संरा महासभा में हुए मतदान का परिणाम |
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पिछले आठ साल में पहली बार कुछ जटिल सवालों का सामना कर रही है। वैश्विक-महामारी से देश बाहर निकलने का प्रयास कर रहा है। पटरी से उतरी अर्थव्यवस्था को वापस लाने की कोशिशें शुरू हुई हैं। ऐसे में यूक्रेन के युद्ध ने कुछ बुनियादी सवाल खड़े कर दिए हैं। हम किसके साथ हैं? ‘किसके’ से एक आशय है कि हम रूस के साथ हैं या अमेरिका के? किसी के पक्षधर नहीं हैं, तब हम चाहते क्या हैं? स्वतंत्र विदेश-नीति को चलाए रखने के लिए जिस ताकतवर अर्थव्यवस्था और फौजी ताकत की जरूरत है, अभी वह हमारे पास नहीं है। हमारा प्रतिस्पर्धी दबाव बढ़ा रहा है। हम क्या करें?
गुरुवार 7 अप्रेल को संयुक्त राष्ट्र महासभा के आपात सत्र में हुए मतदान से अनुपस्थित रहकर भारत ने यों तो अपनी तटस्थता का परिचय दिया है, पर प्रकारांतर से यह वोट रूस-विरोधी है। चीन ने इस प्रस्ताव के विरोध में वोट देकर रूस का सीधा समर्थन किया। अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) से रूस को निलंबित कर दिया गया। भारत समेत 58 देश संयुक्त राष्ट्र महासभा के आपात सत्र में हुए मतदान से अनुपस्थित रहे। इनमें दक्षिण एशिया के सभी देश थे, पर ध्यान देन वाली बात यह है कि म्यांमार ने अमेरिकी-प्रस्ताव का समर्थन किया, जबकि उसे चीन के करीब माना जाता है। यूएनएचआरसी से रूस का निलंबन बता रहा है कि वैश्विक मंच पर रूस-चीन गठजोड़ की जमीन कमज़ोर है। निलंबन-प्रस्ताव के समर्थन में 93 वोट पड़े और 24 वोट विरोध में पड़े। अर्थात 92 देशों ने अमेरिका का साथ दिया और चीन सहित 23 देश रूस के साथ खड़े हुए।
हिंद महासागर में चीनी उपस्थिति बढ़ती जा रही है। म्यांमार में सैनिक-शासकों से हमने नरमी बरती, पर फायदा चीन ने उठाया। इसकी एक वजह है कि सैनिक-शासकों के प्रति अमेरिकी रुख कड़ा है। बांग्लादेश के साथ हमारे रिश्ते सुधरे हैं, पर सैनिक साजो-सामान और इंफ्रास्ट्रक्चर में चीन उसका मुख्य-सहयोगी है। अफगानिस्तान में तालिबान का राज कायम होने के बाद वहाँ भी चीन ने पैर पसारे हैं। पाकिस्तान के वर्तमान राजनीतिक-गतिरोध के पीछे जितनी आंतरिक राजनीति की भूमिका है, उतनी ही अमेरिका के बरक्स रूस-चीन गठजोड़ के ताकतवर होने की है।
पंद्रह दौर की बातचीत के बावजूद पूर्वी लद्दाख का
सीमा-विवाद अनसुलझा है। पिछले महीने चीनी विदेशमंत्री वांग यी अघोषित-यात्रा पर
भारत आए। बढ़ते वैश्विक-दबाव के कारण चीन अब चाहता है कि हम अमेरिका के पाले में
जाने से खुद को रोकें। दूसरी तरफ उसके इशारे पर मालदीव में ‘इंडिया आउट’ अभियान चल रहा है।
चीनी विदेशमंत्री प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलना चाहते थे। इस अनुरोध को
अस्वीकार करके भारत ने अपनी बेरुखी का संदेश दे दिया। हाल में श्रीलंका के आर्थिक-संकट ने भारत के सामने एक
अवसर पैदा किया है। इस जिम्मेदारी को हम कितनी दूर तक निभाएंगे, यह एक बड़ी चुनौती
है।
पाकिस्तान-प्रभाव
पाकिस्तान की आंतरिक-राजनीति एक बड़े बदलाव से
गुजर रही है। कहना मुश्किल है कि अंततः इमरान खान की विजय होगी या उनके विरोधियों
की, पर भारत पर उसके छींटे जरूर पड़ेंगे। वहाँ सत्ता-परिवर्तन हो या नहीं हो, उससे
उम्मीदें पालना गलत होगा। ‘भारत-द्रोह’ पाकिस्तान का केंद्रीय राजनीतिक-सिद्धांत है। पिछले कुछ समय से पाकिस्तानी सेना के दृष्टिकोण में
बदलाव आया है। हाल में जारी राष्ट्रीय-सुरक्षा की नई नीति के प्रारूप में कहा गया
है कि असली आर्थिक-सुरक्षा है।
पिछले साल
नियंत्रण-रेखा पर गोलाबारी रोकने का भारत के साथ जो समझौता हुआ था, वह अभी तक
कारगर है। इसी पृष्ठभूमि में पिछले साल पाकिस्तान ने भारत से कपास और चीनी खरीदने
का पहले फैसला किया और फिर उसे रद्द कर दिया। इससे सरकार के अंतर्विरोध तो मुखर
हुए, साथ ही इमरान खान की अपरिपक्वता भी सामने आई। पाकिस्तान में जो भी
राजनीतिक-व्यवस्था बनेगी, वह भारत के साथ फौरन मीठे-रिश्ते बनाने की बात नहीं
सोचेगी। हाँ, व्यापार की आंशिक शुरुआत सम्भव है, जो दोनों देशों के बीच
विश्वास-बहाली का बड़ा जरिया है। यदि दक्षेस को सक्रिय करना सम्भव हुआ या
पाकिस्तान में दक्षेस शिखर सम्मेलन करा पाना सम्भव हुआ, तो वह बड़ी सफलता होगी।
अमेरिका या रूस?
असली चुनौती यूक्रेन-संकट के कारण नई
विश्व-व्यवस्था की है। अमेरिका और उसके मित्र-देश यूरोप में रूसी ताकत को हमेशा के
लिए इतना कमजोर कर देना चाहते हैं कि वह उनकी बराबरी में कभी सामने नहीं आने पाए।
और रूस अपने अतीत को भुला नहीं पाया है। यूक्रेन की लड़ाई किस निर्णायक मोड़ पर
पहुँचेगी, कहना मुश्किल है, पर अमेरिका और उसके मित्र देशों ने जो आर्थिक
पाबंदियाँ लगाई हैं, उनका असर दीर्घकालीन होगा। सवाल है कि हम किस प्रकार अपने
हितों की रक्षा करेंगे? और नई विश्व-व्यवस्था में हमारी भूमिका क्या
होगी?
भारत को वैश्विक-मंच भूमिका निभानी है तो उसे
पहल लेनी होगी। करीब डेढ़ महीने तक भारत ने यूक्रेन पर हमले के लिए रूस की निंदा
नहीं की, पर पिछले मंगलवार को संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस
तिरुमूर्ति ने यूक्रेन के बूचा में नागरिकों की हत्याओं की निंदा की। उन्होंने रूस
का नाम नहीं लिया, फिर भी इसे भारत की ओर से आई अब तक की सबसे कड़ी प्रतिक्रिया
माना जा रहा है। कई लोग इसे भारत के रुख में बदलाव के संकेत के रूप में भी देख रहे
हैं।
भारत ने संयुक्त राष्ट्र से मांग की है कि इस
मामले की स्वतंत्र जांच की जाए। इसके पहले भारत ने सुरक्षा परिषद में
रूस-प्रायोजित एक प्रस्ताव के विरुद्ध वोट भी दिया। उस प्रस्ताव के पक्ष में केवल
चीन ने वोट दिया था। 24 फरवरी से पहले भारत ने रूस की वैध
सुरक्षा चिंताओं की बात उठाई थी। वह विचार आज भी कायम है, पर साथ ही साथ हम संप्रभुता
और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने की बात कर रहे हैं। दूसरे बातचीत से इस समस्या का समाधान निकालने की बात
भी कर रहे हैं। तीसरे, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत का दृष्टिकोण वही है, जो
पहले था।
जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ हमारी केवल सहमति
ही नहीं है, बल्कि हाल में जापान के प्रधानमंत्री की भारत-यात्रा और ऑस्ट्रेलिया
के प्रधानमंत्री के साथ वर्चुअल-वार्ता से इस सहयोग की पुष्टि हुई है। इसरायल के
नए प्रधानमंत्री भी हाल में भारत-यात्रा पर आए थे। यह सच है कि भारत और रूस का
सहयोग रक्षा-तकनीक में बहुत गहरा है, पर आर्थिक-रिश्ते अमेरिका के साथ ज्यादा गहरे
स्तर पर हैं। इन रिश्तों में अड़ंगे भी हैं, पर भविष्य की संभावनाएं अच्छी हैं।
अमेरिकी रुख
दूसरी तरफ पश्चिमी देशों खासतौर से अमेरिका के, अधिकारी भारत के बारे में काफी बयान दे रहे
हैं। हाल में दिल्ली आए अमेरिका के डिप्टी एनएसए दलीप सिंह ने एक चैनल पर कहा कि 'चीन ने एलएसी का उल्लंघन किया तो रूस भारत के बचाव में नहीं आएगा।' पर सवाल है कि 1962 में जब चीन ने आक्रमण किया था तब क्या अमेरिका
भारत की मदद के लिए आगे आया था, क्या उसने चीन के साथ अपना व्यापार कम
कर लिया था? संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर के मसले को उलझाने
में ब्रिटेन और अमेरिका की भूमिका है।
पिछले महीने 'क्वाड'
की बैठक के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा था कि रूस के
यूक्रेन पर हमले को लेकर 'कोई बहाना या टालमटोल नहीं चलेगा।' इसी हफ्ते बुधवार को अमेरिकी रक्षामंत्री लॉयड ऑस्टिन ने कहा है कि रूसी
हथियारों में निवेश करना भारत के हित में नहीं है। इन सभी बयानों का जवाब
विदेशमंत्री एस जयशंकर ने संसद में कहा कि विश्व-व्यवस्था संयुक्त राष्ट्र चार्टर
पर आधारित है जो अंतरराष्ट्रीय क़ानून के सम्मान, सभी
देशों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के लिए बनाई गई है। भारत ने शांति का पक्ष
चुना है। व्यावहारिक सच यह है कि हमें अमेरिका, रूस या चीन की मनोकामनाओं को पूरा
नहीं करना है, बल्कि अपने दीर्घकालीन हितों को देखना है।
बयानबाज़ी के बावजूद अमेरिका के भारत के प्रति
रुख में कड़वाहट नहीं है। रूस से तेल खरीदने के भारत के फैसले पर अमेरिकी मीडिया
में भारत की आलोचना हुई है। पर राष्ट्रपति जो बाइडेन की प्रवक्ता जेन साकी ने
स्पष्ट किया है कि भारत बहुत थोड़ी मात्रा में पेट्रोलियम खरीद रहा है और दूसरे
ईंधन की खरीद के भुगतान प्रतिबंधों के दायरे में नहीं आते हैं। रूस से भारत अपनी
कुल जरूरत का 1 से 2 फीसदी तेल का आयात ही कर रहा है। इसके मुकाबले जर्मनी 55
फीसदी गैस रूस से खरीदता है। वह कोयला भी खरीदता है। यूरोप के दूसरे कई देश रूसी
गैस खरीदते हैं।
जेन साकी के बयान के मुकाबले पेंटागन के
प्रवक्ता जॉन किर्बी का बयान महत्वपूर्ण है। उनसे रूसी एयर डिफेंस प्रणाली एस-400
के बाबत सवाल किया गया था। उन्होंने कहा, भारत ने पिछले एक दशक में अपने
रक्षा-उपकरणों की खरीद में बदलाव किया है। जब यह पूछा गया कि क्या अमेरिका एस-400
के कारण भारत पर प्रतिबंध लगाएगा, किर्बी ने कहा, प्रतिबंधों के बाबत मेरे पास कोई
जानकारी नहीं है।
हिंद महासागर
दक्षिण एशिया में पाकिस्तान के साथ निरंतर
टकराव के कारण भारत ने दक्षेस के स्थान पर बंगाल की खाड़ी से जुड़े पाँच देशों के
संगठन बिम्स्टेक पर ध्यान देना शुरू किया है। हाल में विदेशमंत्री एस जयशंकर
बिम्स्टेक के कार्यक्रम के सिलसिले में श्रीलंका के दौरे पर भी गए, और मदद की पेशकश की। श्रीलंका के आर्थिक-संकट के पीछे कुछ भूमिका
नीतियों की है और कुछ परिस्थितियों की। महामारी के कारण श्रीलंका का पर्यटन उद्योग
बैठ गया है। उसे रास्ते पर लाने के लिए केवल भारत की सहायता से काम नहीं चलेगा।
इसके लिए उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के पास जाना होगा।
श्रीलंका के अलावा भारत ने हाल में नेपाल के
साथ भी रिश्ते सुधारे हैं। नेपाल और भूटान में चीनी-प्रभाव बढ़ रहा है। नेपाल के
प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा ने हाल में भारत का तीन दिन का दौरा किया। इससे
दोनों देशों के बीच भरोसा बढ़ा है।
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