सुप्रीम कोर्ट के कुछ बड़े फैसलों के लिए पिछला हफ्ता याद किया जाएगा। इस हफ्ते कम के कम छह ऐसे फैसले आए हैं, जिनके गहरे सामाजिक, धार्मिक, न्यायिक और राजनीतिक निहितार्थ हैं। संयोग से वर्तमान मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के कार्यकाल का यह अंतिम सप्ताह भी था। उनका कार्यकाल इसलिए महत्वपूर्ण रहा, क्योंकि वे देश के पहले ऐसे मुख्य न्यायाधीश हैं, जिनके खिलाफ संसद के एक सदन में महाभियोग की सूचना दी गई और यह मामला सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर भी गया। उनके कार्यकाल में कुछ ऐसे मामले आए, जिन्हें लेकर राजनीति और समाज में तीखे मतभेद हैं। इनमें जज लोया और अयोध्या के मामले शामिल हैं। ये बदलते भारतीय समाज के अंतर्विरोध हैं, जो अदालती फैसलों में नजर आ रहे हैं।
इस हफ्ते के ज्यादातर फैसले ऐसे थे, जिनके प्रत्यक्ष और परोक्ष राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। इनमें अयोध्या, ‘आधार’ और भीमा कोरेगाँव हिंसा से जुड़े मामले हैं। इन्हें लेकर राजनीतिक सवाल अभी उठेंगे। दूसरी तरफ व्यभिचार के अपराधीकरण और सबरीमाला मंदिर में रजस्वला स्त्रियों के प्रवेश के मामले हैं। दोनों ही मामले आधुनिक स्त्रियों के अधिकारों, सामाजिक वर्जनाओं और धार्मिक मान्यताओं के टकराव को व्यक्त करते हैं।
ऐसा ही एक मामला प्रमोशन में आरक्षण से जुड़ा है, जो इस विषय पर चल रही बहस को एक कदम आगे ले जाएगा, क्योंकि अदालत ने ‘क्रीमी लेयर’ को लेकर कुछ सवाल उठाए हैं। अदालत ने कहा, राज्य सरकारें चाहें तो वे प्रमोशन में आरक्षण दे सकती हैं। यह भी कहा कि एससी-एसटी आरक्षण में भी क्रीमीलेयर के सिद्धांत को लागू किया जाना चाहिए। यह सिद्धांत अभी पिछड़े वर्गों के आरक्षण पर लागू होता है। सरकार ने कहा है कि वह अभी इस फैसले का अध्ययन कर रही है। राजनीतिक दृष्टि से इस पर फैसला होना आसान नहीं है। इसके खिलाफ अभी से स्वर सुनाई पड़ने लगे हैं। इस विचार को तभी बल मिलेगा, जब आरक्षित वर्ग के भीतर से इसकी माँग उठेगी।
उधर दशकों से लटके राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की सुप्रीम कोर्ट में जल्द सुनवाई का रास्ता साफ हो गया है। सुप्रीम कोर्ट में अब 29 अक्टूबर से इस मामले की सुनवाई शुरू हो जाएगी। सुप्रीम कोर्ट में यह मसला पिछले आठ साल से लटका हुआ है। सन 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा था कि अयोध्या में विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बाँट दिया जाना चाहिए। जमीन के मालिकाना हक से जुड़े उस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी, लेकिन सुनवाई ठहरी हुई थी।
इसी सुनवाई के दौरान 1994 में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों के पीठ के फैसले का मामला आया, जिसमें इस स्थान पर यथास्थिति बरकरार रखने का निर्देश दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने तब यह भी कहा था कि मस्जिद में नमाज पढ़ना इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है। इस मामले को उच्चतर बेंच में भेजने की माँग को सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार नहीं किया। यदि यह माँग मान ली जाती तो जमीन के मालिकाना हक का मामला पीछे चला जाता।
एक और विवादास्पद विषय है भीमा-कोरेगांव हिंसा के सिलसिले में पाँच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी। अदालत ने इन्हें जमानत पर रिहा करने की माँग को अस्वीकार कर दिया है। इसके अलावा इस मामले की जाँच विशेष जाँच टीम से कराने की माँग को भी अस्वीकार कर दिया है। अदालत ने यह भी कहा कि लगता नहीं कि ये गिरफ्तारियाँ इसलिए हुईं हैं क्योंकि ये लोग वैचारिक-विरोध के स्वर उठाते थे। अदालत के अनुसार ये पाँचों निचली अदालतों में कानूनी उपचार प्राप्त कर सकते हैं।
इसी हफ्ते ‘आधार’ से जुड़ा महत्वपूर्ण फैसला आया, जिसके अनुसार पैन कार्ड बनवाने और आयकर रिटर्न दाखिल करने के लिए आधार जरूरी रहेगा, पर बैंक में खाता खोलने और टेलीफोन लेने और निजी कम्पनियों के वैरीफिकेशन के लिए इसकी अनिवार्यता नहीं होगी। इस फैसले के व्यावहारिक अर्थ पर अभी बहस चलेगी। बैंक में खाता खोलने, बीमा और सभी वित्तीय लेन-देन में पैन कार्ड जरूरी रहेगा, तो फिर आधार के दायरे में ज्यादातर लोग आ ही जाएंगे। गरीबों के लिए सरकार द्वारा चलाई जा रही 430 योजनाओं और सब्सिडी के लिए आधार अनिवार्य बना रहेगा।
इस हफ्ते अदालत ने दो फैसले ऐसे किए, जिनके सामाजिक-सांस्कृतिक निहितार्थ हैं। पाँच सदस्यीय संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से व्यभिचार (विवाहेतर सम्बंध) से संबंधित दंडात्मक प्रावधान को रद्द कर दिया। न्यायालय ने कहा कि वैवाहिक पवित्रता एक मुद्दा है लेकिन व्यभिचार के लिए दंडात्मक प्रावधान अंतत: संविधान प्रदत्त समानता के अधिकार का उल्लंघन है। केरल के एनआरआई जोसेफ शाइन ने न्यायालय में याचिका दायर कर आईपीसी की धारा 497 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी थी। अदालत ने यह भी कहा कि इसे अब भी नैतिक रूप से गलत माना जाएगा और इसे विवाह ख़त्म करने तथा तलाक़ लेने का आधार माना जाएगा। धारा 497 के अनुसार, यदि कोई पुरुष यह जानते हुए भी कि महिला किसी अन्य व्यक्ति की पत्नी है और उस व्यक्ति की सहमति या मिलीभगत के बगैर ही महिला के साथ यौन संबंध बनाए तो वह अपराध का दोषी है। इस अपराध के लिए पुरुष को पांच साल की क़ैद या जुर्माना अथवा दोनों की सज़ा का प्रावधान था। याचिका में तर्क दिया गया था कि धारा 497 का प्रावधान पुरुषों के साथ भेदभाव करता है।
शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने केरल के सबरीमाला मंदिर में सभी उम्र की महिलाओं के प्रवेश के दरवाजे खोलने का आदेश दिया। इस मंदिर में 10 से 50 साल की उम्र की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की इजाजत नहीं थी, क्योंकि उन्हें मासिक धर्म होता है। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि यह परम्परा संवैधानिक समानता के अधिकार का उल्लंघन करती है। बहरहाल यह बात सामाजिक वर्जनाओं से जुड़ी है। शायद बड़ी संख्या में महिलाएं फिर भी मंदिर में प्रवेश नहीं करेंगी। अलबत्ता जो महिलाएं समानता के आधार पर पूजा का अधिकार चाहती थीं, उन्हें यह अधिकार प्राप्त हो गया है। पर वास्तविक समानता तभी सम्भव है जब परम्परागत समाज उन्हें स्वीकार करे। इस पीठ की एकमात्र महिला सदस्य जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने फैसले के विरोध में लिखा है कि धार्मिक परंपराओं में कोर्ट को दखल नहीं देना चाहिए। अगर किसी को किसी धार्मिक प्रथा में भरोसा है तो उसका सम्मान हो। ये प्रथाएं संविधान से संरक्षित हैं। समानता के अधिकार को धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के साथ ही देखना चाहिए।
इस हफ्ते के ज्यादातर फैसले ऐसे थे, जिनके प्रत्यक्ष और परोक्ष राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। इनमें अयोध्या, ‘आधार’ और भीमा कोरेगाँव हिंसा से जुड़े मामले हैं। इन्हें लेकर राजनीतिक सवाल अभी उठेंगे। दूसरी तरफ व्यभिचार के अपराधीकरण और सबरीमाला मंदिर में रजस्वला स्त्रियों के प्रवेश के मामले हैं। दोनों ही मामले आधुनिक स्त्रियों के अधिकारों, सामाजिक वर्जनाओं और धार्मिक मान्यताओं के टकराव को व्यक्त करते हैं।
ऐसा ही एक मामला प्रमोशन में आरक्षण से जुड़ा है, जो इस विषय पर चल रही बहस को एक कदम आगे ले जाएगा, क्योंकि अदालत ने ‘क्रीमी लेयर’ को लेकर कुछ सवाल उठाए हैं। अदालत ने कहा, राज्य सरकारें चाहें तो वे प्रमोशन में आरक्षण दे सकती हैं। यह भी कहा कि एससी-एसटी आरक्षण में भी क्रीमीलेयर के सिद्धांत को लागू किया जाना चाहिए। यह सिद्धांत अभी पिछड़े वर्गों के आरक्षण पर लागू होता है। सरकार ने कहा है कि वह अभी इस फैसले का अध्ययन कर रही है। राजनीतिक दृष्टि से इस पर फैसला होना आसान नहीं है। इसके खिलाफ अभी से स्वर सुनाई पड़ने लगे हैं। इस विचार को तभी बल मिलेगा, जब आरक्षित वर्ग के भीतर से इसकी माँग उठेगी।
उधर दशकों से लटके राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की सुप्रीम कोर्ट में जल्द सुनवाई का रास्ता साफ हो गया है। सुप्रीम कोर्ट में अब 29 अक्टूबर से इस मामले की सुनवाई शुरू हो जाएगी। सुप्रीम कोर्ट में यह मसला पिछले आठ साल से लटका हुआ है। सन 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा था कि अयोध्या में विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बाँट दिया जाना चाहिए। जमीन के मालिकाना हक से जुड़े उस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी, लेकिन सुनवाई ठहरी हुई थी।
इसी सुनवाई के दौरान 1994 में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों के पीठ के फैसले का मामला आया, जिसमें इस स्थान पर यथास्थिति बरकरार रखने का निर्देश दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने तब यह भी कहा था कि मस्जिद में नमाज पढ़ना इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है। इस मामले को उच्चतर बेंच में भेजने की माँग को सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार नहीं किया। यदि यह माँग मान ली जाती तो जमीन के मालिकाना हक का मामला पीछे चला जाता।
एक और विवादास्पद विषय है भीमा-कोरेगांव हिंसा के सिलसिले में पाँच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी। अदालत ने इन्हें जमानत पर रिहा करने की माँग को अस्वीकार कर दिया है। इसके अलावा इस मामले की जाँच विशेष जाँच टीम से कराने की माँग को भी अस्वीकार कर दिया है। अदालत ने यह भी कहा कि लगता नहीं कि ये गिरफ्तारियाँ इसलिए हुईं हैं क्योंकि ये लोग वैचारिक-विरोध के स्वर उठाते थे। अदालत के अनुसार ये पाँचों निचली अदालतों में कानूनी उपचार प्राप्त कर सकते हैं।
इसी हफ्ते ‘आधार’ से जुड़ा महत्वपूर्ण फैसला आया, जिसके अनुसार पैन कार्ड बनवाने और आयकर रिटर्न दाखिल करने के लिए आधार जरूरी रहेगा, पर बैंक में खाता खोलने और टेलीफोन लेने और निजी कम्पनियों के वैरीफिकेशन के लिए इसकी अनिवार्यता नहीं होगी। इस फैसले के व्यावहारिक अर्थ पर अभी बहस चलेगी। बैंक में खाता खोलने, बीमा और सभी वित्तीय लेन-देन में पैन कार्ड जरूरी रहेगा, तो फिर आधार के दायरे में ज्यादातर लोग आ ही जाएंगे। गरीबों के लिए सरकार द्वारा चलाई जा रही 430 योजनाओं और सब्सिडी के लिए आधार अनिवार्य बना रहेगा।
इस हफ्ते अदालत ने दो फैसले ऐसे किए, जिनके सामाजिक-सांस्कृतिक निहितार्थ हैं। पाँच सदस्यीय संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से व्यभिचार (विवाहेतर सम्बंध) से संबंधित दंडात्मक प्रावधान को रद्द कर दिया। न्यायालय ने कहा कि वैवाहिक पवित्रता एक मुद्दा है लेकिन व्यभिचार के लिए दंडात्मक प्रावधान अंतत: संविधान प्रदत्त समानता के अधिकार का उल्लंघन है। केरल के एनआरआई जोसेफ शाइन ने न्यायालय में याचिका दायर कर आईपीसी की धारा 497 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी थी। अदालत ने यह भी कहा कि इसे अब भी नैतिक रूप से गलत माना जाएगा और इसे विवाह ख़त्म करने तथा तलाक़ लेने का आधार माना जाएगा। धारा 497 के अनुसार, यदि कोई पुरुष यह जानते हुए भी कि महिला किसी अन्य व्यक्ति की पत्नी है और उस व्यक्ति की सहमति या मिलीभगत के बगैर ही महिला के साथ यौन संबंध बनाए तो वह अपराध का दोषी है। इस अपराध के लिए पुरुष को पांच साल की क़ैद या जुर्माना अथवा दोनों की सज़ा का प्रावधान था। याचिका में तर्क दिया गया था कि धारा 497 का प्रावधान पुरुषों के साथ भेदभाव करता है।
शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने केरल के सबरीमाला मंदिर में सभी उम्र की महिलाओं के प्रवेश के दरवाजे खोलने का आदेश दिया। इस मंदिर में 10 से 50 साल की उम्र की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की इजाजत नहीं थी, क्योंकि उन्हें मासिक धर्म होता है। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि यह परम्परा संवैधानिक समानता के अधिकार का उल्लंघन करती है। बहरहाल यह बात सामाजिक वर्जनाओं से जुड़ी है। शायद बड़ी संख्या में महिलाएं फिर भी मंदिर में प्रवेश नहीं करेंगी। अलबत्ता जो महिलाएं समानता के आधार पर पूजा का अधिकार चाहती थीं, उन्हें यह अधिकार प्राप्त हो गया है। पर वास्तविक समानता तभी सम्भव है जब परम्परागत समाज उन्हें स्वीकार करे। इस पीठ की एकमात्र महिला सदस्य जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने फैसले के विरोध में लिखा है कि धार्मिक परंपराओं में कोर्ट को दखल नहीं देना चाहिए। अगर किसी को किसी धार्मिक प्रथा में भरोसा है तो उसका सम्मान हो। ये प्रथाएं संविधान से संरक्षित हैं। समानता के अधिकार को धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के साथ ही देखना चाहिए।
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