केन्द्र सरकार के लिए इस हफ्ते का आखिरी दिन खुशखबरी लेकर आया। खबर है कि इस वित्तीय वर्ष के पहली तिमाही में अर्थ-व्यवस्था में 8.2 फीसदी की दर से इजाफा हुआ है। इसका सबसे सकारात्मक पक्ष है मैन्यूफैक्चरिंग और फार्म सेक्टर का बेहतर प्रदर्शन। ये दोनों सेक्टर रोजगार देते हैं। लगता यह है कि नोटबंदी और जीएसटी के कारण दबाव में आई अर्थव्यवस्था फिर से रास्ते पर आ रही है। इससे पहले 2015-16 की पहली तिमाही में जीडीपी में सबसे तेज वृद्धि दर्ज हुई थी। पिछले वित्त वर्ष की चौथी तिमाही में जीडीपी वृद्घि दर 7.7 फीसदी रही थी। बहरहाल इस तिमाही में भारत एकबार फिर से सबसे तेजी से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था बन गया है। चीन की वृद्घि दर पहली तिमाही में घटकर 6.7 फीसदी रह गई है।
इस खुशखबरी के बावजूद केन्द्र सरकार पर विरोधियों के हमले बढ़ जा रहे हैं। चुनाव नजदीक आ रहे हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के कारण सरकार दबाव में आई है। कांग्रेस ने राफेल विमान के सौदे को चुनाव का मुद्दा बनाने का फैसला किया है। राहुल गांधी ने कई बार कहा है कि राफेल-डील में कोई घोटाला है। क्या घोटाला है, यह पार्टी ने स्पष्ट नहीं किया है। पार्टी इतना जरूर कह रही है कि हमने जो सौदा किया था, उसके मुकाबले सरकार अब बहुत ज्यादा कीमत दे रही है। दूसरे इसके ऑफसेट में सरकार की पसंदीदा कम्पनियों को फायदा पहुँचाने का आरोप भी है।
रक्षा-सौदे सरकारों को अर्दब में लाते रहे हैं। बोफोर्स शब्द घोटालों का पर्याय बना, भले ही उसकी तह तक कोई पहुँच नहीं पाया। कहना मुश्किल है कि राफेल सौदा देश की राजनीति में उलट-पुलट लाएगा। इतना तय है कि तमाम मुद्दों के साथ सरकार पर वार करने में इसका इस्तेमाल भी होगा। इसीलिए सरकार ने भी पेशबंदी शुरू कर दी है। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने उल्टे 15 सवाल राहुल गांधी से पूछे हैं।
पिछले कुछ समय से अरुण जेटली सोशल नेटर्विकंग वेबसाइट फेसबुक पर अपने विचार व्यक्त करने लगे हैं। जेटली ने लिखा है कि राफेल के दाम पर कांग्रेस लगातार अलग-अलग बयान दे रही है और वह खुद कंफ्यूज है। पार्टी बेबुनियाद बतों के सहारे इस डील पर निशाना साध रही है। क्या यह सही नहीं है कि यूपीए की अकर्मण्यता के कारण इतना महत्वपूर्ण डील करीब एक दशक तक टलता रहा? अप्रैल में दिल्ली में तथा मई में कर्नाटक में इसकी कीमत 700 करोड़ रुपये कर दी गई। संसद में इसे घटाकर 520 करोड़ रुपये कर दिया। इसके बाद रायपुर में उन्होंने इसे बढ़ाकर 540 करोड़ रुपये प्रति विमान कर दिया। हैदराबाद में 526 करोड़ रुपये की नई कीमत खोज ली। सच तो एक ही होता है, जबकि झूठ के कई संस्करण होते हैं।
पहले यह देखना जरूरी है कि इस सौदे में उलझनें कहाँ थीं। एक लम्बी प्रतियोगिता के बाद मीडियम मल्टीरोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एमएमआरसीए) के रूप में अगस्त 2007 में जब राफेल विमान को चुना गया, तबतक काफी देर हो चुकी थी। वायुसेना के पास विमानों की संख्या बुरी तरह कम होती जा रही थी। यह प्रतियोगिता अपने आप में विवाद का विषय बन चुकी थी। जब इन विमानों का चयन हुआ था, तब भी तमाम पेचीदगियाँ थीं। विमान कम्पनियों के हितों का टकराव सबसे बड़ी परेशानी का कारण था। बहरहाल भारत ने कुल 126 विमानों की खरीद का फैसला कया। यह भी तय हुआ कि 18 विमान विमान सीधे फ्रांस से आएंगे और 108 भारत में बनेंगे।
सारी बातें हवाई थीं। समझौता कोई नहीं हुआ। खबरें यह भी थीं कि फ्रांसीसी कम्पनी दासो एचएएल में विमान बनाने के लिए तैयार नहीं थी। उसका कहना था कि हम एचएएल में बने विमानों की जिम्मेदारी नहीं लेंगे। एचएएल बेशक स्वदेशी कम्पनी है, पर भारतीय वायुसेना को भी विश्वास में लेने की जरूरत थी। तेजस विमान के विकास में लगी देरी के कारण वायुसेना को एचएएल से भी शिकायतें हैं। अब खबरें हैं कि तेजस की जिम्मेदारी सीधे वायुसेना को दी जा रही है।
देश के रक्षा-उत्पादन की नीतियों के तहत फ्रांस को भारत में विमान निर्माण के लिए 30 फीसदी सामग्री देश से ही लेनी होगी। इसे ऑफसेट पॉलिसी कहा जाता है। पर जो तकनीक ऐसे विमानों में प्रयुक्त होती है, वह हमारे यहाँ उपलब्ध भी है या नहीं? कहीं न कहीं पेच जरूर थे, वरना समझौता तभी हो जाना चाहिए था। तब वह समझौता होता तो 108 विमानों को भारत में बनाने के लिए भारतीय पार्टनर का नाम भी तय होता। उसके साथ ही 50 फीसदी या 30 फीसदी ऑफसेट के लिए कम्पनियों के नाम तय होते।
सच यह है कि भारत में इस विमान के निर्माण के समझौते की सम्भावनाएं 2012-13 में ही खत्म होने लगीं थीं। समझौता तो हुआ ही नहीं। मोटे तौर पर कुछ सहमतियाँ थीं। सन 2015 में एक नया समझौता हुआ, जो पुरानी सहमतियों से अलग था। विमान की कीमत को लेकर तमाम सवाल हैं। खाली विमान की कीमत और शस्त्रास्त्र से सजे विमान की कीमत में भी अंतर होता है। शुरुआती विमानों में और उनकी संख्या बढ़ने पर कीमत कम होती जाती है, क्योंकि उनपर तैनात होने वाले उपकरणों के अनुसंधान की लागत भी उनमें शामिल होती है।
ये लम्बी अवधि के सौदे होते हैं। भारतीय नौसेना को अपने विमानवाहक पोतों के लिए लड़ाकू विमानों की जरूरत है। उसके लिए भी राफेल पर विचार किया जा रहा है। उनकी कीमत और उनके उपकरणों की कीमत इतनी ही नहीं होगी। तमाम ऐसे शस्त्रास्त्र विमान में होते हैं, जिनकी गोपनीयता को बनाए रखना जरूरी होता है। रक्षा उपकरण तेल-फुलेल नहीं कि उनका विज्ञापन किया जाए। अक्सर सभी उपकरण उपलब्ध भी नहीं होते, भले ही आप उनकी कितनी भी कीमत देने को तैयार हों।
राफेल का विवाद राजनीतिक है। करगिल युद्ध के बाद एनडीए सरकार ने कफन खरीद की थी, जिसमें घोटाले का आरोप लगा। यूपीए के कार्यकाल में सन 2009 में सीबीआई ने उस मामले में आरोप पत्र दायर किए और दिसम्बर 2013 में आरोप खारिज हो गए। इसी तरह सन 2006 में बराक मिसाइल घोटाले की खबरें आईं। गिरफ्तारियाँ हुईं और फिर सात साल की तफतीश के बाद सीबीआई ने मान लिया कि कोई घोटाला नहीं हुआ। यूपीए सरकार ने खुद फिर बराक मिसाइलों की खरीद का फैसला किया।
इस खुशखबरी के बावजूद केन्द्र सरकार पर विरोधियों के हमले बढ़ जा रहे हैं। चुनाव नजदीक आ रहे हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के कारण सरकार दबाव में आई है। कांग्रेस ने राफेल विमान के सौदे को चुनाव का मुद्दा बनाने का फैसला किया है। राहुल गांधी ने कई बार कहा है कि राफेल-डील में कोई घोटाला है। क्या घोटाला है, यह पार्टी ने स्पष्ट नहीं किया है। पार्टी इतना जरूर कह रही है कि हमने जो सौदा किया था, उसके मुकाबले सरकार अब बहुत ज्यादा कीमत दे रही है। दूसरे इसके ऑफसेट में सरकार की पसंदीदा कम्पनियों को फायदा पहुँचाने का आरोप भी है।
रक्षा-सौदे सरकारों को अर्दब में लाते रहे हैं। बोफोर्स शब्द घोटालों का पर्याय बना, भले ही उसकी तह तक कोई पहुँच नहीं पाया। कहना मुश्किल है कि राफेल सौदा देश की राजनीति में उलट-पुलट लाएगा। इतना तय है कि तमाम मुद्दों के साथ सरकार पर वार करने में इसका इस्तेमाल भी होगा। इसीलिए सरकार ने भी पेशबंदी शुरू कर दी है। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने उल्टे 15 सवाल राहुल गांधी से पूछे हैं।
पिछले कुछ समय से अरुण जेटली सोशल नेटर्विकंग वेबसाइट फेसबुक पर अपने विचार व्यक्त करने लगे हैं। जेटली ने लिखा है कि राफेल के दाम पर कांग्रेस लगातार अलग-अलग बयान दे रही है और वह खुद कंफ्यूज है। पार्टी बेबुनियाद बतों के सहारे इस डील पर निशाना साध रही है। क्या यह सही नहीं है कि यूपीए की अकर्मण्यता के कारण इतना महत्वपूर्ण डील करीब एक दशक तक टलता रहा? अप्रैल में दिल्ली में तथा मई में कर्नाटक में इसकी कीमत 700 करोड़ रुपये कर दी गई। संसद में इसे घटाकर 520 करोड़ रुपये कर दिया। इसके बाद रायपुर में उन्होंने इसे बढ़ाकर 540 करोड़ रुपये प्रति विमान कर दिया। हैदराबाद में 526 करोड़ रुपये की नई कीमत खोज ली। सच तो एक ही होता है, जबकि झूठ के कई संस्करण होते हैं।
पहले यह देखना जरूरी है कि इस सौदे में उलझनें कहाँ थीं। एक लम्बी प्रतियोगिता के बाद मीडियम मल्टीरोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एमएमआरसीए) के रूप में अगस्त 2007 में जब राफेल विमान को चुना गया, तबतक काफी देर हो चुकी थी। वायुसेना के पास विमानों की संख्या बुरी तरह कम होती जा रही थी। यह प्रतियोगिता अपने आप में विवाद का विषय बन चुकी थी। जब इन विमानों का चयन हुआ था, तब भी तमाम पेचीदगियाँ थीं। विमान कम्पनियों के हितों का टकराव सबसे बड़ी परेशानी का कारण था। बहरहाल भारत ने कुल 126 विमानों की खरीद का फैसला कया। यह भी तय हुआ कि 18 विमान विमान सीधे फ्रांस से आएंगे और 108 भारत में बनेंगे।
सारी बातें हवाई थीं। समझौता कोई नहीं हुआ। खबरें यह भी थीं कि फ्रांसीसी कम्पनी दासो एचएएल में विमान बनाने के लिए तैयार नहीं थी। उसका कहना था कि हम एचएएल में बने विमानों की जिम्मेदारी नहीं लेंगे। एचएएल बेशक स्वदेशी कम्पनी है, पर भारतीय वायुसेना को भी विश्वास में लेने की जरूरत थी। तेजस विमान के विकास में लगी देरी के कारण वायुसेना को एचएएल से भी शिकायतें हैं। अब खबरें हैं कि तेजस की जिम्मेदारी सीधे वायुसेना को दी जा रही है।
देश के रक्षा-उत्पादन की नीतियों के तहत फ्रांस को भारत में विमान निर्माण के लिए 30 फीसदी सामग्री देश से ही लेनी होगी। इसे ऑफसेट पॉलिसी कहा जाता है। पर जो तकनीक ऐसे विमानों में प्रयुक्त होती है, वह हमारे यहाँ उपलब्ध भी है या नहीं? कहीं न कहीं पेच जरूर थे, वरना समझौता तभी हो जाना चाहिए था। तब वह समझौता होता तो 108 विमानों को भारत में बनाने के लिए भारतीय पार्टनर का नाम भी तय होता। उसके साथ ही 50 फीसदी या 30 फीसदी ऑफसेट के लिए कम्पनियों के नाम तय होते।
सच यह है कि भारत में इस विमान के निर्माण के समझौते की सम्भावनाएं 2012-13 में ही खत्म होने लगीं थीं। समझौता तो हुआ ही नहीं। मोटे तौर पर कुछ सहमतियाँ थीं। सन 2015 में एक नया समझौता हुआ, जो पुरानी सहमतियों से अलग था। विमान की कीमत को लेकर तमाम सवाल हैं। खाली विमान की कीमत और शस्त्रास्त्र से सजे विमान की कीमत में भी अंतर होता है। शुरुआती विमानों में और उनकी संख्या बढ़ने पर कीमत कम होती जाती है, क्योंकि उनपर तैनात होने वाले उपकरणों के अनुसंधान की लागत भी उनमें शामिल होती है।
ये लम्बी अवधि के सौदे होते हैं। भारतीय नौसेना को अपने विमानवाहक पोतों के लिए लड़ाकू विमानों की जरूरत है। उसके लिए भी राफेल पर विचार किया जा रहा है। उनकी कीमत और उनके उपकरणों की कीमत इतनी ही नहीं होगी। तमाम ऐसे शस्त्रास्त्र विमान में होते हैं, जिनकी गोपनीयता को बनाए रखना जरूरी होता है। रक्षा उपकरण तेल-फुलेल नहीं कि उनका विज्ञापन किया जाए। अक्सर सभी उपकरण उपलब्ध भी नहीं होते, भले ही आप उनकी कितनी भी कीमत देने को तैयार हों।
राफेल का विवाद राजनीतिक है। करगिल युद्ध के बाद एनडीए सरकार ने कफन खरीद की थी, जिसमें घोटाले का आरोप लगा। यूपीए के कार्यकाल में सन 2009 में सीबीआई ने उस मामले में आरोप पत्र दायर किए और दिसम्बर 2013 में आरोप खारिज हो गए। इसी तरह सन 2006 में बराक मिसाइल घोटाले की खबरें आईं। गिरफ्तारियाँ हुईं और फिर सात साल की तफतीश के बाद सीबीआई ने मान लिया कि कोई घोटाला नहीं हुआ। यूपीए सरकार ने खुद फिर बराक मिसाइलों की खरीद का फैसला किया।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (03-09-2018) को "योगिराज का जन्मदिन" (चर्चा अंक- 3083) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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श्री कृष्ण जन्मोत्सव की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी