कर्नाटक में लोकसभा की तीन और विधानसभा की दो
सीटों पर हुए उपचुनाव ने महागठबंधन-परिवार में अचानक उत्साह का संचार कर दिया है।
कांग्रेस और जेडीएस ने मिलकर बीजेपी को बौना बना दिया है। बीजेपी का गढ़ माने जाने वाले बेल्लारी में भारी पराजय से बीजेपी नेतृत्व का चेहरा शर्म से लाल है। नहीं
जमखंडी की लिंगायत बहुल सीट हारने का भी उन्हें मलाल है। पार्टी के भीतर टकराव के संकेत मिल रहे हैं। यूपी के बाद कर्नाटक का
संदेश है कि विरोधी दल मिलकर चुनाव लड़ें तो बीजेपी को हराया जा सकता है। कांग्रेस
इस बात को जानती है, पर वह समझना चाहती है कि यह गठबंधन किसके साथ और कब होगा? यह राष्ट्रीय स्तर पर होगा या अलग-अलग राज्यों में?
इन परिणामों के आने के पहले ही तेदेपा के
चंद्रबाबू नायडू ने दिल्ली आकर राहुल गांधी समेत अनेक नेताओं से मुलाकात की थी और
2019 के बारे में बातें करनी शुरू कर दी। सपनों के राजमहल फिर से बनने लगे हैं। पर
गौर करें तो कहानियाँ लगातार बदल रहीं हैं। साल के शुरू में जो पहल ममता बनर्जी और
के चंद्रशेखर राव ने शुरू की थी, वह इसबार आंध्र से शुरू हुई है।
महत्वपूर्ण पड़ाव कर्नाटक
कर्नाटक विधानसभा के चुनाव इस साल एक
महत्वपूर्ण पड़ाव साबित हुए हैं। यहाँ कांग्रेस ने त्याग किया है। पर क्या यह
स्थायी व्यवस्था है? क्या कांग्रेस दिल्ली में भी त्याग करेगी? क्या चंद्रबाबू पूरी तरह विश्वसनीय हैं? बहरहाल उनकी पहल के साथ-साथ तेलंगाना के
विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-तेदेपा गठबंधन का लांच भी हुआ है। अब चंद्रबाबू चाहते
हैं कि महागठबंधन जल्द से जल्द बनाना चाहिए, उसके लिए पाँच राज्यों के विधानसभा
चुनावों के परिणामों का इंतजार नहीं करना चाहिए।
टीडीपी सूत्रों के सूत्रों के अनुसार मप्र और
राजस्थान में बीजेपी को हराने के लिए कांग्रेस और सहयोगी दलों की सभाओं में नायडू भी
शामिल होंगे। नायडू मानते हैं कि हमें फौरन आपस में बातें करनी चाहिए और मतभेदों
को जल्द से जल्द दूर करना चाहिए। छत्तीसगढ़ में चूंकि अब चुनाव आखिरी दौर में है,
इसलिए अब वहाँ की चिंता छोड़कर मध्य प्रदेश, राजस्थान और तेलंगाना के बारे में
सोचना चाहिए। नायडू की यह रणनीति कांग्रेस की अबतक की रणनीति से कुछ फर्क है। राजस्थान
और मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने सपा, बसपा, एनसीपी व वाम दलों के लिए कोई सीटें नहीं छोड़ी।
सहयोगी दल इस बात से नाराज हैं।
कांग्रेस की चुनींदा रणनीति
पिछले साल गुजरात विधानसभा के चुनावों में भी कांग्रेस
ने बड़ा गठबंधन बनाने की कोशिश नहीं की। कांग्रेस की इस चुनींदा रणनीति से एक
निष्कर्ष यह भी है कि पार्टी अपने दीर्घकालीन हितों के बारे में भी सोच रही है।
बीजेपी के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व करने के लिए उसे कुछ त्याग भी करना होगा। पर
इसके लिए कांग्रेस के नेतृत्व को इस बात से आश्वस्त होना होगा कि सहयोगी दल मौका
आने पर धोखा नहीं देंगे। कांग्रेस इस महागठबंधन के केंद्र में रहना चाहेगी, परिधि
में नहीं।
बुनियादी सवाल अब भी अपनी जगह है कि औपचारिक
रूप से चुनाव-पूर्व महागठबंधन बनेगा भी या नहीं। राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन का
महत्व तभी है, जब महत्वपूर्ण राज्यों में गठबंधन बने। उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल,
महाराष्ट्र, आंध्र, कर्नाटक और तमिलनाडु ऐसे राज्य हैं, जहाँ गठबंधन की परीक्षा
होगी। बीजेपी भी कुछ राज्यों में गठबंधन का सहारा लेगी। महाराष्ट्र में
कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की शक्ल अभी तक नजर नहीं आ रहा है। आंध्र में
तेदेपा-कांग्रेस गठबंधन होगा, पर उसके पहले देखना होगा कि तेलंगाना के परिणाम क्या
बता रहे हैं।
परिणामों का इंतजार
चंद्रबाबू कुछ भी कहें, पर कांग्रेस के पास
पाँच राज्यों के परिणामों के इंतजार के अलावा दूसरा विकल्प भी नहीं है। यदि वह
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सरकार बनाने में सफल हुई, तो गठबंधन बनाने
में उसके हाथ मजबूत हो जाएंगे। उसने मध्य प्रदेश में दाँव खेलकर जोखिम उठाया है। वह
बसपा और सपा को अपने मनमाफिक हिस्सा देना चाहती थी, जिसपर ये दल तैयार नहीं हुए।
देखना होगा कि परिणाम क्या कहते हैं।
बसपा का कहना है कि राज्य की अगली सरकार बनाने
में हमारी निर्णायक भूमिका होगी। उसका यह कहना है कि हम 32 सीटें जीतेंगे और संभव
है कि हम सरकार का नेतृत्व करें, क्योंकि त्रिशंकु विधानसभा में कांग्रेस को
मजबूरन हमारा समर्थन करना होगा, जैसा उसने कर्नाटक में किया। कर्नाटक में बेशक विरोधी
गठबंधन ने बीजेपी को रोका, पर उसकी कीमत कांग्रेस ने अदा की। क्या मध्य प्रदेश में
भी ऐसा ही होगा? इंतजार
कीजिए। मायावती का समर्थन हासिल करना पड़ा, तो उसकी कीमत कांग्रेस को चुकानी होगी।
‘पोस्ट पेड’ उम्मीदें
गठबंधन का मतलब केवल इतना नहीं है कि क्षेत्रीय
दल अपने राज्यों तक सीमित रहेंगे और कांग्रेस केंद्र में एकछत्र होगी। क्षेत्रीय
दल केंद्र में भी अपना हिस्सा माँगेंगे। कोई गारंटी नहीं है कि मई 2019 में सरकार
बनाते वक्त विरोधी एकता इसी रूप में कायम रहे। ममता बनर्जी 2014 के चुनाव से कह
रहीं हैं कि राजनीति में फिलहाल ‘पोस्ट पेड’ का ज़माना है ‘प्री पेड’ का नहीं। तीसरे
मोर्चे की अवधारणा पुरानी है, पर जब-जब यह बना विफल हुआ। पिछले
लोकसभा चुनाव के ठीक पहले बन रहा यह गठबंधन ‘पोस्ट पेड़ उम्मीदों’ के कारण नहीं बन
पाया। इसबार भी ‘पोस्ट पेड़ उम्मीदें’ हैं। क्षेत्रीय क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाएं
बढ़ रहीं हैं।
विरोधी महागठबंधन बनाने के लिए चंद्रबाबू नायडू
के अलावा ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, मायावती, शरद
पवार, तेजस्वी यादव, अरविंद केजरीवाल, अजित सिंह और
फारुक़ अब्दुल्ला उत्सुक हैं। एचडी देवेगौडा पहले ही बारात में शामिल हैं। सबका
केंद्र और राज्य के सत्ता समीकरणों से जुड़ा अपना-अपना गणित है। गठबंधन को
वाममोर्चा का समर्थन रहेगा, पर वह इसमें शामिल नहीं होगा। वह शामिल हुआ, तो गणित
गड़बड़ाएगा। नए साल पर ममता बनर्जी ने 19 जनवरी को कोलकाता में एक रैली आयोजित की
है, जिसमें गठबंधन होगा, वाममोर्चा नहीं होगा। विरोधी-एकता के अंतर्विरोध भी हैं।
तेलंगाना में गठबंधन
आंध्र और तेलंगाना में चंद्रबाबू नायडू
कांग्रेस से गठबंधन करने पर पहले ही सहमत हैं। तेलंगाना की 119 सीटों में से
कांग्रेस ने 94 पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है। 25 सीटें उसने सहयोगी दलों के
लिए छोड़ी हैं। इनमें से 14 सीटें तेदेपा और 8 सीटें तेलंगाना जन समिति और 3 सीटें
कम्युनिस्ट पार्टी के लिए छोड़ी गईं हैं। पिछले दिनों दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष
राहुल गांधी समेत प्रमुख क्षेत्रीय विपक्षी नेताओं से मुलाकात के बाद नायडू 2019 की व्यापक रणनीति बनाने में जुट गए हैं। पिछले
गुरुवार को चंद्रबाबू नायडू ने बेंगलुरु में एचडी देवेगौड़ा से मुलाकात की।
पिछले हफ़्ते उन्होंने दिल्ली में राहुल गांधी, शरद
पवार, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल, यशवंत सिन्हा और फारूक अब्दुल्ला से
भी मुलाकात की थी। इन मुलाकातों के बाद उन्होंने कहा, 'मैंने
मायावती, अखिलेश यादव से भी बातचीत की है। इस बीच उन्होंने द्रमुक अध्यक्ष
स्टालिन से भी मुलाकात की है। राहुल
और नायडू की मुलाकात का स्टैलिन ने स्वागत किया था। फिलहाल हमें इंतजार करना होगा
कि तमिलनाडु में गठबंधन की शक्ल क्या हो सकती है।
नायडू अब भाजपा विरोधी विपक्षी नेताओं का शिखर
सम्मेलन बुलाने की योजना पर विचार कर रहे हैं। इस सिलसिले में वे अगले सप्ताह फिर दिल्ली
आएंगे। राहुल गांधी से फिर मुलाकात करेंगे और हाल की बैठकों के सिलसिले को आगे
बढ़ाएंगे। इसबार उनकी दिल्ली-यात्रा का मकसद है कर्नाटक की तर्ज पर मध्य प्रदेश और राजस्थान
में भाजपा को हराने की रणनीति पर विचार करना। मध्य प्रदेश में 28
नवंबर व राजस्थान में 7 दिसंबर को चुनाव होने हैं। जो भी होगा, परिणाम आने के बाद
होगा।
राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (12-11-2018) को "ऐ मालिक तेरे बन्दे हम.... " (चर्चा अंक-3153) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी