Friday, April 23, 2021

यूट्यूब-पत्रकारिता के खुलते दरवाजे


यूट्यूब-पत्रकारिता ने अभिव्यक्ति और सूचना के द्वार खोले हैं। अनेक पत्रकारों के चैनल सामने आए हैं। खबरों और विचार से ही नहीं जीवन के सभी क्षेत्रों से जुड़े चैनल सामने आ रहे हैं। यह बहुत अच्छा है और इससे बहुत सी नई बातों को सामने आने का मौका मिल रहा है। जीवन, समाज, संस्कृति, पर्यटन, खान-पान जैसे तमाम विषयों पर बहुत अच्छी बातें डिजिटल मीडिया के मार्फत दिखाई पड़ रही हैं। स्थानीय स्तर पर ऐसी जगहों से खबरें आ रहीं हैं, जहाँ मुख्यधारा के पत्रकार तैनात नहीं होते हैं। 

बावजूद इसके मुझे विचार और अभिव्यक्ति को लेकर एक खतरा दिखाई पड़ रहा है। वह खतरा हर जगह है और यूट्यूब पर और ज्यादा है। आप फेसबुक पर भी देखें। कई तरह के खेमे हैं। वे खेमों में ही यकीन करते हैं। संतुलित राय में बहुत कम लोगों की दिलचस्पी है। हाँ प्रचार के लिए सत्य-निष्ठा और ऑब्जेक्टिविटी जैसे शब्दों का इस्तेमाल सभी करते हैं और इससे  कोई किसी को रोक नहीं सकता।

बहरहाल यह व्यक्तियों की प्राथमिकता पर निर्भर करता है कि वे किस राय को चुनते हैं, पर खेमेबाज़ी किस तरह विचार को प्रभावित करती है, इसे आप यूट्यूब पर देखें। यूट्यूब पर विज्ञापन दो आधार पर मिलते हैं। एक, आपके सब्स्क्राइबर कितने हैं और दूसरे आपके वीडियो को कितने लोगों ने देखा। इसका व्यावहारिक अर्थ है कि यूट्यूब पर आप किसी राजनीतिक, व्यावसायिक या किसी अन्य प्रकार के समूह से जुड़ें, और उसके लिए काम करें। सफलता की सम्भावनाएं तभी ज्यादा हैं।

एक जमाने में चुनाव के एक- दो महीने पहले से छोटे-छोटे अखबार निकलने लगते थे। वैसा ही है। यह वही प्रचारक-पत्रकारिता है, जिसे लेकर मेरे मन में मुख्यधारा की पत्रकारिता को लेकर पहले से अंदेशा है। मूल्यों का यह अंतर्विरोध भारत में सदा से रहा है। मेरे पास विदेशी पत्रकारिता का अनुभव नहीं है। अलबत्ता कुछ प्रसंग जरूर याद हैं, जब पत्रकारिता की मूल्य-बद्धता की परीक्षा हुई। ऐसी ही परीक्षा भारत में भी हुई है। चूंकि 1947 के पहले की हमारी पत्रकारिता राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी रही, इसलिए बहुत सी बातें उसमें ही छिपी रह गईं।

दो पक्षों के व्यावसायिक या राजनीतिक हितों के बरक्स अंतर्विरोधी बातों की कवरेज या उनसे जुड़े विचारों को लेकर हुए टकरावों का विवेचन हुआ भी तो पत्रकारिता के इतिहास में उनका जिक्र हुआ नहीं है। पश्चिमी पत्रकारिता का रिश्ता राष्ट्रीय आंदोलनों से नहीं था, इसलिए वहाँ राजनीतिक और व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विताओं को कवर करने का काफी मौका मिला, खैर। बहरहाल पत्रकारिता का चार सौ साल से कुछ ज्यादा समय गुजरा है। इस दौरान दुनिया में तमाम सकारात्मक गतिविधियाँ हुई हैं। खासतौर से लोकतांत्रिक-व्यवस्था की बुनियाद में सूचना और अभिव्यक्ति की जो भूमिका रही है, वह खत्म होने वाली नहीं है। वह किसी न किसी रूप में उपस्थित होती रहेगी।

मैंने ऊपर कहा है कि यूट्यूब की पत्रकारिता में आप सफल होना चाहते हैं, तो किसी एक समूह को पकड़ें, तो सफलता की सम्भावनाएं ज्यादा हैं। मसलन किसी एक राजनीतिक दल को, या किसी व्यावसायिक समूह जैसे किसान संगठन, ट्रेड यूनियन या ऐसे ही किसी कर्म से जुड़ेंगे तो आपको हाथोंहाथ बड़ी संख्या में सब्स्क्राइबर मिल जाएंगे। फिर इसमें भी वैसे ही बॉट होंगे, जैसे ट्विटर या फेसबुक पर होते हैं। वे आपका शो भी देखेंगे। यानी इस पत्रकारिता का भी एक बिजनेस मॉडल है।

इस बिजनेस मॉडल में अभी तो छोटे स्तर पर काम शुरू हुआ है, पर सम्भावनाएं बन रहीं हैं और जल्द ही इसमें उसी तरह बड़े प्लेयर आ जाएंगे, जैसे मुख्यधारा की पत्रकारिता में आए। यह केवल यूट्यूब तक सीमित रहेगी भी नहीं। यह तो डिजिटल प्लेटफॉर्म की पत्रकारिता है। अंततः यह आईबॉल्सको आकर्षित करने का खेल है। पर इसके सहारे अपने हितों को पूरा कराने वाले ज्यादा बड़े समूहों के काम सधते हैं। जैसे कि राजनीतिक दल।  

यदि आप टीवी के मीडिया से जुड़े रहे हैं, और एंकरिंग करते रहे हैं, तो कुछ न कुछ प्रशंसक होते हैं, जो आपसे जुड़ते हैं। इसमें मुझे कोई खामी नहीं दिखाई पड़ती। आपकी व्यावसायिकता का बना बनाया आधार है। यह आपके दर्शक और आपके बीच की बात है। अपनी साख जो आपने पहले से बना रखी है, उसकी यहाँ परीक्षा होती है। हालांकि इसमें भी कुछ पेच हैं, पर उनका जिक्र फिलहाल यहाँ मुझे ठीक नहीं लगता। मैं जिस बात को रखना चाहता हूँ, वह बिलकुल अलग है। वह सिर्फ इतनी है कि आप खुलकर किसी एक तरफ आइए आपका स्वागत करने वाले हाथों में मालाएं लिए खड़े हैं। आप सामने खड़े समूहों से कहें कि हम तटस्थता बरतेंगे, तो यकीनन उनकी दिलचस्पी आपमें नहीं है।    

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