अस्पताल का लाइसेंस रद्द करने से क्या अस्पताल सुधर जाएगा? ऐसा होता तो देश के तमाम सरकारी अस्पताल अबतक बंद हो चुके होते। जनता नाराज है और उसकी नाराजगी का दोहन करने में ऐसे फैसलों से कुछ देर के लिए मदद मिल सकती है, पर यह बीमारी का इलाज नहीं है, बल्कि उससे दूर भागना है। सरकारी हों या निजी अस्पतालों के मानकों को मजबूती से लागू कराइए, पर उन्हें बंद मत कीजिए, बल्कि नए अस्पताल खोलिए। जनता को इस बात की जानकारी भी होनी कि देश में अस्पताल और स्कूल खोलने और उन्हें चलाने के लिए कितने लोगों की जेब भरनी पड़ती है।
शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय तीन ऐसी सुविधाएं हैं, जो खरीदने वाली वस्तुएं बन गईं हैं, जबकि इन्हें हासिल करने का समान अवसर नागरिकों के पास होना चाहिए। हमारी व्यवस्थाएं चुस्त होतीं, तो अस्पताल खुली लूट नहीं मचा पाते। मेरा इरादा अस्पतालों के मैनेजमेंट की मदद करना नहीं है। वास्तव में यह धंधा है, जिसपर बड़ी पूँजी लगी है। पर यह धंधा क्यों बन गया, इसपर हमें विचार करना चाहिए? हमारा देश सार्वजनिक स्वास्थ्य के मामले में दुनिया के सबसे खराब देशों में शामिल किया जाता है। बावजूद इसके हमारे यहाँ तमाम दूसरे देशों से लोग इलाज कराने आ रहे हैं। हमारे तौर-तरीकों में अंतर्विरोध हैं। ऐसा भी नहीं है कि डॉक्टरों ने हत्या करने का काम शुरू कर दिया है। कोई डॉक्टर सायास किसी की हत्या नहीं करेगा। वह उपेक्षा कर सकता है, लापरवाही बरत सकता है और वह अकुशल भी हो सकता है, पर यदि हम उसके इरादे पर शक करेंगे तो चिकित्सा व्यवस्था को चलाना मुश्किल हो जाएगा।
शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय तीन ऐसी सुविधाएं हैं, जो खरीदने वाली वस्तुएं बन गईं हैं, जबकि इन्हें हासिल करने का समान अवसर नागरिकों के पास होना चाहिए। हमारी व्यवस्थाएं चुस्त होतीं, तो अस्पताल खुली लूट नहीं मचा पाते। मेरा इरादा अस्पतालों के मैनेजमेंट की मदद करना नहीं है। वास्तव में यह धंधा है, जिसपर बड़ी पूँजी लगी है। पर यह धंधा क्यों बन गया, इसपर हमें विचार करना चाहिए? हमारा देश सार्वजनिक स्वास्थ्य के मामले में दुनिया के सबसे खराब देशों में शामिल किया जाता है। बावजूद इसके हमारे यहाँ तमाम दूसरे देशों से लोग इलाज कराने आ रहे हैं। हमारे तौर-तरीकों में अंतर्विरोध हैं। ऐसा भी नहीं है कि डॉक्टरों ने हत्या करने का काम शुरू कर दिया है। कोई डॉक्टर सायास किसी की हत्या नहीं करेगा। वह उपेक्षा कर सकता है, लापरवाही बरत सकता है और वह अकुशल भी हो सकता है, पर यदि हम उसके इरादे पर शक करेंगे तो चिकित्सा व्यवस्था को चलाना मुश्किल हो जाएगा।
नवजात शिशु को मृत
बताने वाले मैक्स शालीमार बाग अस्पताल का दिल्ली सरकार ने लाइसेंस रद्द कर दिया
है। सरकार का कहना है कि इस किस्म की लापरवाही स्वीकार नहीं की जा सकती। एक महिला
ने दो बच्चों को जन्म दिया था। अस्पताल ने दोनों को मृत बताकर उन्हें पॉलिथीन में
लपेटकर परिजनों को सौंप दिया था। अंतिम संस्कार के लिए ले जाते वक्त परिजनों ने एक
बच्चे में हरकत देखी, जिसके बाद नवजात को एक
दूसरे हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। कुछ दिन बाद उस शिशु की भी मौत हो गई। यह खबर
प्राइवेट अस्पताल से आई है, पर कुछ महीने ऐसी ही घटना दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल
में भी हुई थी। क्या उसे बंद करना चाहिए?
अस्पताल का लाइसेंस रद्द
होना प्रशासनिक कदम है। प्रभावित परिवार की माँग है कि मामले से जुड़े डॉक्टरों को
गिरफ्तार करके उनपर मुकदमा चलाया जाए। जिस अस्पताल का यह मामला है, वह बड़ा नामी
अस्पताल है, जहाँ का इलाज काफी महंगा है। वहाँ ऐसी घटना का होना उस अस्पताल की साख
पर सवालिया निशान लगाता है, पर इससे ज्यादा बड़ा सवाल चिकित्सा व्यवसाय की साख का
है। हमारे ऊपर उस साख को बचाने की जिम्मेदारी भी है। शिशुओं की मृत्यु को प्रमाणित
करते समय जिन मानकों का इस्तेमाल किया गया, उनपर फिर से विचार करने की जरूरत है।
यह भी देखने की जरूरत है कि फैसले भावनाओं के आधार पर नहीं होने चाहिए।
इस बात का पता जाँच के
बाद ही लग सकेगा कि इस मामले में विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों का पालन किया
गया या नहीं। इस घटना के बाद इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने कुछ नए निर्देश जारी किए
हैं। बेशक यह उपेक्षा का मामला है, पर इससे समूचे चिकित्सा कर्म की साख को धक्का
नहीं लगना चाहिए। हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री ने बच्चों की मौत को ‘हत्या’ बताया है। उनके बयान पर
दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन ने कड़ी आपत्ति व्क्त की है। चिकित्सक का काम जान बचाना
है, हत्या करना नहीं।
समस्या हमारी सार्वजनिक
स्वास्थ्य प्रणाली में है। लोग प्राइवेट अस्पतालों में इसलिए जाते हैं, क्योंकि
सरकारी अस्पतालों की दशा खराब है। उधर प्राइवेट अस्पताल भारी फीस वसूल रहे हैं।
मरीजों के परिवारों के साथ नोच-खसोट हो रही है। हाल में बेंगलुरु से एक खबर थी कि
वहाँ डायगनोस्टिक जाँच के लिए डॉक्टर भारी कमीशन ले रहे हैं। ऐसी ही शिकायतें
दवाओं के नाम लिखने से जुड़ी हैं। जेनेरिक दवाओं के अलग-अलग ब्रांड होते हैं और
डॉक्टर कमीशन लेकर महंगी दवाओं के नाम लिखते हैं। इन बातों पर नजर रखने की
जिम्मेदारी भी इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की है।
इस साल गोरखपुर के बाबा
राघव दास अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी से सौ से ज्यादा बच्चों की मौत होने की खबर
आई। फिर ऐसी ही खबरें फर्रुखाबाद के एक अस्पताल से दर्जनों नवजात शिशुओं की मौत की
खबरें आईं। इन मौतों के अलग-अलग कारण हैं, पर बात एक है। हमारी स्वास्थ्य प्रणाली
में कहीं खोट है। यह दोष कई स्तर पर है। गोरखपुर और उससे लगे पूर्वांचल के इलाकों
और नेपाल के दक्षिणी क्षेत्र में हर साल बरसात के मौसम में एंसीफलाइटिस का प्रकोप
होता है। सैकड़ों नहीं हजारों बच्चे काल-कवलित होते हैं।
ये खबरें पिछले बीस साल
से ज्यादा समय से हर साल आ रहीं हैं। इसके पीछे बैक्टीरिया और वायरस का इंफैक्शन
है। समय से कार्रवाई की जाए तो इसे रोका जा सकता है। नहीं तो इलाज की व्यवस्था की
जा सकती है। क्या हमने इस समस्या का जिक्र मुख्य धारा के मीडिया में सुना? क्या यह केवल गोरखपुर का
स्थानीय मामला है? इस साल यह मामला उठा भी तो राजनीतिक कारणों से। हमारी दिलचस्पी राजनीति में
है। सार्वजनिक स्वास्थ्य हमारी प्राथमिकता में सबसे पीछे है।
यह केवल बच्चों की मौत से
जुड़ा मामला नहीं है। इसी 1 जून को ‘विश्व बाल-दिवस’ पर अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘सेव द चिल्ड्रन’ की रिपोर्ट ‘स्टोलन चाइल्डहुड’ में बताया गया कि भारत में चार करोड़ 82 लाख बच्चों की
शारीरिक वृद्धि कुपोषण के कारण रुक गई है। ऐसे बच्चों को वृद्धि-रुद्ध या स्टंटेड
चाइल्ड कहा जाता है। वृद्धि-रुद्ध बच्चे स्कूलों में देर से प्रवेश ले पाते है, कम दर्जों तक पढ़ाई करते
हैं और अच्छा प्रदर्शन नहीं करते। इससे उनकी उत्पादकता और कमाई कर पाने की क्षमता
कम तथा वयस्क जीवन में भागीदारी कमजोर होती है। कुल मिलाकर यह बात देश की प्रगति
को प्रभावित करती है।
माताओं और देश के
स्वास्थ्य का गहरा नाता है। यह बात जब हमें समझ में आ जाएगी, देश की वरीयताएं बदलेंगी।
जब आप कुपोषित हैं तो बीमारियाँ भी जल्दी घेरेंगी। एक अध्ययन में बताया गया है कि
भारत के 35 फीसदी परिवार बीमारियों के ‘विनाशकारी खर्च’ (कैटास्ट्रोफिक हैल्थ एक्सपेंडिचर) के फंदे में फँसे हैं।
स्वास्थ्य तमाम फंदों का स्रोत-बिन्दु है। अस्वाथ्यकर माहौल में रहने वाले
कामगारों को कई दिन काम बंद रखना पड़ता है। बच्चे बीमार रहते हैं तो स्कूली पढ़ाई
ठीक से नहीं कर पाते। ऐसे माहौल में रहने वाली माताएं बीमार बच्चों को जन्म देती
हैं। खराब स्वास्थ्य केवल एक समस्या नहीं है। यह समस्याओं का वात्याचक्र है।
तेज आर्थिक विकास के
बावजूद भारत में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति खर्च
दुनिया के तमाम विकासशील देशों के मुकाबले कम है। इस खर्च में सरकार की
हिस्सेदारी और भी कम है। चीन में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति व्यय भारत के मुकाबले
5.6 गुना है तो अमेरिका में 125 गुना। यही नहीं औसत भारतीय अपने स्वास्थ्य पर जो
खर्च करता है,
उसका 62 फीसदी
उसे अपनी जेब से देना पड़ता है। एक औसत अमेरिकी को 13.4 फीसदी, ब्रिटिश नागरिक को 10
फीसदी और चीनी नागरिक को 54 फीसदी अपनी जेब से देना होता है। इसे कहते हैं कंगाली
में आटा गीला।
पिछले दो साल से नई
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के दस्तावेज पर सार्वजनिक विमर्श चल रहा था। 15
मार्च, 2017
को केंद्रीय कैबिनेट ने नई
स्वास्थ्य नीति पर अपनी मोहर लगा दी। यह नीति नागरिकों को भरोसा दिला रही है कि
उन्हें सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज प्रदान की जाएगी, जिसमें सार्वजनिक
निवेश की महत्वपूर्ण भूमिका
होगी। इसमें प्राथमिक और सामुदायिक केंद्रों को ‘स्वास्थ्य
और आरोग्यता केंद्रों’ के रूप में विकसित करने का
आश्वासन दिया गया है, जिनमें निःशुल्क और
व्यापक प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल का
पैकेज उपलब्ध होगा। क्या आपने इस नीति पर किसी स्तर का विमर्श देखा या सुना? देश का ध्यान किधर है?
दूसरों पर ऊँगली उठाना आसान है अपने को झांकना मुश्किल होता है
ReplyDeleteसार्थक चिंतनशील प्रस्तुति