Sunday, December 31, 2017
सुलगते सवाल सा साल
Wednesday, December 27, 2017
आइए आज गीत ग़ालिब का गाएं
Sunday, December 24, 2017
भ्रष्टाचार का पहाड़ खोदने पर चूहे ही क्यों निकलते हैं?
Tuesday, December 19, 2017
बीजेपी ने गुजरात बचा तो लिया, पर...
Sunday, December 17, 2017
राहुल के सामने चुनौतियों के पहाड़
सी-प्लेन पर सवार सियासत
Monday, December 11, 2017
अस्पताल बंद करने से क्या हो जाएगा?
शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय तीन ऐसी सुविधाएं हैं, जो खरीदने वाली वस्तुएं बन गईं हैं, जबकि इन्हें हासिल करने का समान अवसर नागरिकों के पास होना चाहिए। हमारी व्यवस्थाएं चुस्त होतीं, तो अस्पताल खुली लूट नहीं मचा पाते। मेरा इरादा अस्पतालों के मैनेजमेंट की मदद करना नहीं है। वास्तव में यह धंधा है, जिसपर बड़ी पूँजी लगी है। पर यह धंधा क्यों बन गया, इसपर हमें विचार करना चाहिए? हमारा देश सार्वजनिक स्वास्थ्य के मामले में दुनिया के सबसे खराब देशों में शामिल किया जाता है। बावजूद इसके हमारे यहाँ तमाम दूसरे देशों से लोग इलाज कराने आ रहे हैं। हमारे तौर-तरीकों में अंतर्विरोध हैं। ऐसा भी नहीं है कि डॉक्टरों ने हत्या करने का काम शुरू कर दिया है। कोई डॉक्टर सायास किसी की हत्या नहीं करेगा। वह उपेक्षा कर सकता है, लापरवाही बरत सकता है और वह अकुशल भी हो सकता है, पर यदि हम उसके इरादे पर शक करेंगे तो चिकित्सा व्यवस्था को चलाना मुश्किल हो जाएगा।
Sunday, December 10, 2017
बैंक दीवालिया होंगे तो क्या आपका पैसा डूब जाएगा?
इन दिनों सोशल मीडिया पर इस मसले पर खबरें खूब शेयर की जा रही हैं. इस तरह की खबरों के आने से बैंकिंग सिस्टम से अनजान हम जैसे मिडिल क्लास लोग परेशान होने लगते हैं, क्योंकि हमारी छोटी सी जमा-पूंजी बैंकों में ही रहती है. सोशल मीडिया में इन मसलों को लेकर लगातार लिखने वाले शरद श्रीवास्तव ने इस संबंध में वैबसाइट 'बिहार कवरेज' तथ्यपरक आलेख लिखा है, जिसमें उन्होंने इस बिल से जुड़े तमाम छोटे-बड़े मसले की ओर इशारा किया है.शरद श्रीवास्तव
जब तक रुपया हमारी जेब में रहता है, हमारी तिजोरी पर्स में रहता है. वो हमारा होता है, हम उसके मालिक होते हैं. लेकिन जब यही पैसा हम बैंक में जमा करते हैं तो हम बैंक की बुक्स में एक सनड्राई क्रेडिटर हो जाते हैं. एक अनसिक्योर्ड क्रेडिटर. एक नाम. सिक्योर्ड क्रेडिटर होते हैं अन्य बैंक, सरकार. अगर एक बैंक दिवालिया होता है तो बैंक में जो पैसा बचा होता है, उस पर पहला हक़ सिक्योर्ड क्रेडिटर्स का होता है. उनका पैसा चुकाने के बाद जो बचा खुचा होता है वो अनसिक्योर्ड क्रेडिटर्स यानी डिपॉजिटर्स यानी की आम आदमी को मिलता है.
राजनीति के गटर में गंदी भाषा
Saturday, December 9, 2017
बारह घोड़ों वाली गाड़ी पर राहुल
Friday, December 8, 2017
स्थानीय निकाय चुनाव से तो साबित नहीं हुए ईवीएम-संदेह
प्रदेश के राजनीतिक मिजाज की बात करें, तो प्रदेश के महानगरों के परिणाम बता रहे हैं कि बीजेपी की पकड़ कायम है, पर जैसे-जैसे नीचे जाते हैं वह कमजोर होती दिखाई पड़ती है. पर यह बीजेपी की कमजोरी नहीं है, बल्कि इस बात की पुष्टि है कि छोटे शहरों में राजनीतिक पहचान वैसी ही नहीं है, जैसी महानगरों में है.
Sunday, December 3, 2017
अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेत
गुजरात का चुनाव करीब होने की वजह से इन खबरों के राजनीतिक निहितार्थ हैं। कांग्रेस पार्टी ने गुजरात में अपने सारे घोड़े खोल दिए हैं। राहुल गांधी ने ‘गब्बर सिंह टैक्स’ के खिलाफ अभियान छेड़ दिया है। उनका कहना है कि अर्थ-व्यवस्था गड्ढे में जा रही है। क्या वास्तव में ऐसा है? बेशक बड़े स्तर पर आर्थिक सुधारों की वजह से झटके लगे हैं, पर अर्थ-व्यव्यस्था के सभी महत्वपूर्ण संकेतक बता रहे हैं कि स्थितियाँ बेहतर हो रहीं है।
Friday, December 1, 2017
आम हो गई आप
Tuesday, November 28, 2017
आम आदमी पार्टी: संशय का शिकार एक अभिनव प्रयोग

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, 27 नवंबर 2017
इसे आम आदमी पार्टी की उपलब्धि माना जाएगा कि देखते ही देखते देश के हर कोने में वैसा ही संगठन खड़ा करने की कामनाओं ने जन्म लेना शुरू कर दिया. न केवल देश में बल्कि पड़ोसी देश पाकिस्तान से भी खबरें आईं कि वहाँ की जनता बड़े गौर से आम आदमी की खबरों को पढ़ती है.
इस पार्टी के गठन के पाँच साल पूरे हुए है, पर 'सत्ता' में तीन साल भी पूरे नहीं हुए हैं. उसे पूरी तरह सफल या विफल होने के लिए पाँच साल की सत्ता चाहिए. दिल्ली विधानसभा दूसरे चुनाव में पार्टी की आसमान तोड़ जीत ने इसके वैचारिक अंतर्विरोधों को पूरी तरह उघड़ने का मौका दिया है. उन्हें उघड़कर सामने आने दें.
पार्टी की पहली टूट
उसके शुरुआती नेताओं में से आधे आज उसके सबसे मुखर विरोधियों की कतार में खड़े हैं. दिल्ली के बाद इनका दूसरा सबसे अच्छा केंद्र पंजाब में था. वहाँ भी यही हाल है. पार्टी तय नहीं कर पाई कि क्या बातें कमरे के अंदर तय होनी चाहिए और क्या बाहर. इसके इतिहास में विचार-मंथन के दो बड़े मौके आए थे.
एक, लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद और दूसरा 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में भारी विजय के बाद. पार्टी की पहली बड़ी टूट उस शानदार जीत के बाद ही हुई थी और उसका कारण था विचार-मंथन की प्रक्रिया में खामी. जब पारदर्शिता के नाम पर पार्टी बनी, उसकी ही कमी उजागर हुई.
उत्साही युवाओं का समूह
'आप' को उसकी उपलब्धियों से वंचित करना भी ग़लत होगा. खासतौर से सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में उसके काम को तारीफ़ मिली है. लोग मानते हैं कि दिल्ली के सरकारी अस्पतालों का काम पहले से बेहतर हुआ है. मोहल्ला क्लीनिकों की अवधारणा बहुत अच्छी है.
दूसरी ओर यह भी सच है कि पार्टी ने नागरिकों के एक तबके को मुफ्त पानी और मुफ्त बिजली का संदेश देकर भरमाया है. ज़रूरत ऐसी सरकारों की है जो बेहतर नागरिकता के सिद्धांतों को विकसित करें और अपनी ज़िम्मेदारी निभाने पर ज़ोर दें. आम आदमी पार्टी उत्साही युवाओं का समूह थी.
'हाईकमान' से चलती पार्टी
इसके जन्म के बाद युवा उद्यमियों, छात्रों तथा सिविल सोसायटी ने उसका आगे बढ़कर स्वागत किया था. पहली बार देश के मध्यवर्ग की दिलचस्पी राजनीति में बढ़ी थी. 'आप' ने जनता को जोड़ने के कई नए प्रयोग किए. जब पहले दौर में इसकी सरकार बनी तब सरकार बनाने का फ़ैसला पार्टी ने जनसभाओं के मार्फत किया था.
उसने प्रत्याशियों के चयन में वोटर को भागीदार बनाया. दिल्ली सरकार ने एक डायलॉग कमीशन बनाया है. पता नहीं इस कमीशन की उपलब्धि क्या है, पर इसकी वेबसाइट पर सन्नाटा पसरा रहता है. 'आप' के आगमन पर वैसा ही लगा जैसा सन् 1947 के बाद कांग्रेसी सरकार बनने पर लगा था. आज यह पार्टी भी 'हाईकमान' से चलती है.
Sunday, November 26, 2017
‘परिवार’ कोई जादू की छड़ी नहीं
अंततः राहुल का आगमन
Saturday, November 25, 2017
‘ग्रहण’ से बाहर निकलती कांग्रेस
Friday, November 24, 2017
राहुल के आने से क्या बदलेगी कांग्रेस?
Monday, November 20, 2017
खतरनाक हैं अभिव्यक्ति पर हमले
Sunday, November 19, 2017
मूडीज़ अपग्रेड, बेहतरी का इशारा
Saturday, November 18, 2017
चुनाव के अलावा कुछ और भी जुड़ा है अयोध्या-पहल के साथ
Thursday, November 16, 2017
क्या अयोध्या विवाद का समाधान करेंगे श्री श्री?
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
आमतौर पर ऐसी कोशिशों के वक्त चुनाव की कोई तारीख़ क़रीब होती है या फिर 6 दिसम्बर जिसे कुछ लोग 'शौर्य दिवस' के रूप में मनाते हैं और कुछ 'यौमे ग़म.'
संयोग से इस वक्त एक तीसरी गतिविधि और चलने वाली है.
कई कोशिशें हुईं, लेकिन नतीजा नहीं निकला
पिछले डेढ़ सौ साल से ज़्यादा समय में कम से कम नौ बड़ी कोशिशें मंदिर-मस्जिद मसले के समाधान के लिए हुईं और परिणाम कुछ नहीं निकला. पर इन विफलताओं से कुछ अनुभव भी हासिल हुए हैं.
हल की तलाश में श्री श्री अयोध्या का दौरा कर रहे हैं. उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से मुलाक़ात भी की है.
पृष्ठभूमि में इस मसले से जुड़े अलग-अलग पक्षों से उनकी मुलाक़ात हुई है. कहना मुश्किल है कि उनके पीछे कोई राजनीतिक प्रेरणा है या नहीं.
गुजरात चुनाव और सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई
गुजरात में कांग्रेस पार्टी ने दलितों, ओबीसी और पाटीदारों यानी हिन्दू जातियों के अंतर्विरोध को हथियार बनाया है जिसका सहज जवाब है 'हिन्दू अस्मिता' को जगाना.
गुजरात में बीजेपी दबाव में आएगी तो वह ध्रुवीकरण के हथियार को ज़रूर चलाएगी. पर अयोध्या की गतिविधियाँ केवल चुनावी पहल नहीं लगती.
गुजरात के चुनाव के मुक़ाबले ज़्यादा बड़ी वजह है सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर 5 दिसम्बर से शुरू होने वाली सुनवाई. इलाहाबाद हाईकोर्ट के सन् 2010 के फ़ैसले के सिलसिले में 13 याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन हैं. अब इन पर सुनवाई होगी.
कुछ पर्यवेक्षकों का अनुमान है कि पार्टी 2019 के पहले मंदिर बनाना चाहती है. कुछ महीने पहले सुब्रमण्यम स्वामी ने ट्वीट किया था, राम मंदिर का हल नहीं निकला तो अगले साल, यानी 2018 में अयोध्या में वैसे ही राम मंदिर बना दिया जाएगा.
Monday, November 13, 2017
‘स्मॉग’ ने रेखांकित किया एनजीटी का महत्व
Sunday, November 12, 2017
प्रदूषण से ज्यादा उसकी राजनीति का खतरा
Wednesday, November 8, 2017
नोटबंदी के सभी पहलुओं को पढ़ना चाहिए
करेंट सा झटका
Sunday, November 5, 2017
पटेल को क्यों भूली कांग्रेस?
नरेंद्र
मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस के कम से कम तीन बड़े नेताओं
को खुले तौर पर अंगीकार किया है। ये तीन हैं गांधी, पटेल और लाल बहादुर शास्त्री।
मोदी-विरोधी मानते हैं कि इन नेताओं की लोकप्रियता का लाभ उठाने की यह कोशिश है।
बीजेपी के नेता कहते हैं कि गांधी ने राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस को भंग कर
देने की सलाह दी थी। बीजेपी की महत्वाकांक्षा है कांग्रेस की जगह लेना। इसीलिए
मोदी बार-बार कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते हैं। आर्थिक नीतियों के स्तर पर
दोनों पार्टियों में ज्यादा फर्क भी नहीं है। अक्तूबर 2015 में अरुण शौरी ने टीएन
नायनन की किताब के विमोचन-समारोह में कहा था, बीजेपी माने कांग्रेस+गाय।
महात्मा गांधी के पौत्र गोपालकृष्ण गांधी देश की ‘सामाजिक
बहुलता’ के पुजारी और नरेंद्र मोदी के
‘राजनीतिक हिंदुत्व’ के मुखर विरोधी हैं। 2017 में उन्होंने अपने एक लेख में लिखा,
जाने-अनजाने कांग्रेस की पटेल
से किनाराकशी गलती थी, और हिंदुत्व का
सोच-समझकर पटेल को अंगीकार करना अभिशाप है। कांग्रेस ने आधिकारिक रूप से कभी नहीं
कहा कि वह पटेल से किनाराकशी कर रही है। तब यह सवाल क्यों उठा? गोपालकृष्ण गांधी ने लिखा है कि सरदार पटेल
पूरे देश के और हर समुदाय के नेता थे। दूसरी ओर वामपंथियों का बड़ा तबका उन्हें
साम्प्रदायिक मानता है। एजी नूरानी ने फ्रंटलाइन में प्रकाशित एक लेख में सरदार उन्हें
‘कट्टर सांप्रदायिक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति’ बताया था ( दिसंबर 2013 में फ्रंटलाइन)।
कांग्रेस पार्टी में शुरू से ही कई तरह की ताकतें सक्रिय
थीं। उसमें वामपंथी थे, तो दक्षिणपंथी भी थे। पटेल का निधन 1950 में हो गया। वे
ज्यादा समय तक भारतीय राजनीति में रहते तो शायद बातें साफ होतीं, पर उनके जीवन के
अंतिम वर्षों की घटनाओं पर निगाह डालें तो साफ नजर आता है कि कांग्रेस के भीतर
तीखे वैचारिक मतभेद थे। प्रकारांतर से
ये मतभेद बाद के वर्षों में दूसरे रूप में सामने आए। सन 1969 के बाद कांग्रेस ‘पारिवारिक’ पार्टी के रूप में तबदील हो गई।
भारतीय जनसंघ की स्थापना 1951 में हुई। उसके एक साल पहले
पटेल का निधन हो चुका था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारकों की धारणा है कि
पटेल की बात को मान लिया गया होता, तो जनसंघ बनती ही नहीं। सरदार पटेल ने संघ को
कांग्रेस का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित किया था। उन्होंने कहा था, संघ के लोग
चोर नहीं हैं, वे भी देशभक्त हैं। वे अपने देश को प्यार करते हैं। आप डंडे से संघ
को खत्म नहीं कर पाएंगे। पटेल की पहल पर अक्तूबर 1948 में (इस तारीख की पुष्टि मैं करूँगा, क्योंकि वॉल्टर एंडरसन के ईपीडब्लू में प्रकाशित लेख में अक्तूबर 1948 लिखा है) कांग्रेस कार्यसमिति ने
एक प्रस्ताव पास किया, जिससे संघ के सदस्यों के कांग्रेस में प्रवेश का रास्ता साफ होता था।
यह प्रस्ताव जिस समय पास हुआ जवाहर लाल नेहरू विदेश में थे। नेहरू के वापस आने के
बाद वह प्रस्ताव खारिज हो गया।
पटेल का अंगीकार केवल मोदी के दिमाग की उपज नहीं है और ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ आज की अवधारणा नहीं है। 2016 में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने एक
प्रस्ताव पास किया, जिसमें स्पष्ट किया गया कि पार्टी का ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ से आशय क्या है। इसके अनुसार पार्टी
का लक्ष्य कांग्रेस को केवल चुनाव में हराना ही नहीं है, बल्कि इसका मतलब है ‘कांग्रेस ब्रांड’
की राजनीति से मुक्ति। ‘ब्रांड’ से एक आशय ‘परिवार’ से भी है।
बीजेपी
को कांग्रेस की जगह लेनी है तो उसे सांस्कृतिक बहुलता, सहभागिता, समावेशन और व्यापक जनाधार को भी अपनाना
होगा। सरदार पटेल सांस्कृतिक बहुलता और समावेशन के पक्षधर भी थे। पर उनकी पहचान
आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद को मूर्त रूप देने वाले राजनेता के रूप में है। नरेंद्र मोदी ने पटेल जयंती के अवसर पर कहा कि उन्होंने देश
की आजादी और उसकी एकता को सुनिश्चित करने के लिए अपना जीवन खपा दिया। मोदी ने इसके
साथ ही कांग्रेस पर भी निशाना साधा। उन्होंने कहा, इस महापुरुष के नाम को मिटा देने का प्रयास किया गया या फिर उन्हें
छोटा दिखाने का प्रयास भी हुआ, लेकिन
पटेल तो पटेल थे। कोई शासन उन्हें स्वीकृति दे या न दे, कोई राजनीतिक दल उनके महत्व को स्वीकार करे या
न करे, यह देश और इस देश की युवा पीढ़ी एक पल
भी पटेल को भूलने को तैयार नहीं है।
व्यावहारिक
राजनीति में आज कांग्रेस पार्टी खुद को सवा सौ साल पुरानी पार्टी कहती जरूर
है, पर उसका सारा जोर नेहरू की विरासत पर होता है। नेहरू और उनके समकालीन नेताओं
के वैचारिक मतभेद को सकारात्मक रूप से पेश करने की कोशिश पार्टी ने भी नहीं की। नेहरू और पटेल के बीच वैचारिक मतभेद थे।
दोनों नेताओं की आर्थिक नीतियों और साम्प्रदायिक सवालों पर एक राय नहीं थी। फिर भी
दोनों ने इन मतभेदों को कभी बढ़ाया नहीं।
पटेल
और नेहरू के बीच के पत्राचार को पढ़ने से यह भी पता लगता है कि मतभेद इस हद तक आ
गए थे कि दोनों में से एक सक्रिय राजनीति से हटने की बात सोचने लगा था। पर दोनों
को राष्ट्रीय परिस्थितियों का भी एहसास था। विभाजन के फौरन बाद वह काफी नाजुक समय
था। जब तक गांधी जीवित थे, ये अंतर्विरोध सुलझते रहे। नेहरू-पटेल और गांधी के बीच
एक बैठक प्रस्तावित थी, जो कभी हो नहीं पाई और गांधी की हत्या हो गई। इसके बाद पटेल
ज्यादा समय जीवित रहे नहीं और इतिहास की धारा दूसरी दिशा में चली गई। इतना साफ है
कि दोनों ने अपने मतभेदों को इतना नहीं बढ़ाया कि रिश्ते टूट जाएं। दोनों ने
एक-दूसरे को सम्मान दिया।
सरदार
पटेल को ज्यादा समय तक काम करने का मौका नहीं मिला। देशी रियासतों को भारतीय संघ
का हिस्सा बनाने में उनकी सबसे बड़ी भूमिका थी। इसके अलावा संविधान की रचना में भी
उनका महत्वपूर्ण योगदान था। मौलिक अधिकारों, प्रधानमंत्री की भूमिका, राष्ट्रपति
के चुनाव की प्रक्रिया और कश्मीर को लेकर नेहरू के साथ उनके मतभेद संविधान सभा में
भी प्रकट हुए। बीआर आम्बेडकर के समर्थकों में पटेल भी एक थे और एक मौके पर उन्हें कानून
मंत्री पद से हटाए जाने के प्रयासों का उन्होंने विरोध भी किया था।
कांग्रेस
ने पटेल से किनाराकशी की या नहीं की, इसे लेकर अलग राय हैं। इस बात को छिपाया नहीं
जा सकता कि उन्हें भारत रत्न का सम्मान देने में देरी हुई। सन 1954 में जब पहली
बार भारत रत्न का सम्मान दिया जा रहा था, तब उनकी याद क्यों नहीं आई? और 1991 में याद क्यों आई?

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