भारतीय अर्थ-व्यवस्था के लिए दो-तीन अच्छी
खबरें हैं. ईरान से तेल खरीदने पर अमेरिकी पाबंदियों का खतरा टल गया है. अमेरिका
ने जापान, भारत और दक्षिण कोरिया समेत अपने आठ मित्र देशों को छूट दे दी है. तेल की
कीमतों में भी कुछ कमी आई है. विश्व बैंक की 16वीं कारोबार सुगमता (ईज़ ऑफ डूइंग
बिजनेस) रैंकिंग में भारत
इस साल 23 पायदान पार करके 100वें से 77वें स्थान पर पहुंच गया है. इससे भारत को
विदेशी निवेश आकर्षित करने में मदद मिलेगी. इसके पूँजी निवेश को लेकर निराशा का
भाव है. बैंकों की दशा खराब है.
वित्त मंत्रालय की कोशिशों के बावजूद लगता है
कि इस साल राजकोषीय घाटा लक्ष्य से बाहर चला जाएगा. व्यापार घाटे में लगातार इजाफा
हो रहा है. ऐसे में सीबीआई के भीतर टकराव और रिज़र्व बैंक के साथ केंद्र के टकराव
ने हालात को और बिगाड़ दिया है. विडंबना है कि यह टकराव सैद्धांतिक नहीं है, बल्कि
नासमझी का नतीज़ा है. और मीडिया ने इसे सनसनी का रूप दे दिया है. पराकाष्ठा पिछले
हफ्ते हुई, जब केंद्र सरकार ने आरबीआई कानून की धारा 7 के संदर्भ में विचार-विमर्श
शुरू कर दिया. केंद्र सरकार जरूरी होने पर इस धारा का इस्तेमाल करते हुए, रिज़र्व
बैंक को सीधे निर्देश भेज सकती है.
इस अधिकार का इस्तेमाल आज तक केंद्र सरकार ने
नहीं किया और शायद इस बार भी नहीं करेगी. पर मीडिया में खबरें उछलीं कि धारा 7 का
इस्तेमाल हुआ, तो रिज़र्व बैंक के गवर्नर ऊर्जित पटेल इस्तीफा दे देंगे. बहरहाल लगता
है कि ऐसा कुछ नहीं होगा और डॉ पटेल अपना कार्यकाल पूरा करेंगे, जो अगले साल
सितंबर तक का है. रिजर्व बैंक की संस्थागत-स्वायत्तता महत्वपूर्ण है. पर यह उसके गवर्नरों
की निजी स्वतंत्रता नहीं है. वे अकेले ही मौद्रिक नीति नहीं बनाते उसमें सरकार की
राय भी काम करती है. अर्थ-व्यवस्था की जवाबदेही सरकार की है.
वस्तुतः यह परिघटना पारिवारिक-विवाद की तरह है.
मतभेद होते हैं, तो उन्हें आमने-सामने बैठकर निपटाना चाहिए. सड़क पर खड़े होकर
झगड़ने की जरूरत नहीं है. केंद्र सरकार चाहती है कि देश के छोटे और मझोले उद्योगों
को आर्थिक संकट से बाहर निकालने के लिए उनपर लगी पाबंदियों में ढील दी जाए. इन
कोशिशों के जवाब में रिज़र्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने सार्वजनिक रूप
से कड़ा बयान दिया, जिससे सरकार को धक्का लगा. बहरहाल इस शुक्रवार को सरकार ने सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्यमों (एमएसएमई) को बढ़ावा देने के लिए कई नए कदमों
की घोषणा की है, जिसमें 59 मिनट में एक करोड़ रुपए तक के ऋण की ऑनलाइन मंजूरी की
सुविधा वाला एक पोर्टल, श्रम एवं कंपनी कानून में छूट, पर्यावरण नियमों के अनुपालन को आसान बनाना शामिल है. देश में सबसे
ज्यादा रोजगार इन्हीं उद्यमों से जुड़े हैं.
आचार्य ने पिछले से पिछले शुक्रवार को मुंबई
में ए डी श्रॉफ स्मृति व्याख्यान में कहा कि सरकार आरबीआई की स्वायत्तता में दखल
देगी, तो यह बात ख़ासी नुकसानदेह होगी. आचार्य जो बात कहना
चाहते थे, वह सिद्धांततः गलत नहीं है. उनकी मंशा सही थी, पर बयान उत्तेजक था. और
इसके राजनीतिक भी निहितार्थ हैं, जो फौरन सामने आए. पाँच राज्यों के चुनाव सिर पर
हैं. विरोधी दलों ने इस बयान को लेकर सरकार पर निशाना साधना शुरू कर दिया.
इन बातों से सरकार में उत्तेजना फैली. जवाब में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने रिजर्व बैंक की आलोचना कर दी. उन्होंने
कहा, जब 2008 से 2014 के बीच बैंक मनमाने ढंग से क़र्ज़ दे रहे थे तो रिजर्व बैंक
इसकी अनदेखी करता रहा. 2008 की वैश्विक मंदी के बाद तत्कालीन सरकार ने बैंकों को
लोन बांटने की खुली छूट दे दी थी. यही वजह थी कि उस दौरान एक साल में क्रेडिट
ग्रोथ 14% की सामान्य दर से बढ़कर 31% हो गई थी.
बदमज़गी दोनों बयानों के कारण बढ़ी. मौद्रिक-अनुशासन
में सरकार और रिज़र्व बैंक के बीच समन्वय बेहद ज़रूरी है. रिज़र्व बैंक की भूमिका
मुद्रास्फीति को काबू में रखने, वित्तीय अनुशासन बनाने, बट्टे-खाते में गए बैंक-कर्ज़ों
की वापसी कराने, भुगतान-प्रक्रिया में खामियों को दूर करने, केंद्रीय बैंक के पास
उपलब्ध अतिरिक्त पूँजी को केंद्र सरकार को हस्तांतरित करने जैसे बुनियादी काम हैं.
खुले आरोप-प्रत्यारोपों का वित्तीय बाजार पर
दुष्प्रभाव पड़ा. अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ने और चीन-अमेरिका ‘व्यापार युद्ध’ के कारण हमारे पूँजी-बाजार पर संकट के बादल हैं. दुनियाभर की करेंसियाँ
डॉलर की मजबूती से प्रभावित हैं. तेल की कीमतों ने हमें पहले से ही परेशान कर रखा
है. ऐसे में यह टकराव अनुचित है.
हम पारदर्शिता की ओर बढ़ रहे हैं. हाल में
बैंकों की पूँजी डूबने के भेद तभी खुले, जब रिज़र्व बैंक ने नियम बदले. कम्पनियों
को दिवालिया घोषित करने का कानून इसीलिए बनाना पड़ा, ताकि डूबी हुई पूँजी को वसूला
जा सके. हाल में इंफ्रास्ट्रक्चर लीज़िग एंड फाइनेंशियल सर्विसेज (आईएलएंडएफएस)
जैसी विशाल गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनी ने जब कर्ज चुकाना बंद कर दिया, तो इस तरफ ध्यान
गया. गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों (एनबीएफसी) के सामने भी पूँजी का संकट है.
पर्याप्त पूँजी निवेश न होने के कारण रोजगारों
में कमी आ रही है. आईएलएंडएफएस के कारण कई कम्पनियों, म्यूचुअल फंडों और बीमा
कम्पनियों का पैसा फँस गया. इस संकट का पूर्वानुमान लगाने में रिज़र्व बैंक ने
देरी की. अब इस सेक्टर में पूँजी डाली जा रही है. 26 अक्तूबर को रिज़र्व बैंक ने
घोषणा की नवंबर में सरकारी प्रतिभूतियों की खरीद के मार्फत 40,000 करोड़ रूपया
सिस्टम में डाला जाएगा. इसके पहले खुले बाजार के मार्फत 36,000 करोड़ रुपया
अक्तूबर में डाला जा चुका है.
सरकार और उद्योग चाहते हैं कि एनबीएफसी को
पूँजी उपलब्ध कराने के लिए एक विशेष विंडो (व्यवस्था) बनाई जाए. आरबीआई का कहना है
कि यदि नई व्यवस्था बना दी गई तो सब हाथ फैलाएंगे. सरकार कहती है कि आरबीआई आर्थिक-चुनौतियों
को समझने में हठ दिखा रहा है. पहले तो उसने बैंकों के कर्ज को लेकर पीठ फेरी और अब
अंतरराष्ट्रीय मानकों से भी कड़े मानक लागू कर दिए हैं. उसे सरकारी भावना को भी
समझना होगा.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (06-10-2018) को "इस धरा को रौशनी से जगमगायें" (चर्चा अंक-3147) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन धन्वन्तरि दिवस, धनतेरस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDelete