा दे देंगे।
श्रीलंका में तख्ता-पलट और भारतीय दुविधा
श्रीलंका में शुक्रवार 26 अक्तूबर को अचानक हुए राजनीतिक घटनाक्रम से
भारत में विस्मय जरूर है, पर ऐसा होने का अंदेशा पहले से था। पिछले कुछ महीनों से
संकेत मिल रहे थे कि वहाँ के शिखर नेतृत्व में विचार-साम्य नहीं है। सम्भवतः दोनों
नेताओं ने भारतीय नेतृत्व से इस विषय पर चर्चा भी की होगी। बहरहाल अचानक वहाँ के
राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री को बर्खास्त करके चौंकाया जरूर है। अमेरिका और युरोपियन
यूनियन ने प्रधानमंत्री को इस तरीके से बर्खास्त किए जाने पर फौरन चिंता तत्काल व्यक्त
की और कहा कि जो भी हो, संविधान के दायरे में होना चाहिए। वहीं भारत ने
प्रतिक्रिया व्यक्त करने में कुछ देर की। शुक्रवार की घटना पर रविवार को भारतीय
प्रतिक्रिया सामने आई।
रानिल विक्रमासिंघे को प्रधानमंत्री पद से हटाए
जाने पर भारत ने आशा व्यक्त की है कि श्रीलंका में संवैधानिक और लोकतांत्रिक
मूल्यों का आदर होगा। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने कहा, 'श्रीलंका
में हाल ही में बदल रहे राजनीतिक हलचल पर भारत पूरे ध्यान से नजर रख रहा है। एक
लोकतंत्र और पड़ोसी मित्र देश होने के नाते हम आशा करते हैं कि लोकतांत्रिक
मूल्यों और संवैधानिक प्रक्रिया का सम्मान होगा।' भारत को ऐसे मामलों में काफी सोचना पड़ता है।
खासतौर से हिंद महासागर के पड़ोसी देशों के संदर्भ में। पहले से ही आरोप हैं कि
उसके अपने पड़ोसी देशों से रिश्ते अच्छे नहीं हैं।
Wednesday, October 31, 2018
जनता के मसले कहाँ हैं इस चुनाव में?

हाल में देशभर में एकसाथ चुनाव कराने की मुहिम जब चल रही थी, तब उसका विरोध करने वालों का कहना था कि देश की विविधता और संघीय-संरचना को देखते हुए एकसाथ चुनाव कराना ठीक नहीं होगा. इससे क्षेत्रीय विविधता को ठेस लगेगी. वास्तव में पूर्वोत्तर के राज्यों की जो समस्याएं हैं, वे दक्षिण भारत में अनुपस्थित हैं. दक्षिण भारत के मसले पश्चिम में गौण हैं. भौगोलिक-सांस्कृतिक परिस्थितियाँ फर्क होने के कारण हरेक क्षेत्र की जरूरतें अलग-अलग हैं. पर क्या इन इलाकों की राजनीति अपने क्षेत्र की विशेषता को परिलक्षित करती है?
Tuesday, October 30, 2018
ऐसे तो नहीं रुकेगा मंदिर का राजनीतिकरण
अयोध्या मामले का राजनीतिकरण इस हद तक हो चुका
है कि अब मंदिर बने तब और न बने तब भी उसका फायदा बीजेपी को मिलेगा। यह बात उन लोगों को समझ में नहीं आ रही थी, जो अदालत में इसकी सुनवाई में विलंब कराने की
कोशिश कर रहे थे। अब इस मामले के राजनीतिक निहितार्थों को देखें और इंतजार
करें कि क्या होने वाला है। मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि
इस मसले पर अगली सुनवाई जनवरी 2019 में एक उचित पीठ के समक्ष होगी। यह सुनवाई इलाहाबाद
हाईकोर्ट के 2010 के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं के समूह पर होगी। हाईकोर्ट
ने विवादित स्थल को तीन भागों रामलला, निर्मोही
अखाड़ा व मुस्लिम वादियों में बांटा था।
गौर करें, तो पाएंगे कि मंदिर मसले पर बीजेपी
को अपनी पहलकदमी के मुकाबले मंदिर-विरोधी राजनीति का लाभ ज्यादा मिला है। मंदिर
समर्थकों को कानूनी तरीके से जल्द मंदिर बनने की उम्मीद थी, जो फिलहाल पूरी होती
नजर नहीं आ रही है। यानी कि अब वे एक नया आंदोलन शुरू करेंगे। इस आंदोलन का असर
पाँच राज्यों के और लोकसभा चुनाव पर भी पड़ेगा। बेशक बीजेपी के नेताओं पर भी दबाव है,
पर इससे उन्हें नुकसान क्या होगा? वे कहेंगे हमारे हाथ मजबूत करो। बीजेपी
मंदिर मसले को चुनाव का मुद्दा नहीं बना रही थी, तो अब बनाएगी।
क्या अध्यादेश आएगा?
बीजेपी के भीतर से आवाजें आ रहीं हैं कि सरकार
अध्यादेश या बिल लाकर मंदिर बनाए। सरसंघ चालक मोहन
भागवत कह चुके हैं कि सरकार को कानून बनाना चाहिए। सुब्रमण्यम स्वामी ने इस माँग
का स्वागत किया है। संघ के अलावा विश्व हिंदू परिषद और शिवसेना की भी यही राय है।
अध्यादेश या विधेयक से क्या मंदिर बन जाएगा? राज्यसभा में क्या
पर्याप्त समर्थन मिलेगा? नहीं मिला तब भी पार्टी यह कह सकती है कि
हमने कोशिश तो की । बिल पास भी हो जाए, तो सुप्रीम कोर्ट से भी
रुक सकता है। यह सब इतना आसान नहीं है, जितना समझाया जा रहा है। इसका हल सभी पक्षों के बीच समझौते से ही निकल सकता है।
Saturday, October 27, 2018
क्यों मचा फिर से मंदिर का शोर?
भारतीय जनता पार्टी के
लिए ‘राम मंदिर’ एक औजार है, जिसका इस्तेमाल जरूरत के हिसाब से
होता है। कभी लगता है कि वह इस भारी हथौड़े का इस्तेमाल नहीं करना चाहती और कभी
इसे फिर से उठा लेती है। पिछले लोकसभा चुनाव में लगता था कि इस मसले से पार्टी ने किनाराकशी कर ली है।
और अब लग रहा है कि वह इसे बड़ा मुद्दा बनाएगी। सुप्रीम कोर्ट में 29 अक्तूबर से
इस मामले पर सुनवाई शुरू हो रही है। उधर चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में मंदिर
भी मुद्दा बन गया है।
पिछले हफ्ते पुणे के
श्रीमंत दगडूशेठ हलवाई गणपति मंदिर में पूजा करने आए संघ-प्रमुख मोहन भागवत ने कहा
कि अयोध्या में शीघ्र मंदिर निर्माण होगा। बताते हैं कि संघ प्रमुख खासतौर से ‘राम-मंदिर और
राम-राज्य’ मनोकामना
की पूर्ति के लिए अभिषेक करके गए हैं। इससे पहले वे राम मंदिर पर कानून बनाने की सलाह सरकार
को दे चुके हैं।
मंदिर को लेकर उत्साह
उधर छत्तीसगढ़ में
चुनाव प्रचार के लिए आए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा, अयोध्या
में जल्द बनेगा भव्य राम मंदिर। इसकी शुरुआत हो चुकी है। पिछले कुछ समय से अचानक अध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर मंदिर
बनाने की मुहिम में उतरे हैं। साम-दाम-दंड हर तरह से कोशिशें चल रहीं हैं। पिछले
डेढ़ सौ साल से ज़्यादा समय में कम से कम नौ बड़ी कोशिशें मंदिर-मस्जिद मसले के
समाधान के लिए हुईं और परिणाम कुछ नहीं निकला।
Monday, October 22, 2018
आजाद हिन्द की टोपी पहन, कांग्रेस पर वार कर गए मोदी

'आजाद हिंद फौज' की 75वीं जयंती के मौके पर 21 अक्टूबर को लालकिले में हुए समारोह में मोदीजी की उपस्थिति की योजना शायद अचानक बनी. वरना यह लम्बी योजना भी हो सकती थी. ट्विटर पर एक वीडियो संदेश में उन्होंने कहा था कि मैं इस समारोह में शामिल होऊँगा.
कांग्रेस पर वार
इस ध्वजारोहण समारोह में मोदी ने नेताजी के योगदान को याद करने में जितने शब्दों का इस्तेमाल किया, उनसे कहीं कम शब्द उन्होंने कांग्रेस पर वार करने में लगाए, पर जो भी कहा वह काफी साबित हुआ.
उन्होंने कहा, एक परिवार की खातिर देश के अनेक सपूतों के योगदान को भुलाया गया. चाहे सरदार पटेल हो या बाबा साहब आम्बेडकर. नेताजी के योगदान को भी भुलाने की कोशिश हुई. आजादी के बाद अगर देश को पटेल और बोस का नेतृत्व मिलता तो बात ही कुछ और होती.
अभिषेक मनु सिंघवी ने हालांकि बाद में कांग्रेस की तरफ से सफाई पेश की, पर मोदी का काम हो गया. मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने गांधी, आम्बेडकर, पटेल और लाल बहादुर शास्त्री जैसे लोकप्रिय नेताओं को पहले ही अंगीकार कर लिया है. अब आजाद हिन्द फौज की टोपी पहनी है.
Sunday, October 21, 2018
सबरीमलाई का राजनीतिक संदेश
हाल में हुए अदालतों के दो फैसलों के सामाजिक निहितार्थों को समझने की जरूरत है। इनमें एक फैसला उत्तर भारत से जुड़ा है और दूसरा दक्षिण से, पर दोनों के पीछे आस्था से जुड़े प्रश्न हैं। पिछले कुछ समय में गुरमीत राम रहीम और आसाराम बापू को अदालतों ने सज़ाएं सुनाई। अब बाबा रामपाल को दो मामलों में उम्रकैद की सज़ा सुनाई है। तीनों मामले अपराधों से जुड़े है। पिछले साल अगस्त में जैसी हिंसा राम रहीम समर्थकों ने की, तकरीबन वैसी ही हिंसा उसके पहले मथुरा के जवाहर बाग की सैकड़ों एकड़ सरकारी जमीन पर कब्जा जमाए बैठे रामवृक्ष यादव और उनके हजारों समर्थकों और पुलिस के बीच हिंसक भिड़ंत में हुई थी। बहरहाल बाबा रामपाल प्रकरण में ऐसा नहीं हो पाया।
पिछले हफ्ते केरल के सबरीमलाई (या सबरीमाला) मंदिर में कपाट खुलने के बाद के घटनाक्रम ने देश का ध्यान खींचा है। 12वीं सदी में बने भगवान अयप्पा के इस मंदिर में परम्परा से 10-50 साल की उम्र की स्त्रियों के प्रवेश पर रोक है। हाल में कुछ सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रतिबंध को हटा दिया और सभी महिलाओं के प्रवेश की अनुमति दे दी। केरल के परम्परागत समाज ने अदालत की इस अनुमति को धार्मिक मामलों में राज-व्यवस्था का अनुचित हस्तक्षेप माना।
पिछले हफ्ते केरल के सबरीमलाई (या सबरीमाला) मंदिर में कपाट खुलने के बाद के घटनाक्रम ने देश का ध्यान खींचा है। 12वीं सदी में बने भगवान अयप्पा के इस मंदिर में परम्परा से 10-50 साल की उम्र की स्त्रियों के प्रवेश पर रोक है। हाल में कुछ सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रतिबंध को हटा दिया और सभी महिलाओं के प्रवेश की अनुमति दे दी। केरल के परम्परागत समाज ने अदालत की इस अनुमति को धार्मिक मामलों में राज-व्यवस्था का अनुचित हस्तक्षेप माना।
Wednesday, October 17, 2018
उत्तर भारत पर प्रदूषण का एक और साया
पिछले कुछ वर्षों का
अनुभव है कि जैसे ही हवा में ठंडक पैदा हुई उत्तर भारत में प्रदूषण का खतरा पैदा
होने लगता है. पंजाब और हरियाणा के किसान फसल काटने के बाद बची हुई पुआल यानी पौधों
के सूखे डंठलों-ठूंठों को खेत में ही जलाते हैं. इससे दिल्ली समेत पूरा उत्तर भारत
गैस चैंबर जैसा बन जाता है. मौसम में ठंडक आने से हवा भारी हो जाती है और वह ऊपर
नहीं उठती. उधर इसी मौसम में दशहरे और दीपावली के त्योहार भी होते हैं. इस वजह से
माहौल धुएं से भर जाता है. इस साल भी वह खतरा सामने है.
दिल्ली में हवा
धीरे-धीरे बिगड़ने लगी है. पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, केंद्र सरकारों और प्रदूषण
नियंत्रण से जुड़ी एजेंसियों के बार-बार हस्तक्षेप के बाद भी हालात जस के तस हैं.
किसानों पर जुर्माने लगाने और सज़ा देने की व्यवस्थाएं की गई हैं. वे जुर्माना
देकर भी खेतों में आग लगाते हैं. कहीं पर व्यावहारिक दिक्कतें जरूर हैं. बहरहाल मौसम
विभाग ने आने वाले दिनों के लिए अलर्ट जारी कर दिया है. अब इंतजार इस बात का है कि
हवा कितनी खराब होगी और सरकारें क्या करेंगी.
Sunday, October 14, 2018
‘मीटू’ की ज़रूरत थी
देश में हाल के वर्षों में स्त्री-चेतना की सबसे बड़ी परिघटना थी, दिसम्बर 2012 में दिल्ली-रेपकांड के खिलाफ खड़ा हुआ आंदोलन। इस आंदोलन के कारण भले ही कोई क्रांतिकारी बदलाव न हुआ हो, पर सामाजिक-व्यवस्था को लेकर स्त्रियों के मन में बैठी भावनाएं निकल कर बाहर आईं। ऐसे वक्त में जब लड़कियाँ घरेलू बंदिशों से बाहर निकल कर आ रहीं हैं, उनके साथ होने वाला दुर्व्यवहार बड़े खतरे की शक्ल में मुँह बाए खड़ा है। समय क्या शक्ल लेगा हम नहीं कह सकते, पर बदलाव को देख सकते हैं। इन दिनों अचानक खड़ा हुआ ‘मीटू आंदोलन’ इसकी एक मिसाल है।
लम्बे अरसे से हम मानते रहे हैं कि फिल्मी दुनिया में स्त्रियों का जबर्दस्त यौन-शोषण होता है। पर ऐसा केवल ‘फिल्मी दुनिया’ में नहीं है, जीवन के हर क्षेत्र में है। और यह बात अब धीरे-धीरे खुल रही है। ‘मीटू आंदोलन’ आंदोलन के पहले से देश में कई मामले अदालतों में चल रहे हैं। खासतौर से मीडिया में कुछ लड़कियों ने आत्महत्याएं की हैं। सिनेमा और मीडिया का वास्ता दृश्य जगत से है। उसे लोग ज्यादा देखते हैं। राजनीति के ‘मीटू प्रसंग’ भी सुनाई पड़ेंगे। वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं, प्रशासनिक सेवाओं, कॉरपोरेट जगत और शैक्षिक संस्थानों से खबरें मिलेंगी।
तब या अब किसी ने इन बातों को सार्वजनिक रूप से उठाया है, तो इसकी तारीफ करनी चाहिए और उस महिला का समर्थन करना चाहिए। पर यह सारी बात का एक पहलू है। इसे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को भी समझने की कोशिश करनी चाहिए। ‘मीटू आंदोलन’ यौन उत्पीड़न के खिलाफ एक वैश्विक अभियान है, जिसके अलग-अलग देशों में अलग-अलग रूप हैं। इसका सबसे प्रचलित अर्थ है कार्यक्षेत्र में स्त्रियों का यौन शोषण। अक्तूबर 2017 में अमेरिकी फिल्म निर्माता हार्वे वांइंसटाइन पर कुछ महिलाओं ने यौन शोषण के आरोप लगाए। न्यूयॉर्क टाइम्स और न्यूयॉर्कर ने खबरें प्रकाशित कीं कि एक दर्जन से अधिक स्त्रियों ने वांइंसटाइन पर यौन-विषयक परेशानियाँ पैदा करने, छेड़छाड़, आक्रमण और रेप के आरोप लगाए। इस वाक्यांश को लोकप्रियता दिलाई अमेरिकी अभिनेत्री एलिज़ा मिलानो ने, जिन्होंने हैशटैग के साथ इसका इस्तेमाल 15 अक्टूबर 2017 को ट्विटर पर किया। मिलानो ने कहा कि मेरा उद्देश्य है कि लोग इस समस्या की संजीदगी को समझें। इसके बाद इस हैशटैग का इस्तेमाल सोशल मीडिया पर करोड़ों लोग कर चुके हैं।
Sunday, October 7, 2018
विदेश नीति में बड़े फैसलों की घड़ी
कुछ दिन पहले तक लगता था कि भारत की विदेश नीति की नैया रूस और अमेरिका के बीच संतुलन बैठाने के फेर में डगमग हो रही है। अब रूस के साथ एस-400 मिसाइलों, एटमी बिजलीघरों समेत आठ समझौते होने से लगता है कि हम अमेरिका से दूर जा रहे हैं। ऐसे में अगली गणतंत्र दिवस परेड पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप मुख्य अतिथि बनकर आ जाएं तो क्या कहेंगे? भारत की दोनों, बल्कि इसमें चीन को भी शामिल कर लें, तो तीनों के साथ क्या दोस्ती सम्भव है?
क्यों नहीं सम्भव है? हमारी विदेश नीति किसी एक देश के हाथों गिरवी नहीं है। स्वायत्तता का तकाजा है कि हम अपने हितों के लिहाज से रास्ते खोजें। पर स्वायत्तता के लिए सामर्थ्य भी चाहिए। अमेरिका से दोस्ती कौन नहीं चाहता? इसकी वजह है उसकी ताकत। ऐसे ही मौकों पर देश की सामर्थ्य का पता लगता है और इसका प्रदर्शन किया जाना चाहिए।
क्यों नहीं सम्भव है? हमारी विदेश नीति किसी एक देश के हाथों गिरवी नहीं है। स्वायत्तता का तकाजा है कि हम अपने हितों के लिहाज से रास्ते खोजें। पर स्वायत्तता के लिए सामर्थ्य भी चाहिए। अमेरिका से दोस्ती कौन नहीं चाहता? इसकी वजह है उसकी ताकत। ऐसे ही मौकों पर देश की सामर्थ्य का पता लगता है और इसका प्रदर्शन किया जाना चाहिए।
Saturday, October 6, 2018
बाएं बाजू रूस, दाएं अमेरिका
कुछ दिन पहले तक लगता था कि भारत की विदेश नीति की नैया रूस और अमेरिका के बीच संतुलन बैठाने के फेर में डगमग होती जा रही है। अब लगता है कि हम स्थिरता के धरातल पर वापस लौट रहे हैं। सितम्बर के पहले हफ्ते में भारत और अमेरिका के बीच हुई ‘टू प्लस टू’ वार्ता के ठीक एक महीने बाद रूस के साथ एस-400 मिसाइल प्रणाली को लेकर समझौता हो गया है। यह मिसाइल प्रणाली हवाई हमलों के खिलाफ दुनिया की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली मानी जाती है। इसे अमेरिकी ‘टर्मिनल हाई अल्टीट्यूड एरिया डिफेंस सिस्टमट (ठाड) या पैट्रियट मिसाइल प्रणाली के मुकाबले किफायती और ज्यादा मारक समझा जा रहा है। सच यह है कि रूसी मिसाइलों, फ्रांसीसी लड़ाकू विमानों, अमेरिकी ड्रोनों और इसरायली रेडारों के सहारे चलने वाली भारतीय रक्षा-नीति अपने आप में अनोखी साबित हो रही है। रक्षा बहरहाल हमें अभी इस समझौते के बाबत अमेरिका की औपचारिक प्रतिक्रिया का इंतजार करना चाहिए। इतना जरूर लगता है कि भारत ने काफी सोच-समझ कर यह फैसला किया है।
भारत और रूस के बीच 19 वें वार्षिक शिखर सम्मेलन के दौरान आठ समझौते हुए हैं। ये समझौते रक्षा, नाभिकीय ऊर्जा, स्पेस और अर्थ-व्यवस्था से जुड़े हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि ये समझौते अमेरिका की धमकी के बाद हुए हैं। अमेरिका ने धमकी दी है कि वह उन देशों पर पाबंदी लगाएगा, जो रूसी हथियार खरीदते हैं। पिछले महीने भारत और अमेरिका के बीच पहली बार जब टू प्लस टू वार्ता हुई थी, तब यह सवाल सबसे ऊपर था कि भारत इस मिसाइल प्रणाली को खरीद भी पाएगा या नहीं?
भारत और रूस के बीच 19 वें वार्षिक शिखर सम्मेलन के दौरान आठ समझौते हुए हैं। ये समझौते रक्षा, नाभिकीय ऊर्जा, स्पेस और अर्थ-व्यवस्था से जुड़े हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि ये समझौते अमेरिका की धमकी के बाद हुए हैं। अमेरिका ने धमकी दी है कि वह उन देशों पर पाबंदी लगाएगा, जो रूसी हथियार खरीदते हैं। पिछले महीने भारत और अमेरिका के बीच पहली बार जब टू प्लस टू वार्ता हुई थी, तब यह सवाल सबसे ऊपर था कि भारत इस मिसाइल प्रणाली को खरीद भी पाएगा या नहीं?
Tuesday, October 2, 2018
मजबूरी नहीं, जरूरी हैं गांधी
श्रेष्ठ विचारों की झंडी बनाकर उससे सजावट करने
में हमारा जवाब नहीं है। गांधी इसके उदाहरण हैं। लम्बे अरसे तक देश में कांग्रेस
पार्टी का शासन रहा। पार्टी खुद को गांधी का वारिस मानती है, पर उसके शासनकाल में ही
गांधी सजावट की वस्तु बने। हमारी करेंसी पर गांधी हैं और अब नए नोटों में उनका
चश्मा भी है। पर हमने गांधी के विचारों पर आचरण नहीं किया। उनके विचारों का मजाक
बनाया। कुछ लोगों ने कहा, मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। लम्बे अरसे तक देश के
कम्युनिस्ट नेता उनका मजाक बनाते रहे, पर आज स्थिति बदली हुई है। गांधी का नाम
लेने वालों में वामपंथी सबसे आगे हैं।
उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय पर्व के रूप में
मनाने और तमाम शहरों की सड़कों को महात्मा गांधी मार्ग बनाने के बावजूद हमें लगता
है कि उनकी जरूरत 1947 के पहले तक थी। अब होते भी तो क्या कर लेते? वस्तुतः गांधी की जरूरत केवल आजादी की लड़ाई तक
सीमित नहीं थी। सन 1982 में रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ ने
दुनियाभर का ध्यान खींचा, तब इस विषय पर एकबार फिर चर्चा हुई कि क्या
गांधी आज प्रासंगिक हैं? वह केवल भारत की बहस नहीं थी। और आज गांधी की उपयोगिता
शिद्दत से महसूस की जा रही है।
Monday, October 1, 2018
तीखे अंतर्विरोध और अदालती फैसले

इस हफ्ते के ज्यादातर फैसलों के भी प्रत्यक्ष
और परोक्ष राजनीतिक निहितार्थ हैं. पर दो मामले ऐसे हैं, जो स्त्रियों के अधिकारों
और परम्परागत समाज के अंतर्विरोधों से जुड़े हैं. कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने
समलैंगिकों के अधिकारों की रक्षा करते हुए एक बड़ा फैसला सुनाया था. लगभग उसी
प्रकार का एक फैसला इस हफ्ते व्यभिचार (विवाहेतर सम्बंध) से जुड़ा है. हमारे देश
में व्यभिचार आईपीसी की धारा 497 के तहत अपराध है, पर यह धारा केवल पुरुषों पर
लागू होती है. इसे रद्द करने की माँग पुरुषों को राहत देने के अनुरोध से की गई थी.
अलबत्ता अदालत ने इसे स्त्रियों के वैयक्तिक अधिकार से भी जोड़ा है.
Sunday, September 30, 2018
पाकिस्तान से निरर्थक डिबेट
पाकिस्तान में इमरान खान के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में बेहतरी की जो उम्मीदें बन रहीं थीं, वे फिर धराशायी हुईं हैं। ऐसा पहले भी होता रहा है। संयुक्त राष्ट्र महासभा में दोनों विदेशमंत्रियों के भाषणों से यह साफ है। इस सालाना डिबेट से कुछ नहीं होने वाला। वस्तुत: पाकिस्तान को ज्यादा भाव देना बंद करना चाहिए। वह अपने अंतर्वरोधों से खुद गड्ढे में गिरेगा। अगले एक दशक में दुनिया का सीन बदलने जा रहा है। हमें उसके बारे में सोचना चाहिए। आतंकवाद हमारी बड़ी चिंता जरूर है, पर वह हमारी अकेली समस्या नहीं है। जबतक पाकिस्तान में सेना या 'डीप स्टेट' का बोलबाला है, उसके रुख में बुनियादी बदलाव नहीं होगा। महासभा की बैठक के हाशिए पर विदेश मंत्रियों की मुलाकात उम्मीद जरूर थी, पर इस किस्म की बैठकों के लिए भी न्यूनतम सौहार्द का माहौल होना चाहिए। वह नहीं है।
इमरान खान के पत्र की प्रतिक्रिया में भारत ने विदेशमंत्रियों की मुलाकात को स्वीकार कर भी लिया था, पर तीन पुलिसकर्मियों के अपहरण और उनकी हत्या और फिर बीएसएफ के एक जवान की गर्दन काटने की खबर आने के बाद देश में गुस्से की लहर दौड़ना स्वाभाविक था। इस धूर्तता का पता गत 24 जुलाई को पाकिस्तान के डाक-तार विभाग विभाग द्वारा जारी 20 डाक टिकटों की एक सीरीज से भी लगता है। इन डाक टिकटों में कश्मीर की गतिविधियों को रेखांकित किया गया है। इनमें एक डाक टिकट बुरहान वानी का स्वतंत्रता सेनानी के रूप में महिमामंडन करता है, जबकि भारत उसे आतंकवादी मानता है। ज़ाहिर है कि पाकिस्तान कश्मीर में अपनी गतिविधियों को सही मानता है। इन बातों को देखते हुए यदि भारत सरकार बातचीत की पहल करेगी, तो उसे देश की नाराजगी का सामना करना पड़ेगा। पाकिस्तान कश्मीर में अपनी गतिविधियाँ बढ़ाकर बातचीत का दबाव बनाना चाहता है। उसकी दिलचस्पी कश्मीर में है, सहयोग, सद्भाव और कारोबार में नहीं। बातचीत किसी न किसी स्तर पर हमेशा चलती है और भविष्य में भी चलेगी, पर उसका समारोह तभी मनेगा जब उसका माहौल होगा।
भाषणों की कड़वाहट बताती है कि रिश्तों में बेहतरी की उम्मीद निरर्थक है। अलबत्ता भारत को वैश्विक स्तर पर अपनी स्थिति को बेहतर बनाना चाहिए। हम मजबूत नहीं होंगे, तो प्रतिस्पर्धी हमें आँखें दिखाएंगे। सुषमा स्वराज ने पर्यावरण रक्षा के वैश्विक प्रयासों और उनमें भारत की भूमिका का जिक्र किया और संरा सुरक्षा परिषद में अपनी दावेदारी का भी। उन्होंने कहा, पाकिस्तान न सिर्फ आतंकवाद को बढ़ावा देता है बल्कि वह इसे नकारता भी है। पाकिस्तानी विदेशमंत्री ने कहा, शांति तब तक नहीं होगी जब तक संयुक्त राष्ट्र के समझौतों के तहत समाधान नहीं होता। सुषमा स्वराज ने कहा, 91/1 का मास्टरमाइंड तो मारा गया, लेकिन 26/11 का मांस्टरमाइंड पाकिस्तान में छुट्टा घूम रहा है। सवाल है कि दुनिया क्या चाहती है? अमेरिका पर हमला आतंकवाद, तो हमपर हमला क्या है? जैशे मोहम्मद और लश्करे तैयबा क्या हैं? हम चाहते हैं कि आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक संधि हो। दुनिया आतंकवाद का रोना तो रोती है, पर उसकी परिभाषा तक तय नहीं करती। रास्ता एक है, पहले दुनिया हमारा महत्व माने, फिर आगे बात करें।
इमरान खान के पत्र की प्रतिक्रिया में भारत ने विदेशमंत्रियों की मुलाकात को स्वीकार कर भी लिया था, पर तीन पुलिसकर्मियों के अपहरण और उनकी हत्या और फिर बीएसएफ के एक जवान की गर्दन काटने की खबर आने के बाद देश में गुस्से की लहर दौड़ना स्वाभाविक था। इस धूर्तता का पता गत 24 जुलाई को पाकिस्तान के डाक-तार विभाग विभाग द्वारा जारी 20 डाक टिकटों की एक सीरीज से भी लगता है। इन डाक टिकटों में कश्मीर की गतिविधियों को रेखांकित किया गया है। इनमें एक डाक टिकट बुरहान वानी का स्वतंत्रता सेनानी के रूप में महिमामंडन करता है, जबकि भारत उसे आतंकवादी मानता है। ज़ाहिर है कि पाकिस्तान कश्मीर में अपनी गतिविधियों को सही मानता है। इन बातों को देखते हुए यदि भारत सरकार बातचीत की पहल करेगी, तो उसे देश की नाराजगी का सामना करना पड़ेगा। पाकिस्तान कश्मीर में अपनी गतिविधियाँ बढ़ाकर बातचीत का दबाव बनाना चाहता है। उसकी दिलचस्पी कश्मीर में है, सहयोग, सद्भाव और कारोबार में नहीं। बातचीत किसी न किसी स्तर पर हमेशा चलती है और भविष्य में भी चलेगी, पर उसका समारोह तभी मनेगा जब उसका माहौल होगा।
भाषणों की कड़वाहट बताती है कि रिश्तों में बेहतरी की उम्मीद निरर्थक है। अलबत्ता भारत को वैश्विक स्तर पर अपनी स्थिति को बेहतर बनाना चाहिए। हम मजबूत नहीं होंगे, तो प्रतिस्पर्धी हमें आँखें दिखाएंगे। सुषमा स्वराज ने पर्यावरण रक्षा के वैश्विक प्रयासों और उनमें भारत की भूमिका का जिक्र किया और संरा सुरक्षा परिषद में अपनी दावेदारी का भी। उन्होंने कहा, पाकिस्तान न सिर्फ आतंकवाद को बढ़ावा देता है बल्कि वह इसे नकारता भी है। पाकिस्तानी विदेशमंत्री ने कहा, शांति तब तक नहीं होगी जब तक संयुक्त राष्ट्र के समझौतों के तहत समाधान नहीं होता। सुषमा स्वराज ने कहा, 91/1 का मास्टरमाइंड तो मारा गया, लेकिन 26/11 का मांस्टरमाइंड पाकिस्तान में छुट्टा घूम रहा है। सवाल है कि दुनिया क्या चाहती है? अमेरिका पर हमला आतंकवाद, तो हमपर हमला क्या है? जैशे मोहम्मद और लश्करे तैयबा क्या हैं? हम चाहते हैं कि आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक संधि हो। दुनिया आतंकवाद का रोना तो रोती है, पर उसकी परिभाषा तक तय नहीं करती। रास्ता एक है, पहले दुनिया हमारा महत्व माने, फिर आगे बात करें।
बदलते समाज के फैसले
सुप्रीम कोर्ट के कुछ बड़े फैसलों के लिए पिछला हफ्ता याद किया जाएगा। इस हफ्ते कम के कम छह ऐसे फैसले आए हैं, जिनके गहरे सामाजिक, धार्मिक, न्यायिक और राजनीतिक निहितार्थ हैं। संयोग से वर्तमान मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के कार्यकाल का यह अंतिम सप्ताह भी था। उनका कार्यकाल इसलिए महत्वपूर्ण रहा, क्योंकि वे देश के पहले ऐसे मुख्य न्यायाधीश हैं, जिनके खिलाफ संसद के एक सदन में महाभियोग की सूचना दी गई और यह मामला सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर भी गया। उनके कार्यकाल में कुछ ऐसे मामले आए, जिन्हें लेकर राजनीति और समाज में तीखे मतभेद हैं। इनमें जज लोया और अयोध्या के मामले शामिल हैं। ये बदलते भारतीय समाज के अंतर्विरोध हैं, जो अदालती फैसलों में नजर आ रहे हैं।
Tuesday, September 18, 2018
मोदी के ‘स्वच्छाग्रह’ के राजनीतिक मायने
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 सितंबर से ‘स्वच्छता ही सेवा अभियान’ शुरू किया है, जो 2 अक्टूबर तक चलेगा. इस 2
अक्टूबर से महात्मा गांधी का 150वाँ जयंती वर्ष भी शुरू हो रहा है. व्यापक अर्थ
में यह गांधी के अंगीकार का अभियान है, जिसके सामाजिक और राजनीतिक निहितार्थ भी
हैं. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने गांधी, पटेल और लाल
बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं को अपने साथ जोड़ा है. उनके कार्यक्रमों पर चलने की
घोषणा भी की है. यह एक प्रकार की 'सॉफ्ट राजनीति' है. इसका प्रभाव वैसा ही है, जैसा योग दिवस का है. मोदी ने गांधी को अंगीकार किया है, जिसका विरोध कांग्रेस नहीं कर सकती.
अगले महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 31
अक्टूबर को स्टैच्यू ऑफ यूनिटी (सरदार वल्लभभाई पटेल की मूर्ति) का प्रतिमा का अनावरण
भी करेंगे, जो दुनिया की सबसे ऊँची प्रतिमा है. पिछले चार साल में नरेंद्र मोदी
सरकार ने न केवल कांग्रेस के सामाजिक आधार को ध्वस्त करने की कोशिश की है, बल्कि उसके लोकप्रिय मुहावरों को भी छीना है. उनके
‘स्वच्छ भारत अभियान’ का प्रतीक चिह्न गांधी का गोल चश्मा है. गांधी
के सत्याग्रह के तर्ज पर मोदी ने ‘स्वच्छाग्रह’ शब्द का इस्तेमाल किया.
Sunday, September 16, 2018
‘आंदोलनों’ की सिद्धांतविहीनता
बंद, हड़ताल,
घेराव, धरना और विरोध प्रदर्शन हमारी राजनीतिक
संस्कृति के अटूट अंग बन चुके हैं। स्वतंत्रता आंदोलन से निकली इस राजनीति की
धारणा है कि सार्वजनिक हितों की रक्षा का जिम्मा हरेक दल के पास है। ऐसा सोचना गलत
भी नहीं है, पर सार्वजनिक हित-रक्षा के लिए हरेक दल अपनी
रणनीति, विचार और गतिवधि को सही मानकर पूरे
देश को अपनी बपौती मानना शुरू कर दिया है, जिससे आंदोलनों की मूल भावना पिटने लगी है। अक्सर वही आंदोलन सफल माना जाता है, जो हिंसा फैलाने में कामयाब हो।
स्वतंत्रता आंदोलन से निकली राजनीति के अलावा
देश की कम्युनिस्ट पार्टियों के पास रूस और चीन के उदाहरण हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों
के पास मजदूर और किसान संगठन हैं, जिन्हें व्यवस्था से कई तरह की शिकायतें हैं।
देश की प्रशासनिक व्यवस्था से नागरिकों को तमाम शिकायतें हैं। इनका निवारण तबतक
नहीं होता जबतक आंदोलन का रास्ता अपनाया न जाए। यह पूरी बात का एक पहलू है। इन
आंदोलनों की राजनीतिक भूमिका पर भी ध्यान देना होगा।
Tuesday, September 11, 2018
सामाजिक बदलाव में नागरिक समाज की भूमिका
धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ का फैसला आने के
बाद सवाल पैदा होता है कि इसे क्या हम समलैंगिक रिश्तों की सर्वस्वीकृति मानें? क्या यह वास्तव में एक नई आजादी है, जैसाकि एक अंग्रेजी
अखबार ने शीर्षक दिया है ‘इंडिपेंडेंस
डे-2’ यानी कि
यह दूसरा स्वतंत्रता दिवस है। इस किस्म की प्रतिक्रियाएं अंग्रेजी मीडिया में
ज्यादा हैं। इनसे देखने से लगता है कि कोई बड़ी क्रांति हो गई है। इसके विपरीत परम्परावादियों
की प्रतिक्रिया निराशा से डूबी है। उन्हें लगता है कि व्यवस्था ने ‘पापाचार’
को वैध और सही मान लिया है। एक तीसरी प्रतिक्रिया भी सम्भव है कि ठीक है कि
समलैंगिकता को आपराधिक दायरे से बाहर रखें, पर यह समाज को स्वीकार्य नहीं है।
Sunday, September 9, 2018
समलैंगिकता की हकीकत को स्वीकारें
धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ का फैसला आने के
बाद तीन किस्म की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। एक प्रतिक्रिया इस फैसले के स्वागत
में है और दूसरी इसके विरोध में। अंग्रेजी के कुछ अखबारों और चैनलों को देखने से
लगता है कि कोई बड़ी क्रांति हो गई है। एक अखबार ने शीर्षक दिया है ‘इंडिपेंडेंस डे-2’
यानी कि यह दूसरा स्वतंत्रता दिवस है। इसके विपरीत शुद्धतावादियों की प्रतिक्रिया
निराशा से डूबी है। उन्हें लगता है कि व्यवस्था ने ‘पापाचार’
को वैध और सही मान लिया है। एक तीसरी प्रतिक्रिया है कि ठीक है कि समलैंगिकता को
आपराधिक दायरे से बाहर रखें, पर यह समाज को स्वीकार्य नहीं है।
हमारे समाज को ही नहीं, अभी यह दुनिया के तमाम समाजों को
स्वीकार नहीं है। सच यह है कि प्राकृतिक रूप से विषमलिंगी सम्बंध ही सहज हैं। पर
यह भी सच है कि दुनिया के सभी समाजों में आज से नहीं हजारों साल से समलैंगिक
सम्बंध होते रहे हैं। इन्हें रोकने के लिए अनेक देशों में कानून हैं और सजाएं दी
जाती हैं। हमारे देश में कुछ समय से समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर लाने की
मुहिम चल रही थी। इसके पीछे बुनियादी तर्क यह है कि यह व्यक्ति के निजी चयन का
मामला है। इसे अपराध के दायरे से बाहर लाना चाहिए। हमारी इसी अदालत में 2013 में
इस तर्क को अस्वीकार कर दिया, पर अब स्वीकार किया है, तो उसपर भी विचार करना
चाहिए। हकीकत को सभी स्तरों पर स्वीकार किया जाना चाहिए।
व्यावहारिक सच यह है कि देर-सबेर यह फैसला होना ही था। पिछले
साल हमारी सुप्रीम कोर्ट ने ‘प्राइवेसी’ को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया था। उस निर्णय की यह
तार्किक परिणति है। ऐसा नहीं है कि इस फैसले के बाद पूरा समाज समलैंगिक हो जाएगा।
अंततः यह समाज पर निर्भर करेगा कि वह किस रास्ते पर जाना चाहता है। समाज की मुख्य धारा इसे स्वीकार नहीं करेगी, पर कोई इस रास्ते पर जाता है, तो उसे
प्रताड़ित भी नहीं करेगी। भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के मुताबिक कोई किसी
पुरुष, स्त्री
या पशुओं से प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध संबंध बनाता है तो यह अपराध होगा। इस
अपराध के लिए उसे उम्रकैद या 10 साल तक की सजा के साथ आर्थिक दंड का भागी होना
पड़ेगा। इतनी भारी सजा के बोझ से वे लोग अब बाहर आ जाएंगे, जो इसके दबाव में थे। पर यह बहस जारी रहेगी कि समलैंगिकता प्राकृतिक गतिविधि है या नहीं।
Saturday, September 8, 2018
भारत-अमेरिका रिश्तों का अगला कदम
विदेशी मामलों को लेकर
भारत में जब बात होती है, तो ज्यादातर पाँच देशों
के इर्द-गिर्द बातें होती हैं। एक, पाकिस्तान,दूसरा चीन। फिर अमेरिका, रूस और ब्रिटेन। इन
देशों के आपसी रिश्ते हमें प्रभावित करते हैं। देश की आंतरिक राजनीति भी इन
रिश्तों के करीब घूमने लगती है। पिछले कुछ हफ्तों की गतिविधियाँ इस बात की गवाही दे
रहीं हैं। कश्मीर में घटनाक्रम तेजी से बदला है। उधर पाकिस्तान में इमरान खान की
नई सरकार समझ नहीं पा रही है कि करना क्या है। इस बीच ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने खबर दी है कि
पाकिस्तानी सेना ने भारत के साथ रिश्तों को बेहतर बनाने की कोशिशें शुरू कर दी
हैं। आर्थिक मसलों को लेकर अमेरिका और चीन के रिश्ते बिगड़ते जा रहे हैं। भारत और
अमेरिका के रिश्तों में भी कुछ समय से कड़वाहट है। दोनों देशों के बीच लगातार टल
रही ‘टू प्लस टू वार्ता’ अंततः इस हफ्ते हो जाने
के बाद असमंजस के बादल हटे हैं।
जून के तीसरे हफ्ते मुख्यमंत्री
महबूबा मुफ्ती के इस्तीफा देने के बाद से कश्मीर में घटनाक्रम तेजी से बदला है। इसके
फौरन बाद कश्मीर में एक दशक से जमे जमाए राज्यपाल रहे एनएन वोहरा का कार्यकाल समाप्त
हो गया। उनकी जगह अगस्त के तीसरे हफ्ते में सतपाल मलिक ने राज्य के राज्यपाल का
पदभार ग्रहण किया। सतपाल मलिक इसके पहले बिहार के राज्यपाल थे। राज्य के पुलिस
प्रमुख भी बदल दिए गए हैं। नए राज्यपाल के आने के पहले ही राज्य के शहरी और
ग्रामीण निकाय चुनाव इस अक्तूबर और नवम्बर में कराने की घोषणा हो गई थी। उस घोषणा
की प्रतिक्रिया में राजनीतिक लहरें बनने लगी हैं।
सवाल है कश्मीर को लेकर
सरकार क्या कोई बड़ा फैसला करने वाली है? उधर लोकसभा चुनाव करीब हैं। चुनाव के पहले क्या कोई बड़ा फैसला करना सम्भव है?पर मन यह भी कहता है कि चुनाव के
पहले बड़े नाटकीय फैसले सम्भव भी हैं। इस सिलसिले में दिल्ली में गुरुवार को भारत
और अमेरिका के रक्षा और विदेश मंत्रियों की बहुप्रतीक्षित ‘टू प्लस टू वार्ता’के निहितार्थों को समझने की कोशिश भी करनी चाहिए। भारत की विदेश मंत्री सुषमा
स्वराज और रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण तथा अमेरिका के विदेश मंत्री माइक
पोम्पियो और रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस ने इस वार्ता में हिस्सा लिया।
Sunday, September 2, 2018
राफेल पर राजनीति की छाया
केन्द्र सरकार के लिए इस हफ्ते का आखिरी दिन खुशखबरी लेकर आया। खबर है कि इस वित्तीय वर्ष के पहली तिमाही में अर्थ-व्यवस्था में 8.2 फीसदी की दर से इजाफा हुआ है। इसका सबसे सकारात्मक पक्ष है मैन्यूफैक्चरिंग और फार्म सेक्टर का बेहतर प्रदर्शन। ये दोनों सेक्टर रोजगार देते हैं। लगता यह है कि नोटबंदी और जीएसटी के कारण दबाव में आई अर्थव्यवस्था फिर से रास्ते पर आ रही है। इससे पहले 2015-16 की पहली तिमाही में जीडीपी में सबसे तेज वृद्धि दर्ज हुई थी। पिछले वित्त वर्ष की चौथी तिमाही में जीडीपी वृद्घि दर 7.7 फीसदी रही थी। बहरहाल इस तिमाही में भारत एकबार फिर से सबसे तेजी से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था बन गया है। चीन की वृद्घि दर पहली तिमाही में घटकर 6.7 फीसदी रह गई है।
इस खुशखबरी के बावजूद केन्द्र सरकार पर विरोधियों के हमले बढ़ जा रहे हैं। चुनाव नजदीक आ रहे हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के कारण सरकार दबाव में आई है। कांग्रेस ने राफेल विमान के सौदे को चुनाव का मुद्दा बनाने का फैसला किया है। राहुल गांधी ने कई बार कहा है कि राफेल-डील में कोई घोटाला है। क्या घोटाला है, यह पार्टी ने स्पष्ट नहीं किया है। पार्टी इतना जरूर कह रही है कि हमने जो सौदा किया था, उसके मुकाबले सरकार अब बहुत ज्यादा कीमत दे रही है। दूसरे इसके ऑफसेट में सरकार की पसंदीदा कम्पनियों को फायदा पहुँचाने का आरोप भी है।
इस खुशखबरी के बावजूद केन्द्र सरकार पर विरोधियों के हमले बढ़ जा रहे हैं। चुनाव नजदीक आ रहे हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के कारण सरकार दबाव में आई है। कांग्रेस ने राफेल विमान के सौदे को चुनाव का मुद्दा बनाने का फैसला किया है। राहुल गांधी ने कई बार कहा है कि राफेल-डील में कोई घोटाला है। क्या घोटाला है, यह पार्टी ने स्पष्ट नहीं किया है। पार्टी इतना जरूर कह रही है कि हमने जो सौदा किया था, उसके मुकाबले सरकार अब बहुत ज्यादा कीमत दे रही है। दूसरे इसके ऑफसेट में सरकार की पसंदीदा कम्पनियों को फायदा पहुँचाने का आरोप भी है।
Saturday, September 1, 2018
लोकतांत्रिक ‘सेफ्टी वॉल्वों’ पर वार
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और उसके बाद शुरू हुई ‘बहस’ और ‘अदालती कार्यवाही’ कई मानों में लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण है। एक तरफ देश में फासीवाद, नाजीवाद के पनपने के आरोप हैं, वहीं हमारे बीच ऐसे व्यक्ति और संगठन हैं, जो रात-रात भर अदालतों में गुहार लगा सकते हैं। ऐसे में इस व्यवस्था को फासिस्ट कैसे कहेंगे? हमारी अदालतें नागरिक अधिकारों के पक्ष में हस्तक्षेप कर रहीं हैं। मीडिया पर तमाम तरह के आरोप हैं, पर ऐसा नहीं कि इस मामले में सामाजिक कार्यकर्ताओं के पक्ष को सामने रखा न गया हो।
इस मामले का 2019 की चुनावी राजनीति से कहीं न कहीं सीधा रिश्ता है। बीजेपी की सफलता के पीछे दलित और ओबीसी वोट भी है। बीजेपी-विरोधी राजनीति उस वोट को बीजेपी से अलग करना चाहती है। रोहित वेमुला प्रकरण एक प्रतीक है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लम्बे अरसे से दलितों और खासतौर से जनताजातीय इलाकों में सक्रिय है। यह इस प्रकरण का आंतरिक पक्ष है। सवाल यह है कि बीजेपी ने उन लोगों पर कार्रवाई क्यों की जो सीधे उसके राजनीतिक प्रतिस्पर्धी नहीं हैं? दूसरा सवाल यह है कि यदि ये ताकतें बीजेपी को परास्त करने की योजना में शामिल हैं, तो यह योजना किसकी है? इन बातों पर अलग से विचार करने की जरूरत है।
फिलहाल इस प्रकरण का सीधा वास्ता हमारी राजनीतिक-व्यवस्था और लोकतांत्रिक संस्थाओं से है, जो परेशान करने वाला है। साथ ही भारतीय राष्ट्र-राज्य की एकता और अखंडता के सवाल भी हैं, जिनकी तरफ हम देख नहीं पा रहे हैं। बदलते भारत और उसके भीतर पनपने वाले उदार लोकतांत्रिक समाज की परिकल्पना के बरक्स कई प्रकार की अंतर्विरोधी धाराओं का टकराव भी देखने को मिल रहा है।
अधिकारों की रक्षा और नागरिकों की सुरक्षा के सवाल बेहद महत्वपूर्ण हैं, पर यह मामला ज्यादा बड़े राजनीतिक विमर्श से जुड़ा है। इसके साथ 1947 की आजादी के बाद राष्ट्र-राज्य के गठन की प्रक्रिया और विकास की धारा से कटे आदिवासियों, दलितों और वंचितों के सवाल भी हैं। इस मामले के कानूनी, राजनीतिक और राष्ट्र-राज्य के संरक्षण से जुड़े तीन अलग-अलग पहलू हैं। तीनों गड्ड-मड्ड हो रहे हैं। उन्हें सही परिप्रेक्ष्य में समझने के जरूरत है।
सेफ्टी वॉल्व
इन दिनों शब्द चल रहा है अर्बन नक्सली। सच यह है कि बड़ी संख्या में लोग माओवादी, कम्युनिस्ट, नक्सवादी, लिबरल और वामपंथी वगैरह के अर्थ नहीं जानते। अक्सर सबको एक मानकर चलते हैं। सामाजिक जीवन से जुड़े वकील, अध्यापक, साहित्यकार या दूसरे कार्यकर्ता काफी खुले तरीके से सोचते हैं। क्या उनकी राजनीतिक असहमतियों को देश-द्रोह का दर्जा देना चाहिए? इस मामले के कुछ पहलुओं की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में हो रही है। जिस बेंच में सुनवाई हो रही है उसके एक सदस्य जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा है, ‘असहमति, लोकतंत्र का सेफ्टी वॉल्व है। असहमति को अनुमति नहीं दी गई तो प्रेशर कुकर फट सकता है।’
पिछले 71 वर्षों में भारतीय लोकतंत्र ऐसे सेफ्टी वॉल्वों की वजह से सुरक्षित है। इसमें राष्ट्र-राज्य की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। क्या वर्तमान राजनीतिक सत्ता-प्रतिष्ठान के फैसले चरमपंथी हैं? क्या उसके पहले के सत्ता-प्रतिष्ठान की रीति-नीति फर्क थी? इस चर्चा के दौरान तथ्य सामने आएंगे। जिनके आधार पर हमें आमराय बनाने का मौका मिलेगा। लोकतांत्रिक विकास का यह भी एक दौर है। जरूरी है कि इस बहस को राष्ट्रीय स्तर पर आगे बढ़ाएं।
अधिकारों की रक्षा और नागरिकों की सुरक्षा के सवाल बेहद महत्वपूर्ण हैं, पर यह मामला ज्यादा बड़े राजनीतिक विमर्श से जुड़ा है। इसके साथ 1947 की आजादी के बाद राष्ट्र-राज्य के गठन की प्रक्रिया और विकास की धारा से कटे आदिवासियों, दलितों और वंचितों के सवाल भी हैं। इस मामले के कानूनी, राजनीतिक और राष्ट्र-राज्य के संरक्षण से जुड़े तीन अलग-अलग पहलू हैं। तीनों गड्ड-मड्ड हो रहे हैं। उन्हें सही परिप्रेक्ष्य में समझने के जरूरत है।
सेफ्टी वॉल्व
इन दिनों शब्द चल रहा है अर्बन नक्सली। सच यह है कि बड़ी संख्या में लोग माओवादी, कम्युनिस्ट, नक्सवादी, लिबरल और वामपंथी वगैरह के अर्थ नहीं जानते। अक्सर सबको एक मानकर चलते हैं। सामाजिक जीवन से जुड़े वकील, अध्यापक, साहित्यकार या दूसरे कार्यकर्ता काफी खुले तरीके से सोचते हैं। क्या उनकी राजनीतिक असहमतियों को देश-द्रोह का दर्जा देना चाहिए? इस मामले के कुछ पहलुओं की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में हो रही है। जिस बेंच में सुनवाई हो रही है उसके एक सदस्य जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा है, ‘असहमति, लोकतंत्र का सेफ्टी वॉल्व है। असहमति को अनुमति नहीं दी गई तो प्रेशर कुकर फट सकता है।’
पिछले 71 वर्षों में भारतीय लोकतंत्र ऐसे सेफ्टी वॉल्वों की वजह से सुरक्षित है। इसमें राष्ट्र-राज्य की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। क्या वर्तमान राजनीतिक सत्ता-प्रतिष्ठान के फैसले चरमपंथी हैं? क्या उसके पहले के सत्ता-प्रतिष्ठान की रीति-नीति फर्क थी? इस चर्चा के दौरान तथ्य सामने आएंगे। जिनके आधार पर हमें आमराय बनाने का मौका मिलेगा। लोकतांत्रिक विकास का यह भी एक दौर है। जरूरी है कि इस बहस को राष्ट्रीय स्तर पर आगे बढ़ाएं।
Wednesday, August 29, 2018
आक्रामक राहुल गांधी
राहुल गांधी ने हाल में जर्मनी और ब्रिटेन में कुछ ऐसी बातें कही हैं, जिन्हें लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी ने उनके बयानों को देश-विरोधी बताया है, वहीं किसी ने राहुल के खिलाफ मुकदमा भी दायर किया है. मुजफ्फरपुर में इस केस को दायर करने वाले का आरोप है कि राहुल ने देश का अपमान किया है. राहुल गांधी ने भाजपा और आरएसएस की तुलना कट्टरपंथी इस्लामी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड से की थी. इसके जवाब में बीजेपी की ओर से कहा गया कि उन्हें भारत की अभिकल्पना के साथ धोखा बंद करना चाहिए. राहुल गांधी ने जर्मनी के हैम्बर्ग में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा था कि नोटबंदी और जीएसटी के कारण बेरोज़गारी बढ़ी और लोगों के अंदर पनपे ग़ुस्से के कारण मॉब-लिंचिंग की घटनाएं होने लगी हैं. उनका यह भी कहना था कि विश्व में कहीं भी लोगों को विकास की प्रक्रिया से दूर रखा जाता है तो आईएस जैसे गुटों को बढ़ावा मिलता है.
पिछले एक साल में राहुल गांधी ने बीजेपी पर आक्रामक प्रहार किए हैं. हाल में संसद में पेश किए गए अविश्वास प्रस्ताव पर उनके भाषण और उसके बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गले लगने से बीजेपी दबाव में आई है. यह आक्रामकता स्वाभाविक है और उन्हें सरकार की आलोचना करने और उसकी गलतियों को उजागर करने का पूरा अधिकार है. अलबत्ता दो सवाल उनके बयानों के साथ जुड़े हुए हैं. पहला, वे अपनी बातों को कहने के लिए संसद और भारतीय मंचों का उपयोग करने के बजाय विदेशी मंचों का इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं? और दूसरे, इस प्रकार की बातों से क्या विदेश में भारत की नकारात्मक छवि बनती है? उन्होंने डोकलाम और भारत-पाक रिश्तों के संदर्भ में कुछ बातें कही हैं. कुछ दशक पहले तक भारतीय राजनीति में विदेश नीति पर सहमति रहती थी. हम उस परम्परा से हट रहे हैं. क्या यह सही राजनीति है और इसके लिए जिम्मेदार कौन है?
पिछले एक साल में राहुल गांधी ने बीजेपी पर आक्रामक प्रहार किए हैं. हाल में संसद में पेश किए गए अविश्वास प्रस्ताव पर उनके भाषण और उसके बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गले लगने से बीजेपी दबाव में आई है. यह आक्रामकता स्वाभाविक है और उन्हें सरकार की आलोचना करने और उसकी गलतियों को उजागर करने का पूरा अधिकार है. अलबत्ता दो सवाल उनके बयानों के साथ जुड़े हुए हैं. पहला, वे अपनी बातों को कहने के लिए संसद और भारतीय मंचों का उपयोग करने के बजाय विदेशी मंचों का इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं? और दूसरे, इस प्रकार की बातों से क्या विदेश में भारत की नकारात्मक छवि बनती है? उन्होंने डोकलाम और भारत-पाक रिश्तों के संदर्भ में कुछ बातें कही हैं. कुछ दशक पहले तक भारतीय राजनीति में विदेश नीति पर सहमति रहती थी. हम उस परम्परा से हट रहे हैं. क्या यह सही राजनीति है और इसके लिए जिम्मेदार कौन है?
Sunday, August 26, 2018
जनता के भरोसे को कायम नहीं रख पाई ‘आप’
हाल में पहले आशुतोष और फिर आशीष खेतान के इस्तीफों की खबर मिलने के बाद आम आदमी पार्टी फिर चर्चा में है। दोनों नेताओं ने इस मामले में सफाई नहीं दी। आशुतोष ने इसे निजी मामला बताया और खेतान ने कहा कि मैं वकालत के पेशे पर ध्यान लगाना चाहता हूँ, इसलिए सक्रय राजनीति छोड़ रहा हूँ। न इस्तीफों पर अभी फैसला नहीं हुआ है। यानी कि किसी स्तर पर मान-मनौवल की उम्मीदें अब भी हैं। बहरहाल फैसला जो भी हो, आम आदमी पार्टी को लेकर तीन सवाल खड़े हो रहे हैं। बड़ी तेजी से बढ़ने के बाद क्या यह पार्टी अब गिरावट की ओर है? क्या इस गिरावट के कारण वैकल्पिक राजनीति के प्रयासों के धक्का लगेगा? तीसरे क्या वजह है, जो ऐसी नौबत आई?
द प्रिंट में प्रकाशित इस लेख को भी पढ़ें
पार्टी के हमदर्द कह सकते हैं कि गिरावट है ही नहीं और जो हो रहा है, वह सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया है। सभी पार्टियों में ऐसा होता है। बात सही है, पर इसे क्या दूसरे दलों की तरह होना चाहिए? आने-जाने की भी कोई इंतहा है। पिछले कुछ समय में इसकी भीतरी खींचतान कुछ ज्यादा ही मुखर हुई है। पार्टी से हटने की प्रवृत्तियाँ अलग-अलग किस्म की हैं। कुछ लोग खुद हटे और कुछ हटाए गए। योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण और आनन्द कुमार का हटना बड़ी परिघटना थी, जिससे पार्टी टूटी तो नहीं, पर उससे इतना जाहिर जरूर हुआ कि इसकी राजनीति इतनी ‘नई’ नहीं है, जितनी बताई जा रही है। पार्टी ने इस प्रकार के प्रश्नों पर विचार करने के लिए जो व्यवस्था बनाई थी, वह विफल हो गई। वस्तुतः पार्टी की एक केन्द्रीय हाईकमान नजर आने लगी।
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