Tuesday, April 12, 2022

अपने प्रधानमंत्रियों को ठोकर मारकर क्यों हटाता है पाकिस्तान?

पाकिस्तान के फ्राइडे टाइम्स से साभार

इमरान खान क्या चाहते थे और उन्हें क्यों हटना पड़ा, इन बातों पर काफी लम्बे समय तक रोशनी पड़ती रहेगी. पर अब समय आ गया है, जब इस बात पर रोशनी पड़ेगी कि नवाज शरीफ को सजा क्यों मिली थी. जुलाई, 2019 में ऐसा एक ऑडियो टेप सामने आया था, जिससे लगता था कि नवाज शरीफ को सजा देने वाले जज को मजबूर किया गया था कि जैसा कहा जा रहा है वैसा करो. हालांकि जज ने इस बात से इनकार किया था, पर वह बात खत्म नहीं हुई है. अब कहानी जिस तरफ जा रही है, उससे लगता है कि नवाज शरीफ की देश-वापसी तो होगी ही, उनके मुकदमों को भी खोला जाएगा.

अब यह विचार करने का समय भी आ रहा है कि पाकिस्तान में कोई प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूरा क्यों नहीं कर पाता? क्या वजह है कि वहाँ आजतक एक प्रधानमंत्री नहीं हुआ, जिसने अपना पाँच साल का कार्यकाल पूरा किया हो. कार्यकाल पूरा करना तो अलग रहा, ज्यादातर प्रधानमंत्री या तो हटाए गए या किसी वजह से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. राजनेताओं के भाषणों पर यकीन करें, तो पहली नजर में लगेगा है कि वहाँ की व्यवस्था भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़े फैसले करती है, पर व्यावहारिक स्थिति यह है कि वहाँ जिसकी लाठी, उसकी भैंस का सिद्धांत चलता है.

इम्पोर्टेड-सरकार

पाकिस्तानी समाज ने शुरू से ही लोकतंत्र को गलत छोर से पकड़ा. यों भी माना जाता है कि यह अंग्रेजी-राज की व्यवस्था है, हम इसे लोकतंत्र मानते ही नहीं. लोकतंत्र वहाँ की पसंदीदा व्यवस्था नहीं है और अराजकता वहाँ का स्वभाव है. इस समय भी देखें, तो वहाँ बड़ी संख्या में लोग संसद के बहुमत और सुप्रीम कोर्ट के फैसले को महत्वपूर्ण मान ही नहीं रहे हैं. उन्हें लगता है कि सब बिक चुके हैं और इमरान खान को हटाने के पीछे अमेरिका का हाथ है. नई सरकार को इम्पोर्टेड-सरकार का दर्जा दिया गया है.

इमरान खान को शामिल करते हुए पाकिस्तान में 28 प्रधानमंत्री हुए हैं. इनमें से कुछ को एक से ज्यादा बार मौके भी मिले हैं. इमरान सवा साल और अपना कार्यकाल पूरा कर लेते तो ऐसा कर पाने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री होते. पिछले 75 साल से पाकिस्तान को एक ऐसी लोकतांत्रिक सरकार का इंतजार है, जो पाँच साल चले. 75 साल में बमुश्किल 23 साल चले जम्हूरी निज़ाम में वहाँ 28 वज़ीरे आज़म हुए हैं. अब जो नए बनेंगे, वे 29वें होंगे.  

हत्या से शुरुआत

पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खां की हत्या हुई. उनके बाद आए सर ख्वाजा नजीमुद्दीन बर्खास्त हुए. फिर आए मोहम्मद अली बोगड़ा. वे भी बर्खास्त हुए. 1957-58 तक आने-जाने की लाइन लगी रही. वास्तव में पाकिस्तान में पहले लोकतांत्रिक चुनाव सन 1970 में हुए. पर उन चुनावों से देश में लोकतांत्रिक सरकार बनने के बजाय देश का विभाजन हो गया और बांग्लादेश नाम से एक नया देश बन गया.

सन 1973 में ज़ुल्फिकार अली भुट्टो के प्रधानमंत्री बनने के बाद उम्मीद थी कि शायद अब देश का लोकतंत्र ढर्रे पर आएगा. ऐसा नहीं हुआ. सन 1977 में जनरल जिया-उल-हक ने न केवल सत्ता पर कब्जा किया, बल्कि ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को फाँसी पर भी चढ़वाया. आज पाकिस्तान में जो कट्टरपंथी हवाएं चल रहीं हैं, उनका श्रेय जिया-उल-हक को जाता है. देश को धीरे-धीरे धार्मिक कट्टरपंथ की ओर ले जाने में उस दौर का सबसे बड़ा योगदान है.

लोकतांत्रिक-आंदोलन

अस्सी के दशक में फिर से देश में लोकतांत्रिक सरकार लाने का आंदोलन चला. अंततः 1985 में चुनाव हुए और मुहम्मद जुनेजो प्रधानमंत्री बने. उसी दौरान वहाँ की संसद ने देश के राष्ट्रपति को सरकारें बर्खास्त करने का अधिकार दे दिया. इस अधिकार का इस्तेमाल करते हुए एक के बाद एक सरकारें बर्खास्त होने लगीं. सन 1999 में परवेज मुशर्रफ की फौजी बगावत के वक्त यह स्पष्ट था कि इस देश का लोकतंत्र से कोई वास्ता ही नहीं है. नवाज शरीफ सरकार की बर्खास्तगी पर लोग सड़कों पर खुशी से नाच रहे थे.

जम्हूरियत की लहर फिर भी चलती रही. सन 2008 के बाद जब परवेज मुशर्रफ ने लोकतंत्र का रास्ता पूरी तरह साफ किया और खुद हट गए, तब लगा कि शायद लोकतंत्र अब जड़ें जमाएगा. पर चुनाव प्रचार के दौरान ही बेनजीर भुट्टो की हत्या हो गई. उस खूनी चुनाव के बाद पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को बहुमत मिला, मार्च 2008 में युसुफ रजा गिलानी के प्रधानमंत्री बनने के बाद लगा कि वे पाँच साल पूरे करेंगे. पर जून 2011 में ऐसी साजिश में जिसमें वहाँ की अदालत भी शामिल थी, चुने हुए प्रधानमंत्री को हटा दिया गया.

गिलानी को हटाया

इमरान खान से पहले जुलाई 2017 में नवाज शरीफ को अघोषित सम्पत्ति जमा करने का आरोप लगाकर हटा दिया गया. पर युसुफ रजा गिलानी को प्रधानमंत्री पद से हटाने के पीछे कोई बड़ी वजह नहीं थी. वहाँ की अदालत चाहती थी कि राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी के खिलाफ मुकदमे चलाने के लिए स्विट्ज़रलैंड को चिट्ठी लिखी जाए. इस माँग के पीछे भी नवाज शरीफ और इमरान खां थे. इन दोनों को गिलानी की गर्दन की ज़रूरत थी. उन्होंने यह नहीं देखा कि देश में कौन सी परम्परा पड़ रही है. आज गिलानी साहब, शरीफ-परिवार के साथ इमरान के खिलाफ खड़े हैं.

परवेज मुशर्रफ ने जब तख्ता पलट किया था, तब नवाज़ शरीफ भाग्यशाली रहे. वर्ना जिस तरह ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को फाँसी दी गई थी, उसी तरीके से उन्हें भी फाँसी मिल सकती थी. पाकिस्तान का दुर्भाग्य है कि वहाँ जब भी लोकतंत्र आया तो उसे चलने नहीं दिया गया. इसके विपरीत जितनी बार वहाँ फौजी सरकार आई न्यायपालिका ने उसे कभी गैर-कानूनी नहीं बताया. युसुफ रज़ा गिलानी को पद से हटाने का आदेश देने वाली अदालत में मुख्य न्यायाधीश इफ्तिकार चौधरी समेत अनेक जज ऐसे थे, जिन्होंने परवेज़ मुशर्रफ की फौजी सरकार को वैधानिक करार दिया था.

राजनीति से वितृष्णा

पाकिस्तानी सत्ता में हर बदलाव के पीछे कहीं न कहीं सेना का हाथ होता है. पर इमरान खान मानते हैं कि इसबार सेना का नहीं अमेरिका का हाथ है. सच यह भी है कि वहाँ सत्ता की राजनीति के पीछे अमेरिकी-इशारा भी होता है. सवाल है कि इसबार इमरान और अमेरिका के बीच ऐसी क्या ठनी, जो खुलकर अमेरिका-अमेरिका हो रहा है? वहाँ जनता के मन में राजनीति के प्रति एक प्रकार की वितृष्णा है. इसके पीछे कुछ तो राजनेताओं के स्वार्थों का हाथ है और कुछ वास्तविक सत्ता-प्रतिष्ठान सेना का. इसे पैदा करने में राजनेताओं की भूमिका भी है.

जैसा आंदोलन इन दिनों विरोधी दलों ने इमरान खान की सरकार के खिलाफ चलाया है, वैसा ही आंदोलन 2016-17 में इमरान खान नवाज शरीफ के खिलाफ चला रहे थे। इमरान खां खुले आम कह रहे थे कि सेना को सत्ता हाथ में ले लेनी चाहिए.

संविधान का मुरब्बा

भारत का संविधान 1949 में तैयार होकर 1950 में लागू भी हो गया, पर पहले पाकिस्तानी संविधान को लागू होने में नौ साल लगे. वह भी दो साल में रफा-दफा हो गया. सन 1962 में दूसरा और फिर 1973 में तीसरा संविधान बनाया गया जो आज लागू है. 1956 में संविधान लागू होने के दो साल बाद राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्ज़ा ने फौजी शासन लागू कर दिया. यह दुनिया में अपने किस्म अनोखा कारनामा था. नागरिक सरकार का राष्ट्रपति कह रहा था कि लोकतंत्र नहीं चलेगा. इस कारगुजारी का इनाम तीन हफ्ते के भीतर जनरल अयूब खां ने इस्कंदर मिर्ज़ा को बर्खास्त करके दिया और खुद राष्ट्रपति बन गए.

देश के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान अगस्त, 1947 से 16 अक्तूबर, 1951 तक पद पर रहे. एक रैली में उनकी हत्या कर दी गई. उनके बाद ख्वाजा नजीमुद्दीन- 17 अप्रेल, 1953 तक पद पर रहे। वे देश के बंगाली संस्थापकों में से एक थे. तत्कालीन गवर्नर जनरल ने उन्हें बर्खास्त कर दिया. उनपर धार्मिक दंगों को रोक नहीं पाने का आरोप लगाया गया था. खासतौर से 1953 के लाहौर दंगों को. छठे प्रधानमंत्री इब्राहिम इस्माइल चुंदरीगर केवल 55 दिन प्रधानमंत्री पद पर रहे। आठवें प्रधानमंत्री नूरुल अमीन 7 दिसंबर, 1971 से 20 दिसंबर, 1971 तक केवल दो हफ्ते तक अपने पद पर रहे. वे देश के चौथे और अंतिम बंगाली प्रधानमंत्री थे. बांग्लादेश बन जाने के कारण उन्हें पद छोड़ना पड़ा.

ऐसा नहीं कि समूचा पाकिस्तान जेहादी रास्ते पर है. आधुनिकता का असर भी है. आधुनिक शिक्षा प्राप्त नए मैनेजर, टेक्नोक्रेट, महिलाएं दूसरे शब्दों में सिविल सोसायटी और कारोबारी लोग इससे ऊब चुके हैं. देश के अंग्रेज़ी मीडिया में यह वर्ग मुखर है, पर कट्टरपंथियों का दबाव भी कायम है. सबसे बड़ी जरूरत स्वतंत्र और ताकतवर संस्थाओं की है. जिस तरह से इसबार सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया है, वह भी ऐतिहासिक है. पिछले 75 साल का इतिहास है कि संस्था के रूप में केवल सेना की ताकत ही बढ़ी है. अफगानिस्तान के जेहाद के दौर में आईएसआई को स्वतंत्र संस्था के रूप में बनाया गया, जो अर्ध राजनीतिक संस्था है. देश की सरकारें बनाने और बिगाड़ने में उसकी भूमिका भी रही है. इमरान खान ने सेना के सहयोग से सत्ता की एक हाइब्रिड व्यवस्था को जन्म दिया था. वह भी विफल रही है.

 आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

 

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