Tuesday, September 11, 2018

सामाजिक बदलाव में नागरिक समाज की भूमिका


धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ का फैसला आने के बाद सवाल पैदा होता है कि इसे क्या हम समलैंगिक रिश्तों की सर्वस्वीकृति मानें? क्या यह वास्तव में एक नई आजादी है, जैसाकि एक अंग्रेजी अखबार ने शीर्षक दिया है इंडिपेंडेंस डे-2 यानी कि यह दूसरा स्वतंत्रता दिवस है। इस किस्म की प्रतिक्रियाएं अंग्रेजी मीडिया में ज्यादा हैं। इनसे देखने से लगता है कि कोई बड़ी क्रांति हो गई है। इसके विपरीत परम्परावादियों की प्रतिक्रिया निराशा से डूबी है। उन्हें लगता है कि व्यवस्था ने पापाचार को वैध और सही मान लिया है। एक तीसरी प्रतिक्रिया भी सम्भव है कि ठीक है कि समलैंगिकता को आपराधिक दायरे से बाहर रखें, पर यह समाज को स्वीकार्य नहीं है।

हमारे समाज को ही नहीं, अभी यह दुनिया के तमाम समाजों को स्वीकार नहीं है। सच यह है कि प्राकृतिक रूप से विषमलिंगी सम्बंध ही सहज हैं। पर यह भी सच है कि दुनिया के सभी समाजों में आज से नहीं हजारों साल से समलैंगिक सम्बंध होते रहे हैं। इन्हें रोकने के लिए अनेक देशों में कानून हैं और सजाएं दी जाती हैं। हमारे देश में कुछ समय से समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर लाने की मुहिम चल रही थी। इसके पीछे बुनियादी तर्क यह है कि यह व्यक्ति के निजी चयन का मामला है। इसे अपराध के दायरे से बाहर लाना चाहिए। हमारी इसी अदालत में 2013 में इस तर्क को अस्वीकार कर दिया, पर अब स्वीकार किया है, तो उसपर भी विचार करना चाहिए।
देर-सबेर यह फैसला होना ही था. परम्परावादियों, कृत्रिम शुद्धतावादियों और नैतिकतावादियों ने समाज, राजनीति और प्रशासनिक व्यवस्था को जिस दबाव में ले रखा था, उससे मुक्ति मिल गई. इस फैसले का महीन अर्थ यह है कि व्यक्ति अपने शरीर और निजी जीवन को लेकर फैसले करने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए. व्यक्ति, समाज और राज-व्यवस्था के रिश्तों को लेकर हाल में अदालत के कुछ बड़े फैसले हुए और कुछ जल्द सामने आने वाले हैं. ये फैसले हमारे आधुनिक होते समाज के लिए एक बड़ी कसौटी भी साबित होंगे.
इन फैसलों में सबसे बड़ी भूमिका सोशल एक्टिविस्ट्स की रही. साथ ही यह भी हम देख सकते हैं कि हमारा संविधान किस प्रकार से सामाजिक-बदलाव के महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में सामने आ रहा है. इन सवालों पर विचार करते समय अदालत और अपने नागरिक समाज की भूमिका पर भी बात करनी चाहिए. दूसरी तरफ समाज को भी बदलते समय की वास्तविकताओं को स्वीकार करना चाहिए, वैसे ही जैसे सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में 2013 के अपने ही फैसले को बदला है.
पिछले दो वर्षों में हमारी अदालतों ने कुछ महत्वपूर्ण फैसले किए हैं. इनमें पिछले साल का वह महत्वपूर्ण फैसला भी है, जिसमें प्राइवेसी को व्यक्ति का मौलिक अधिकार माना गया है. इसके अलावा दया मृत्यु या व्यक्ति के जीवन को त्यागने के अधिकार को लेकर एक और फैसला हुआ, जिसने जीवन के बुनियादी सवालों को छुआ है. हादिया मामले में जीवन साथी को चुनने के अधिकार पर भी सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था महत्वपूर्ण है.
धारा 377 के बारे में फैसला करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, इतने साल तक समान अधिकार से वंचित करने के लिए समाज को एलजीबीटी समुदाय से माफी माँगनी चाहिए. सच यह है कि जिस कृत्य को हम अपराध कह रहे हैं, वह हमारे जीवन और समाज में हजारों साल से उपस्थित है. वह स्वाभाविक और प्राकृतिक है या नहीं, यह बहस का दूसरा पहलू है. यह बहस खत्म नहीं हुई और न होगी. फिलहाल इतना तय हुआ है कि यह कानूनन अपराध नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ ने आईपीसी की धारा 377 के उस प्रावधान को रद्द कर दिया, जिसके तहत बालिगों के बीच सहमति से समलैंगिक संबंध अपराध था.
भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के मुताबिक कोई किसी पुरुष, स्त्री या पशुओं से प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध संबंध बनाता है तो यह अपराध होगा. इस अपराध के लिए उसे उम्रकैद या 10 साल तक की सजा के साथ आर्थिक दंड का भागी होना पड़ेगा. जजों के फैसले अलग-अलग हैं, पर सभी इस सवाल पर एकमत थे. आमराय थी कि यौन रुझान एक जैविक प्रवृत्ति है. इस पर रोक संवैधानिक अधिकारों का हनन है. व्यक्तिगत चयन का सम्मान करना होगा. सहमति से बालिगों के समलैंगिक संबंध हानिकारक नहीं है. और यौन रुझान का अधिकार नहीं देने का मतलब है निजता के अधिकार से वंचित करना.
इस फैसले का ऐतिहासिक महत्व जाहिर है, पर अदालत ने अल्पसंख्यकों के अधिकार से जोड़कर इसे एक नया रूप भी दिया है. सांविधानिक लोकतंत्र बहुमत के विचार की तुलना में अल्पसंख्यक विचार को बहुत महत्व देता है. संविधान में वर्णित मौलिक अधिकार केवल बहुसंख्यक व्यक्तियों के अधिकार नहीं हैं. केवल धार्मिक, जातीय और भाषाई अल्पसंख्यक ही नहीं होते. वैचारिक अल्पसंख्यक भी होते हैं और यह भी सच है कि उत्कृष्ट विचारक अल्पसंख्यक भी होते हैं. आम जनता के विचार और विशेषज्ञ के विचार में साम्य जरूरी नहीं है. इस विचार-वैषम्य का भी सम्मान होना चाहिए. हमें कबीर जैसे स्पष्ट वक्ता चाहिए, तो वैसी परिस्थितियाँ भी बनानी होंगी. बेशक बहुमत की राय तमाम फैसलों में महत्वपूर्ण होती है, पर विचार करते समय एकाध समझदारों की राय भी माने रखती है. यह फैसला कहता है कि समलैंगिक व्यक्ति को समाज के दुश्मन के रूप में निरूपित करना भी अन्याय है. वह निरंतर भय की स्थिति में रहता है. अदालत ने अपने फैसले में उन वैज्ञानिक शोधों का उल्लेख भी किया है, जो बताते हैं कि व्यक्ति का समलैंगिक-आकर्षण वैसा ही है जैसे विपरीतलिंगी-आकर्षण.
बेहतर होता कि अदालत के बजाय देश की संसद कानून में बदलाव करती, पर राजनीति ने इसकी हिम्मत नहीं जुटाई. इसका कारण है बहुसंख्यक-वर्ग की भावनाओं के विरुद्ध जाने का हौसला नहीं जुटा पाना. इससे यह बात भी प्रतिपादित होती है कि हमारे सामाजिक जीवन की तमाम उलझनें क्यों हैं. राजनीति की मजबूरी है कि उसे अपनी निगाहें वोट पर केन्द्रित करनी होती हैं. इसके कारण वह अक्सर गलत फैसले करती है. हमें जरूरत ऐसे व्यक्तियों और संस्थाओं की है, जो समाज को फटकार भी सकें. ऐसे में अदालतों की भूमिका बढ़ा जाती है. दुर्भाग्य से हाल के वर्षों में अदालत को भी राजनीति के अखाड़े में खींच लिया गया.
इस फैसले के निहितार्थ पर गौर करें तो पाएंगे कि इससे अदालतों के मार्फत सामाजिक बदलाव की सम्भावनाओं को बल मिला है. देश में अदालतों के मार्फत बदलाव लाने की कोशिशें कुछ लोग कर रहे हैं. उन्हें भी इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए. सन 1997 में मुम्बई के कुछ वकीलों की टोली ने इसी तरह एचआईवी से पीड़ित व्यक्तियों के रोजी-रोटी के अधिकार को मान्यता दिलाई थी. सके कारण यह सम्भव हुआ कि जो एचआईवी से पीड़ित वे व्यक्ति जो अपना काम कर सकते हैं, उन्हें नौकरी करने से वंचित नहीं किया जा सकता। इस फैसले से उत्साहित होकर समलैंगिक अधिकारों के लिए नाज़ फाउंडेशन ने कानूनी लड़ाई शुरू की, जिसमें लम्बी विफलताओं के बाद सफलता मिली. इसमें पिछले वर्ष के प्राइवेसी के अधिकार से जुड़े फैसले की महत्वपूर्ण भूमिका है. इस प्रकार एक फैसले से दूसरा फैसला प्रभावित होता है.
देश में भेदभाव और असमानता के तमाम अंधे कोने हैं. महिलाओं, बच्चों, किशोरों, ट्रंसजेंडरों वगैरह के अधिकारों को लेकर कई प्रकार की लड़ाइयाँ चल रहीं हैं. इस फैसले से यह भी पता लगता है कि जिन लोगों के सवाल वोट की राजनीति के कारण पीछे रह जाते हैं उन्हें सांविधानिक मंचों का दरवाजा खटखटाने से न्याय मिल सकता है.  
inext में प्रकाशित

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (12-09-2018) को "क्या हो गया है" (चर्चा अंक-3092 ) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन वराह जयन्ती और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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