गुजरात विधानसभा चुनाव का पहला दौर शुरू होने के
डेढ़ दिन पहले मणिशंकर के बयान और उसपर राहुल गांधी की प्रतिक्रिया और पार्टी की
कार्रवाई को राहुल गांधी के नेतृत्व में आए सकारात्मक बदलाव के रूप में देखा जा
सकता है। राहुल ने हाल में कई इस कहा है कि हम अपनी छवि अनुशासित और मुद्दों और
मसलों पर केंद्रित रखना चाहते हैं। सवाल है कि मणिशंकर अय्यर को इतनी तेजी से
निलंबित करना और उन्हें ट्विटर के मार्फत माफी माँगने का आदेश देना क्या बताता है? क्या यह पार्टी के अनुशासन-प्रिय होने का संकेत
है या चुनावी आपा-धापी का?
राहुल गांधी के नेतृत्व की परीक्षा शुरू हो चुकी
है। कांग्रेस बारह घोड़ों वाली गाड़ी है, जिसमें गर क्षण डर होता है कि कोई घोड़ा
अपनी दिशा न बदल दे। बहरहाल गुजरात राहुल की पहली परीक्षा-भूमि है और मणिशंकर एपिसोड
पहला नमूना। पार्टी के भीतर तमाम स्वर हैं, जो अभी सुनाई नहीं पड़ रहे हैं। देखना
होगा कि वे मुखर होंगे या मौन रहेंगे। गुरुवार की शाम जैसे ही राहुल गांधी का
ट्वीट आया कांग्रेसी नेताओं के स्वर बदल गए। जो लोग तबतक मणिशंकर अय्यर का समर्थन
कर रहे थे, उन्होंने रुख बदल लिया।
नेतृत्व और पार्टी दोनों का मेक-ओवर
मणिशंकर अय्यर के पहले इसी हफ्ते कपिल सिब्बल ने
सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के दौरान अयोध्या मामले की सुनवाई 2019 के बाद करने की
माँग करके भी पार्टी को साँसत में डाल दिया था। इन दोनों बातों का असर गुजरात के
चुनाव पर पड़ेगा। मणिशंकर अय्यर के ‘नीच’ शब्द के इस्तेमाल पर नरेन्द्र मोदी ने फौरन अहमदाबाद की एक सभा में
कहा, यह गुजरात का अपमान है। राहुल गांधी का व्यक्तिगत रूप से और पार्टी का
सामूहिक रूप से मेक-ओवर चल रहा है। जैसे मोदी ने पलटवार किया उसी तरह राहुल ने
पैंतरा बदला। राहुल की परीक्षा इसी बात की है कि क्या वे मोदी के मुकाबले इस
पैंतरेबाजी में सफल हो पाएंगे।
राहुल कम से कम तेरह साल
से राजनीति में सक्रिय हैं। सन 2004 में उन्हें कम उम्र माना गया था, पर उसके बाद
से ही वे मैदान में उतर आए थे। सन 2013 के बाद बीजेपी की ओर से उनकी छवि को
हास्यास्पद बनाने की सायास कोशिशें हुईं हैं, पर उसके काफी पहले से उनकी बहुत सी
बातों की हँसी उड़ाई जाती रही है। मसलन सन 2007 में उन्होंने कहा कि मेरी दादी ने पाकिस्तान
के दो टुकड़े कर दिए। वे इंदिरा गांधी को श्रेय देना चाहते थे, पर राजनयिक रूप से
ऐसे बयान घातक होते हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को उनके बचाव में आना पड़ा था।
ऐसे ही सन 2013 में उन्होंने कहा, दलितों का उत्थान करना है तो उन्हें बृहस्पति
ग्रह की ‘एस्केप वेलोसिटी’ देनी होगी। वे
कहना चाहते थे कि दलितों के विकास को जबर्दस्त गति देनी होगी, पर उन्होंने जो रूपक
इस्तेमाल किया वह सामान्य समझ से बाहर का था।
फौरी और दूरगामी
चुनौतियाँ
राहुल गांधी के सामने कुछ
फौरी और कुछ दूरगामी चुनौतियाँ हैं। फौरी चुनौती है गुजरात और हिमाचल का चुनाव।
इसके फौरन बाद कर्नाटक का चुनाव है। फिर मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के
चुनाव हैं। ये चुनाव उन्हें राजनीतिक मुहावरों को समझने और जनता से सम्पर्क का वह
मौका देंगे जिनका जिक्र उन्होंने किया। उन्हें इस बात को जानने और समझने का मौका
भी मिलेगा कि जो बात उन्होंने नरेन्द्र मोदी के बारे में कही है क्या वह उनपर भी
लागू नहीं होती? क्या वे अपनी पार्टी के लोगों से बात करते हैं। उनपर आरोप है कि उन्होंने
अरुणाचल और असम के कांग्रेस नेताओं का अपमान किया, जिसका परिणाम पार्टी को झेलना
पड़ा।
राहुल के पास देसी
मुहावरों की कमी है। पर उनकी संजीदगी को खारिज भी नहीं किया जा सकता। इधर पिछले
कुछ महीनों से वे लगातार अपनी छवि बदलने की कोशिश में लगे हैं। सितम्बर में बर्कले
के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में उन्होंने बीजेपी और नरेन्द्र मोदी पर जो हमला
किया वह संतुलित और संयमित था। उन्होंने कहा, मैं विपक्ष का नेता हूं लेकिन मिस्टर
मोदी मेरे भी प्रधानमंत्री हैं। उनके पास कुछ खास काबिलियत है। वे अच्छे
कम्यूनिकेटर हैं,
और मुझसे बेहतर वक्ता
हैं। वे जानते हैं कि लोगों के अलग-अलग समूहों को किस तरह से मैसेज देना है। लेकिन
वे बीजेपी के नेताओं की भी नहीं सुनते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि 2012 में कांग्रेस
पार्टी में अहंकार आ गया था। हमने लोगों से बातचीत बंद कर दी थी। अब नए नजरिए के
साथ पार्टी को मजबूती देकर आगे बढ़ने का वक्त है।
पार्टी का यह संधिकाल है, जब पुराने नेतृत्व की
जगह नया नेतृत्व विकसित हो रहा है। यह बदलाव क्रमिक होना चाहिए। कुछ समय तक नए और
पुराने का साथ चलेगा। ऐसा लगता है कि राहुल अपनी माँ के अलावा मनमोहन सिंह, पी
चिदंबरम, कर्ण सिंह, शशि थरूर और एके एंटनी जैसे सीनियर नेताओं से सलाह करते रहते
हैं। हाल में 4 दिसम्बर को पार्टी अध्यक्ष का नामांकन भरने के पहले वे पूर्व
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से आशीर्वाद लेने भी पहुँचे थे। इन बातों का प्रतीकात्मक
महत्व भी है।
कैसे संभलेंगे दिग्गज?
अक्तूबर के महीने में पीएचडी चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स
एंड इंडस्ट्रीज के 112 वें वार्षिक सम्मेलन में राहुल गांधी मुख्य वक्ता थे।
सम्मेलन में उनसे युवा चेहरों के बाबत सवाल किया गया तो उन्होंने कहा, हम अब
युवाओं को ज्यादा तवज्जोह देंगे, पर इसके लिए अपने वरिष्ठों से सलाह लेंगे। हाल
में उन्होंने पार्टी में अविनाश पांडे, केसी वेणुगोपाल और आरपीएन सिंह जैसे नए
लोगों को महत्वपूर्ण पद दिए वहीं सुशील कुमार शिंदे और अशोक गहलोत को भी साथ में
रखा। प्रकट रूप में उनकी इच्छा सबको जोड़कर रखने की है। पर यह शुरुआत है।
सोनिया गांधी की अध्यक्षता में अहमद पटेल,
जनार्दन द्विवेदी, दिग्विजय सिंह, गुलाम नबी आजाद, कमल नाथ, आनन्द शर्मा जैसे
नेताओं का जो महत्व था, क्या अब भी वैसा ही बना रहेगा? क्या वे राजस्थान में सचिन पायलट को और मध्य
प्रदेश में ज्योतिरादित्य को स्थापित करते समय अशोक गहलोत और कमल नाथ और दिग्विजय
सिंह की उपेक्षा कर पाएंगे? कांग्रेस के भीतर दिग्गजों
की कमी नहीं है।
खबरें हैं कि सैम पित्रोदा ने हाल में राहुल
गांधी की छवि के रूपांतरण में मदद की। यही नहीं उन्होंने अमेरिका में भारतवंशियों
के साथ राहुल को जोड़ा और गुजरात चुनाव के पहले चुनाव अभियान की रूपरेखा बनाने में
मदद की। सैम पित्रोदा राजीव गांधी के नजदीकी लोगों में थे और उन्होंने भारत के
तकनीकी रूपांतरण योजना बनाने में मदद की थी। देश की टेलीकॉम क्रांति का काफी श्रेय
उन्हें भी जाता है। सन 1989 में कांग्रेस की पराजय के बाद वे अमेरिका वापस लौट गए
थे, पर 2004 में जब यूपीए सरकार बनी तो उसके बाद वे राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के
प्रमुख बनकर फिर से वापस आए।
सैम पित्रोदा की शुरुआती पढ़ाई गुजरात में हुई
है। वे गुजरात को समझते हैं, इसलिए राहुल ने उन्हें गुजरात का काफी जिम्मेदारियाँ
दी हैं। पर उनके बढ़ते महत्व से पार्टी के कुछ पुराने नेता नाराज हैं। बताते हैं
कि पार्टी की नई सोशल मीडिया प्रभारी दिव्य स्पंदना पित्रोदा की सलाह पर रखी गईं
हैं। पार्टी में अंदेशा इस बात का है कि यदि कांग्रेस जीती तो कहीं सैम पित्रोदा
राज्य के मुख्यमंत्री पद के दावेदार न हो जाएं।
विपक्षी महागठबंधन
राहुल पर दूसरी बड़ी जिम्मेदारी है महागठबंधन
की। विपक्ष के दूसरे दलों के साथ उन्हें सम्पर्क रखना होगा। बीजेपी के मुकाबले एक
मजबत विकल्प तभी खड़ा हो सकता है। कहा जा रहा है कि राहुल पर्याप्त सीनियर नहीं
हैं और क्षेत्रीय दलों के नेता उन्हें भाव नहीं देंगे, जबकि सोनिया गांधी का वे
सम्मान करते थे। जब मतभेद होता था तो सोनिया के हस्तक्षेप से दूर हो जाता था। से
दूसरे नजरिए से देखें तो पाएंगे कि क्षेत्रीय दलों का रूपांतरण भी हो रहा है। पीढ़ी
का बदलाव हो रहा है।
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बिहार में
राष्ट्रीय जनता दल में दूसरी पीढ़ी ने नेतृत्व संभाल लिया है। अखिलेश यादव और तेजस्वी
यादव निर्विवाद नेता के रूप में उभरे हैं। इसी तरह द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम में के
करुणानिधि की जगह अब उनके बेटे एमके स्टालिन को मिल गई है। एनसीपी के नेता शरद
पवार की जगह उनकी बेटी सुप्रिया सुले और उनके भतीजे अजित पवार उत्तराधिकारी के रूप
में उभर कर आ गए हैं। जम्मू-कश्मीर में फारुख अब्दुलाल के पुत्र उमर अब्दुल्ला
निर्विवाद नेता हैं। तृणमूल कांग्रेस में ममता बनर्जी फिलहाल नेता हैं। हालांकि
उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी को उनके उत्तराधिकारी के रूप में देखा जा रहा है, पर अभी
वह घड़ी दूर है। बहुजन समाज पार्टी की निर्विवाद नेता मायावती ने हाल में अपने भाई
आनन्द कुमार को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया है, जिससे अनुमान लगाया जा रहा है वे
उनके उत्तराधिकारी होंगे।
क्या है पार्टी की नई दृष्टि?
इससे भी बड़ी चुनौती इस बात की है कि वे किस नई
दृष्टि को लेकर आगे बढ़ेंगे? बीजेपी की आलोचना में वे
पुराने समाजवादी नारे लगा रहे हैं। क्या वे इन नारों के सहारे बीजेपी को हरा
सकेंगे? बीजेपी केवल हिन्दुत्व के सहारे नहीं है। वह
आर्थिक उदारीकरण, आधुनिकीकरण और अपनी विदेश नीति को साथ में लेकर चल रही है। उसका
हिन्दुत्व इसमें मददगार है, पर केवल उसका ही सहारा नहीं है। बीजेपी का ध्यान आज भी
युवा वर्ग और स्त्रियों पर है। अगले एक साल में युवा वोटरों की एक और पीढ़ी सामने
आ रही है। अभी तक ऐसा कोई संकेत नहीं है, जिससे लगे कि मोदी की लोकप्रियता कम हुई
है। राहुल को मोदी जैसी लोकप्रियता हासिल करनी होगी। वह भी अगले डेढ़ साल में। काम
आसान नहीं, बड़ा मुश्किल है।
राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित
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