कश्मीर विधानसभा भंग करने के फैसले ने एक तरफ राजनीतिक
और सांविधानिक विवादों को जन्म दिया है, वहीं राज्य की जटिल समस्या को शिद्दत के
साथ उभारा है. कुछ संविधान विशेषज्ञों ने विधानसभा भंग करने के राज्यपाल के अधिकार
को लेकर आपत्ति व्यक्त की है. सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था है कि सरकार बनने की
स्थिति है या नहीं, इसका फैसला सदन के फ्लोर पर होना चाहिए. राज्यपाल सतपाल मलिक का कहना है कि मैं किसी भी पार्टी को
सरकार बनाने का मौका देता तो राज्य में बड़े पैमाने पर खरीद-फरोख्त होती.
सरकार बनाने के लिए वहाँ दो तरह की खिचड़ियाँ
पक रहीं थीं. दोनों के स्थायित्व की गारंटी नहीं थी. पता नहीं कि राज्यपाल के फैसले को चुनौती दी जाएगी या नहीं, पर इसके
सांविधानिक निहितार्थ पर विचार जरूर किया जाना चाहिए. सवाल है कि विधानसभा भंग
करने की भी जल्दी क्या थी? लोकतांत्रिक विकल्प खोजने चाहिए थे. विधानसभा भंग होनी ही थी, तो जून
में क्यों नहीं कर दी गई, जब बीजेपी के समर्थन वापस लेने के बाद महबूबा मुफ्ती ने
इस्तीफा दिया था?
बहरहाल जनता के सामने जाने का फैसला अच्छा है, पर
कश्मीरी जनादेश जटिल होता है. वहाँ चुनाव कराना अपने आप में बड़ी चुनौती है. यह
जिम्मेदारी राजनीति दलों की होती है कि वे कम से कम इस राज्य को संकीर्णता के दायरे
से बाहर रखें. पर राजनीति ने जिम्मेदारी भूमिका निभाई होती, तो समस्या इतनी जटिल
नहीं होती. राज्यपाल ने भी जून में विधानसभा को अधर में रखकर नए गठजोड़ की
सम्भावना को जीवित रखा था.
जून में अनुभवी प्रशासक एनएन वोहरा की जगह जब बिहार के राज्यपाल सतपाल मलिक को राज्यपाल के
रूप में लाया गया, तब यह स्पष्ट था कि बीजेपी की भविष्य को लेकर कोई योजना है. कश्मीर
में 51 साल बाद इस पद पर किसी राजनेता की नियुक्ति हुई थी. सन 1967 में कर्ण सिंह के
हटने के बाद से राज्य में नौकरशाहों, राजनयिकों, पुलिस और फौज के अफसर ही राज्यपाल बनते
रहे हैं. बहरहाल बीजेपी की राजनीति तार्किक परिणति तक पहुँचती उसके पहले ही गठबंधन
राजनीति ने भी अपनी चाल चल दी. जैसा इस साल कर्नाटक में हुआ था, उससे मिलता-जुलता
कश्मीर में भी हुआ. पर सरकार बनाने की यह इच्छा नाटकीय थी. गठबंधन सिर्फ एक दिन का
था. इसमें शामिल दलों की दिलचस्पी एकसाथ आने की कत्तई नहीं थी.
सवाल अब तीन हैं. जो हुआ क्या वह लोकतांत्रिक
और सांविधानिक मर्यादा के अनुरूप है? इससे
कश्मीर के हालात सामान्य बनाने में मदद मिलेगी या बिगड़ेंगे? और
अब आगे क्या होगा? अरुणाचल और उत्तराखंड में ऐसे ही फैसले हुए थे
और केन्द्र को मुँह की खानी पड़ी थी. हो सकता है कि इस फैसले को भी कोई चुनौती दे.
अभी तक देश में किसी भंग विधानसभा को पुनर्जीवित नहीं किया गया है.
इस घटनाक्रम का घाटी की सामान्य
प्रशासनिक-अव्यवस्था पर असर पड़ेगा. भारत-विरोधी तत्वों को शह मिलेगी. हुर्रियत के
हौसले बुलंद होंगे. उधर जम्मू में भी इसकी प्रतिक्रिया होगी. सामाजिक ध्रुवीकरण की
प्रक्रिया और तेज होगी. घाटी में पीडीपी का प्रभाव कम होगा. कहना मुश्किल है कि
सज्जाद लोन की पीपुल्स कांफ्रेंस की स्थिति क्या होगी. क्या वह बीजेपी के साथ गठबंधन
में शामिल होगी? घाटी
में अस्तित्व रक्षा के लिए उसे बीजेपी के साथ आने से बचना होगा. हाल में हुए
स्थानीय निकाय चुनावों में मिली सफलता से सज्जाद लोन के हौसले बुलंद हैं.
सज्जाद लोन का
प्रभाव घाटी क्षेत्र में है. इस इलाके में पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस को लोन से खतरा
है. महबूबा मुफ्ती ने फौरी तौर पर सरकार
बनाने का दावा जरूर पेश किया था. पर चुनाव में वे न तो कांग्रेस के साथ गठबंधन
करेंगी और न नेशनल कांफ्रेंस के साथ. बीजेपी का जनाधार जम्मू और लद्दाख में है. कांग्रेस का
जनाधार भी उसी क्षेत्र में है, पर यह जनाधार कमजोर हो रहा है. बीजेपी को जम्मू और
लद्दाख में सफलता मिलती रही है, पर हाल में हुए स्थानीय निकाय चुनावों में लद्दाख
में उसे हार का सामना करना पड़ा है. बीजेपी
के सांसद थुप्सतान छेवांग ने पार्टी छोड़ दी है. उधर कठुआ गैंगरेप के मामले में प्रसिद्ध हुए लाल
सिंह ने बीजेपी छोड़कर डोगरा स्वाभिमान संगठन बना लिया है. यानी राज्य में
राजनीतिक दलों की स्थिति डांवांडोल ही है.
अगला सवाल है
कि चुनाव कब होंगे? सबसे
अच्छा मौका लोकसभा के चुनाव के साथ का है. केन्द्र सरकार यों भी एकसाथ चुनाव कराने
की पक्षधर है, इसलिए उसके पास इन्हें आगे के लिए टालने की सम्भावना नहीं है. मुख्य
चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने भी कहा है कि वहाँ मई से पहले चुनाव कराए जा सकते हैं.
चुनावों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट का सामान्य निर्देश है कि सदन भंग होने के छह
महीने के भीतर चुनाव हो जाने चाहिए.
आधुनिक भारत का
सबसे बड़ा राजनीतिक अंतर्विरोध जम्मू-कश्मीर में दिखाई पड़ता है. राज्य में कोई
ऐसी पार्टी नहीं है जो घाटी और जम्मू दोनों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती हो. भाजपा-पीडीपी
सरकार एक अभिनव प्रयोग था. गठबंधन के पहले दोनों पक्षों के बीच जिस न्यूनतम साझा
कार्यक्रम पर दस्तखत किए गए थे उसके अनुसार राज्य की राजनीति खंडित है. इस खंडित
राजनीति के दो विपरीत ध्रुवों ने एक साथ बैठकर जनादेश की जटिलता को समझने की कोशिश
की थी. पर यह प्रयोग भी विफल रहा.
इस सरकार के गठन
के पहले तकरीबन एक महीने तक भाजपा के महासचिव राम माधव और पीडीपी के नेता हसीन
अहमद द्राबू के बीच चंडीगढ़, जम्मू और दिल्ली में गठबंधन की बारीकियों पर चर्चा हुई
थी. हसीन अहमद द्राबू ने इस बात पर जोर दिया कि अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल
में कश्मीर के राजनीतिक समूहों के साथ शुरू की गई बातचीत का जिक्र भी किया जाए, जिसमें हुर्रियत भी
शामिल थी. ऐसा कुछ हुआ नहीं और राज्य में हालात खराब ही हुए हैं. शायद चुनाव के
बाद कोई नई शुरुआत हो.
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (26-11-2018) को "प्रारब्ध है सोया हुआ" (चर्चा अंक-3167) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक