सरकार, रिजर्व बैंक, उद्योग जगत की महत्वपूर्ण
हस्तियों और बैंकिंग विशेषज्ञों की आमराय से देश की पूँजी और मौद्रिक-व्यवस्था न
केवल पटरी पर वापस आ रही है, बल्कि भविष्य के लिए नए सिद्धांतों को भी तय कर रही
है. इस लिहाज से हाल में खड़े हुए विवादों को सकारात्मक दृष्टि से देखना चाहिए. ये
फैसले और यह विमर्श रिजर्व बैंक अधिनियम की धारा 7 की रोशनी में ही हुआ है. सोमवार
को रिजर्व बैंक बोर्ड की बैठक अपने किस्म की पहली थी. इतनी लम्बी बैठक शायद ही
पहले कभी हुई होगी. करीब नौ घंटे चली बैठक के बाद सरकार और बैंक के बीच तनातनी न
केवल ठंडी पड़ी, बल्कि भविष्य का रास्ता भी निकला है.
यों अब भी कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि टकराव अवश्यंभावी है, फिलहाल बैंक ने टकराव मोल नहीं लिया है और सरकार की काफी बातें मान ली हैं. इन विशेषज्ञों को बैंक के बोर्ड में शामिल प्राइवेट विशेषज्ञों को लेकर आपत्ति है, जिन्हें सरकार मनोनीत करती है. इसका एक मतलब है कि भविष्य में कभी टकराव इस हद तक बढ़े कि दोनों पक्ष अपने कदम वापस खींचने को तैयार नहीं हों, तो ये सदस्य सरकार के पक्ष में पलड़े को झुका देंगे. पर ऐसा माना ही क्यों जाए कि टकराव होना ही चाहिए. क्या दोनों पक्षों को एक-दूसरे की बात समझनी नहीं चाहिए, जैसा इसबार हुआ है?
यों अब भी कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि टकराव अवश्यंभावी है, फिलहाल बैंक ने टकराव मोल नहीं लिया है और सरकार की काफी बातें मान ली हैं. इन विशेषज्ञों को बैंक के बोर्ड में शामिल प्राइवेट विशेषज्ञों को लेकर आपत्ति है, जिन्हें सरकार मनोनीत करती है. इसका एक मतलब है कि भविष्य में कभी टकराव इस हद तक बढ़े कि दोनों पक्ष अपने कदम वापस खींचने को तैयार नहीं हों, तो ये सदस्य सरकार के पक्ष में पलड़े को झुका देंगे. पर ऐसा माना ही क्यों जाए कि टकराव होना ही चाहिए. क्या दोनों पक्षों को एक-दूसरे की बात समझनी नहीं चाहिए, जैसा इसबार हुआ है?
बैठक के पहले कयास था कि बैंक पर सरकार द्वारा
मनोनीत प्राइवेट निदेशक अपने संख्याबल के आधार पर हावी हो जाएंगे. ऐसा कुछ नहीं हुआ.
जो जानकारी बाहर आई है उसके अनुसार किसी भी प्रस्ताव पर मतदान की नौबत नहीं आई. बैंक-प्रतिनिधियों
ने सरकार की बातों को गौर से सुना और सरकार ने बैंक-प्रतिनिधियों को पूरा सम्मान
दिया. दोनों पक्षों ने आग पर पानी डालने का काम किया. यह तनातनी कितनी थी, इसे
लेकर भी कयास ज्यादा हैं. मीडिया और राजनीति के मैदान में इसका विवेचन ज्यादा हुआ
और ट्विटरीकरण ने आग लगाई.
वस्तुतः सरकार और रिजर्व बैंक दोनों को ही
अर्थव्यवस्था के विकास और उसमें अनुशासन की फिक्र होनी चाहिए और वह है. अंततः
दोनों ने वास्तविकता को समझा और रास्ता निकाला. अब 5 दिसम्बर को रिजर्व बैंक जिस मौद्रिक
नीति की घोषणा करेगा, उसमें इस बैठक के निहितार्थ ज्यादा स्पष्ट होंगे. इस वक्त
दोनों पक्षों के सामने तीन-चार सवाल थे. एक, छोटे और मझोले उद्यमों को लिए पूँजी
की व्यवस्था को सरल और सुगम बनाना ताकि विकास-दर बढ़े और नए रोजगारों का सृजन हो. इतना
ही नहीं उनके पुराने फँसे कर्जों को फिर से नई शक्ल देना, ताकि उनकी वसूली आसान हो
सके. दूसरे अनियमितताएं बरतने वाले बैंकों पर रिजर्व बैंक की कड़ाई को कुछ ढीला करना,
ताकि मार्केट में पूँजी आए. तीसरे यह तय करना कि रिजर्व बैंक के पास आरक्षित पूँजी
के भंडार की सीमा क्या हो, ताकि अतिरिक्त पूँजी से अर्थव्यवस्था की गाड़ी की गति
को तेज किया जा सके.
इस बैठक की जरूरत वित्त मंत्रालय और रिजर्व
बैंक के कुछ उत्तेजक बयानों के कारण पैदा हुई थी. अटकलें थीं कि सरकार पहली बार
रिजर्व बैंक अधिनियम की धारा 7 के तहत कार्रवाई करेगी या यह कि रिजर्व बैंक के
गवर्नर उर्जित पटेल इस्तीफा दे देंगे वगैरह. ऐसा होना नहीं था, पर अटकलों का बाजार
गर्म था.
निदेशक मंडल ने बैंक को सलाह दी है कि वह छोटे
उद्योगों के पास फँसी पूँजी को वापस लाने के लिए पुनर्गठन योजना लाने पर विचार करे.
इसके लिए वह 25 करोड़ रुपये तक की ऋण सुविधा तय कर सकता है. रिजर्व बैंक इस बात पर
सहमत हो गया है. इसके पहले बैंक लघु उद्योगों के मामले में किसी लोन को नया रूप
देने को तैयार नहीं था, क्योंकि बैंकों पर पहले से ही भारी बोझ है. बहरहाल फँसे
कर्ज की शर्तों को फिर से तय करने पर विचार रिजर्व बैंक खुद करेगा.
पूँजी के आरक्षित भंडार (ईसीएफ) के बारे में
फैसला करने के लिए एक विशेषज्ञ समिति बनाने पर सहमति बनी है. इस समिति के सदस्यों
के बारे में सरकार और रिजर्व बैंक दोनों मिलकर फैसला करेंगे. रिजर्व बैंक का पूंजी
आधार इस समय 9.69 लाख करोड़ रुपये है. सरकार चाहती है कि इस कोष को वैश्विक मानकों
के अनुरूप कम किया जाना चाहिए. यानी कि उसका कुछ अंश सरकार के पास आना चाहिए, ताकि
उस पूँजी का निवेश किया जा सके. यों भी सरकार इस बैंक की एकमात्र शेयर-होल्डर है. रिजर्व
बैंक इस कोष के संदर्भ में मार्च 2020 तक वैश्विक मानकों को लागू करने पर सहमत है.
बैंकों पर त्वरित सुधारात्मक कारवाई (पीसीए) के
मामले को रिजर्व बैंक का वित्तीय निरीक्षण बोर्ड (बीएफएस) देखेगा. सार्वजनिक
क्षेत्र के 21 में से 11 बैंक पीसीए फ्रेमवर्क में आ गए हैं. उनके कर्ज फँसे हुए हैं
और पूँजी उनके पास है नहीं. इन बैंकों में इलाहाबाद बैंक, यूनाइटेड
बैंक ऑफ इंडिया, कारपोरेशन बैंक, आईडीबीआई बैंक, यूको बैंक, बैंक
ऑफ इंडिया, सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया, इंडियन ओवरसीज बैंक, ओरिएंटल
बैंक ऑफ कॉमर्स, देना बैंक और बैंक ऑफ महाराष्ट्र शामिल हैं. उम्मीद है कि बीएफएस कुछ उन बैंकों को पीसीए से
छूट दे सकता है, जिनका प्रदर्शन हाल के वर्षों में बेहतर हुआ है.
सरकार और रिजर्व बैंक एक गाड़ी के दो पहिए हैं. इनके समन्वय से ही
गाड़ी आगे चलती है. यह भी सही है कि दोनों के बीच मौद्रिक संतुलन को लेकर मतभेद
चलते रहते हैं, पर ये मतभेद इस प्रकार खुलकर सामने नहीं आते जैसाकि इसबार हुआ है.
सरकार चाहती है कि रिजर्व बैंक अपनी नीतियों में थोड़ी नरमी लाए. रिजर्व बैंक के
प्रॉम्प्ट करैक्टिव एक्शन (पीसीए) के तहत 11 बैंकों पर यह पाबंदी इसलिए है,
क्योंकि ये बैंक रिजर्व बैंक की कुछ नियामक शर्तों को पूरा नहीं कर पाए थे. यह सच
है कि कुछ दशकों से हमारे बैंकिंग सेक्टर में अराजकता की स्थिति आ गई थी. आरबीआई ने भी लम्बे समय तक सरकारी बैंकों के
फंसे हुए कर्ज को लेकर पीठ फेरी और अब सारे मानक सख्त कर दिए हैं. ये
अंतरराष्ट्रीय मानकों से भी कड़े हैं.
अच्छी बात यह है कि यह टकराव आगे नहीं बढ़ा. हम
बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं. हाल में बैंकों की पूँजी डूबने के बाबत जो
जानकारियाँ सामने आईं हैं, वे तभी आईं जब रिज़र्व बैंक ने नियम बदले. कम्पनियों को
दिवालिया घोषित करने का कानून इसीलिए बनाना पड़ा, ताकि डूबी हुई पूँजी को वसूला जा
सके. इस लिहाज से यह बैठक भी एक महत्वपूर्ण पड़ाव साबित होगी.
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