Sunday, September 16, 2018

‘आंदोलनों’ की सिद्धांतविहीनता

बंद, हड़ताल, घेराव, धरना और विरोध प्रदर्शन हमारी राजनीतिक संस्कृति के अटूट अंग बन चुके हैं। स्वतंत्रता आंदोलन से निकली इस राजनीति की धारणा है कि सार्वजनिक हितों की रक्षा का जिम्मा हरेक दल के पास है। ऐसा सोचना गलत भी नहीं है, पर सार्वजनिक हित-रक्षा के लिए हरेक दल अपनी रणनीति, विचार और गतिवधि को सही मानकर पूरे देश को अपनी बपौती मानना शुरू कर दिया है, जिससे आंदोलनों की मूल भावना पिटने लगी है। अक्सर वही आंदोलन सफल माना जाता है, जो हिंसा फैलाने में कामयाब हो। 
स्वतंत्रता आंदोलन से निकली राजनीति के अलावा देश की कम्युनिस्ट पार्टियों के पास रूस और चीन के उदाहरण हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों के पास मजदूर और किसान संगठन हैं, जिन्हें व्यवस्था से कई तरह की शिकायतें हैं। देश की प्रशासनिक व्यवस्था से नागरिकों को तमाम शिकायतें हैं। इनका निवारण तबतक नहीं होता जबतक आंदोलन का रास्ता अपनाया न जाए। यह पूरी बात का एक पहलू है। इन आंदोलनों की राजनीतिक भूमिका पर भी ध्यान देना होगा।

देश के ज्यादातर राज्य साल में दो-चार बार आंदोलनों से रूबरू जरूर होते हैं। बंगाल में इनका इस्तेमाल जमकर हुआ है। घेरावशब्द का आविष्कार बंगाल की वाममोर्चा सरकार के मंत्री सुबोध बनर्जी ने 1967 में किया था। वे लोकप्रिय नेता थे और मंत्री बन जाने के बाद भी उन्हें घेराव मंत्री कहा जाता था। घेराव’  शब्द इतना चर्चित हुआ था कि सन 2004 में उसे ऑक्सफर्ड डिक्शनरी में शामिल कर लिया गया। बंद शब्द भी वामपंथी शब्दावली की देन है। इसी आंदोलनकारी राजनीति के सहारे ममता बनर्जी ने वाममोर्चा को बाहर का रास्ता दिखाया था।
आंदोलनों का यह एक पहलू है। उनपर अब राजनीतिक दलों का कब्जा है। नागरिकों के आंदोलन या तो होते नहीं और होते हैं, तो आसानी से दबा दिए जाते हैं। हाल के वर्षों में नागरिकों का सबसे सफल आंदोलन सन 2012 के दिसम्बर महीने में दिल्ली के रेप कांड के विरोध में देखा गया था। पर दूसरी तरफ राजनीतिक आंदोलनों की बाढ़ आ रही है।
पिछले कुछ महीनों में हमने तीन भारत बंददेखे हैं। इनमें सबसे ताजा है 10 सितम्बर का भारत बंदजिसका आह्वान कांग्रेस पार्टी ने किया था और जिसे 20 के आसपास विरोधी दलों का समर्थन प्राप्त था। उसके पहले 6 सितम्बर को अनुसूचित जाति-जनजाति (एससी-एसटी) संशोधन अधिनियम के खिलाफ सवर्ण संगठनों ने भारत बंदका आयोजन किया। उसके पहले 2 अप्रेल को एससी/एसटी एक्ट को नरम बनाए जाने के विरोध में दलित समुदाय ने भारत बंदबुलाया। तीनों बंदों में हिंसा की खबरें आईं। 2 अप्रेल के बंद में 12 लोगों की मौत हुई। अक्सर देखा गया है कि ऐसे आंदोलनों के भीतर से कोई हिंसा को उकसाता है।
मई के महीने में तमिलनाडु के तूतीकोरिन जिले में वेदांता समूह की कंपनी इकाई स्टरलाइट इंडस्ट्रीज इंडिया लिमिटेड के खिलाफ महीनों से चल रहा प्रदर्शन उस दौरान और हिंसक हो गया जब पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी कर दी। इस फायरिंग में 12 लोगों की मौत हो गई। बड़ी संख्या में लोग घायल हुए। बाद में मद्रास हाईकोर्ट ने प्लांट को बंद करने का आदेश दिया। इस आदेश के कारण हजारों लोगों की रोजी खतरे में आ गई है। बेशक जिन कारणों से यह आंदोलन खड़ा हुआ था वे महत्वपूर्ण थे, पर आंदोलन की हिंसा से सारी कहानी बदल गई। बाद में अफसोस करने से कुछ होता नहीं है।  
पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों और दूसरे मसलों को लेकर कांग्रेस के नेतृत्व में विरोधी दलों का बंद इसलिए महत्वपूर्ण था, क्योंकि कांग्रेस पार्टी ने स्वतंत्रता के बाद के 71 साल के इतिहास में पहली बार बंद का आह्वान किया था। यह बात बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति को बताती है। अगले लोकसभा चुनाव के पहले ऐसे कई तरह के आंदोलनों के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। इस बंद के दौरान राजनीतिक नेताओं ने आगामी लोकसभा चुनाव में एकजुट होकर लड़ने एवं भाजपा को हराने का आह्वान किया। वामपंथी दलों ने कांग्रेस के अलावा अपने स्तर पर भी भारत बंदका आह्वान कर रखा था।
ऊपर वर्णित सभी बंदों और आंदोलनों में एकबात सामान्य है, हिंसा और तोड़फोड़। कहीं कम और कहीं ज्यादा, पर बंद की सफलता का एक पैमाना हिंसा है। बिहार के जहानाबाद में जाम में फंसने की वजह से एक बच्ची की भी मौत की खबर है। हालांकि सरकार का कहना था कि बच्ची की मौत जाम में फंसने की वजह से नहीं हुई, लेकिन परिजनों का कहना था कि वाहन समय से मिल जाता तो उसे बचाया जा सकता था।
सवाल बंद, हड़ताल और आंदोलनों की जरूरत और उनकी राजनीतिक अहमियत का नहीं है, बल्कि यह है कि इनसे सामान्य नागरिक को क्या मिलता है? बेशक महंगाई उसके सामने खड़ी बड़ी समस्या है, पर समाधान क्या है? क्या बंद से महंगाई दूर हो जाएगी? महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए सविनय अवज्ञा का रास्ता बताया था, हिंसा होते ही वे आंदोलन को वापस लेते थे। आज जबतक हिंसा नहीं होती, आंदोलन को सफल माना ही नहीं जाता।
देश की सर्वोच्च अदालत ने 17 सितम्बर 2005 को भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना पर 20-20 लाख रुपये का जुर्माना लगाया था। दोनों दलों पर 2003 में बंद आयोजित करने का आरोप था। यह धनराशि महाराष्ट्र के क्षतिपूर्ति कोष में जमा करने का आदेश दिया गया था। इस फैसले के पहले और इसके बाद भी आंदोलनों और हड़तालों की वैधता और उपादेयता पर बहस चलती रही है और भविष्य में भी चलेगी, पर हमें इसके बुनियादी तत्वों को समझना चाहिए।
संविधान का अनुच्छेद 19 नागरिकों को शांतिपूर्ण तरीके से एकत्र होने और विरोध व्यक्त करने की इजाजत देता है। विरोध-प्रदर्शन लोकतांत्रिक अधिकार है। उसे खत्म नहीं किया जा सकता, पर इस अधिकार की सीमाएं भी हैं। सन 1997 में केरल हाईकोर्ट ने भारत कुमार बनाम केरल राज्य मामले में बंद और हड़ताल को गैर-कानूनी करार दिया था। इसके बाद नवम्बर 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) बनाम भारत कुमार मामले में केरल हाईकोर्ट के इस फैसले को सही ठहराया।

अदालत ने कहा कि किसी व्यक्ति का मौलिक अधिकार दूसरे व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करके हासिल नहीं किया जा सकता। सवाल विरोध का नहीं, इस बात का है कि आप दूसरे लोगों के अधिकारों का कितना सम्मान कर रहे हैं। कोई व्यक्ति बेचारा कार से जा रहा है और आपने उसपर हमला करके तोड़ डाला। सिर्फ इसलिए कि आप विरोध व्यक्त करना चाहते हैं। यह अलोकतांत्रिक है। सार्वजनिक सम्पत्ति क्या हमारी नहीं है, जिसे नष्ट करना आप अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। 
हरिभूमि में प्रकाशित

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (17-09-2018) को "मौन-निमन्त्रण तो दे दो" (चर्चा अंक-3097) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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