राहुल गांधी 16 दिसंबर को औपचारिक रूप से पार्टी अध्यक्ष का पद संभाल
लिया। उसके एक दिन पहले सोनिया गांधी ने
सक्रिय राजनीति से हट जाने की घोषणा की है। उन्होंने यह भी कहा कि राहुल पिछले तीन
साल से राजनीति में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। कांग्रेस का सबसे बड़ा क्षय
इन्हीं तीन साल में हुआ है। लगता नहीं कि वे अपना हाथ पार्टी से पूरी तरह खींच
पाएंगी। सोनिया गांधी के बयान के बाद पार्टी के कांग्रेस संचार प्रमुख रणदीप
सुरजेवाला ने ट्वीट किया, ‘श्रीमती सोनिया गांधी
कांग्रेस के अध्यक्ष पद से रिटायर हुईं हैं राजनीति से नहीं। उनका आशीर्वाद, ज्ञान और कांग्रेस की विचारधारा के प्रति उनका समर्पण
पार्टी को हमेशा मिलता रहेगा। वे पार्टी के लिए हमेशा पथ प्रदर्शक बनी रहेंगी।’
सोनिया गांधी ने पार्टी को संभाला, उसे एकताबद्ध
रखा, पर इसके लिए उन्हें कीमत भी चुकानी पड़ीं। पिछले 19 साल में कुछ गलतियाँ भी
हुईं। सवाल है कि क्या राहुल गांधी इतने विशाल संगठन को संभाल पाएंगे? पार्टी के सीनियर नेताओं से सम्पर्क बनाए रखने
के लिए सोनिया को एक व्यवस्था बनानी पड़ी। यह व्यवस्था उनके सहायक अहमद पटेल के
मार्फत थी। क्या राहुल भी अपने किसी सहयोगी का सहारा लेंगे, खुद पार्टी को देखेंगे
या कोई नई व्यवस्था बनाएंगे?
राहुल गांधी को अपनी माँ के अनुभवों से भी सीखना
होगा। शुरुआती वर्षों में सोनिया गांधी की अनुभवहीनता भी सामने आई थी। सन 1999 में
अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को एक वोट से गिराने के बाद उन्होंने दावा किया कि
हमारे पास 272 का समर्थन है। कांग्रेस की इस कोशिश का परिणाम यह हुआ कि उसके बाद
हुए चुनाव में पार्टी की स्थिति और खराब हो गई। इस हार के बाद सोनिया गांधी ने
गठबंधन की राजनीति की तरफ सोचना शुरू किया। सन 2004 में मनमोहन सिंह को
प्रधानमंत्री बनाने से उन्हें अपनी छवि बनाने के मौका जरूर मिला, पर साथ ही परोक्ष
रूप से सरकार चलाने की तोहमत भी उनपर आई।
यूपीए-1 के दौर में पार्टी को बार-बार वाममोर्चे
से सम्पर्क बनाकर रखना पड़ता था, क्योंकि मनमोहन सरकार की नीतियाँ सोनिया की
राजनीति से मेल नहीं खाती थीं। इस बात को समझना होगा कि सन 2009 में पार्टी को
मिली सफलता राहुल और सोनिया के नेतृत्व की सफलता थी या मनमोहन सरकार के न्यूक्लियर
डील की। सोनिया गांधी के बारे में माना जाता है कि वे यथास्थितिवादी हैं और ज्यादा
से ज्यादा लोगों की सलाह से काम करती हैं। ये दो बातें अच्छी हैं तो खराब भी हैं। श्रेष्ठ
राजनेता वही है, जो नए विचारों के साथ सामने आए और जो सलाहकारों के दबाव में नहीं
रहता हो।
सोनिया गांधी की अनुभवहीनता के कारण भी सलाहकारों
का महत्व बढ़ा। उन्होंने सरकार चलाने के लिए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की स्थापना
की, जिससे कई तरह के विशेषज्ञ उनके सम्पर्क में आए, पर उससे सरकार की स्थिति कमजोर
हुई। इससे ज्यादा नुकसान पार्टी संगठन का हुआ। सोनिया गांधी ने पार्टी के अकबर रोड
स्थित दफ्तर को समय कम देना शुरू कर दिया। पार्टी के नेताओं के साथ उनका संवाद 10,
जनपथ में होता था। वहाँ पार्टी के चुनींदा लोगों का ही प्रवेश सम्भव था। दूसरी ओर
पार्टी कार्यालय में दूसरे सीनियर नेताओं ने भी बैठना कम कर दिया।
सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को सरकार का जिम्मा
देकर संसदीय कर्म से भी अपने को अलग कर लिया। यह कमी आज राहुल गांधी में भी दिखाई
देती है। संसदीय बहसों की जिम्मेदारी माधवराव सिंधिया, शिवराज पाटील, प्रणब
मुखर्जी के कंधों पर आ गई। अब तो लोकसभा में सदस्य संख्या ही कम है, जिससे राहुल
गांधी की भूमिका बढ़ जाती है। मल्लिकार्जुन खड़गे लोकसभा में कांग्रेस दल के नेता
हैं। राहुल गांधी की उपस्थिति ज्यादा नहीं है। उनके युवा सहयोगियों में ज्योतिरादित्य
सिंधिया, गौरव गोगोई और सुष्मिता देव विमर्श में भाग लेते हैं। पार्टी के पास शशि
थरूर जैसे सासंद भी हैं, जो बातों को बेहतर तरीके से रख सकते हैं।
पार्टी का यह संधिकाल है।
कुछ समय तक नए और पुराने का साथ चलेगा। ऐसा लगता है कि राहुल अपनी माँ के अलावा
मनमोहन सिंह, पी चिदंबरम, कर्ण सिंह, शशि थरूर और एके एंटनी
जैसे सीनियर नेताओं से सलाह करते रहते हैं। हाल में 4 दिसम्बर को पार्टी अध्यक्ष का नामांकन भरने के पहले वे
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से आशीर्वाद लेने भी पहुँचे थे। इन बातों का
प्रतीकात्मक महत्व भी है।
गुजरात चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने मीडिया से
सम्पर्क बढ़ाया। अन्यथा वे मीडिया से भी दूर रहते थे। राजनीति और सार्वजनिक जीवन
से लम्बी अनुपस्थिति उनके हित में नहीं है। और अब उन्हें लगातार सम्पर्क में रहना
होगा। गुजरात विधानसभा
चुनाव का पहला दौर शुरू होने के डेढ़ दिन पहले मणिशंकर के बयान और उसपर पार्टी की
कार्रवाई को राहुल गांधी के नेतृत्व में आए सकारात्मक बदलाव के रूप में देखा जा
सकता है। राहुल ने हाल में कई बार कहा है कि हम अपनी छवि अनुशासित और मुद्दों और
मसलों पर केंद्रित रखना चाहते हैं। यह काम कैसे करेंगे, इसे देखना होगा। उनके पास
देसी मुहावरों की कमी है। यह एकदम से तो नहीं सुधरेगा, पर यदि वे सीधे जनता के
सम्पर्क में रहेंगे, तो कुछ न कुछ सुधरेगा।
राहुल गांधी के सामने कुछ
फौरी और कुछ दूरगामी चुनौतियाँ हैं। फौरी चुनौती है गुजरात और हिमाचल का चुनाव। इनके
परिणाम आज आ रहे हैं। इसके फौरन बाद कर्नाटक का चुनाव है। फिर मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव हैं। ये चुनाव उन्हें
राजनीतिक मुहावरों को समझने और जनता से सम्पर्क का वह मौका देंगे जिनका जिक्र
उन्होंने किया। हाल में उन्होंने कहा, मोदी अपने मन की बात करते हैं, किसी की
सुनते नहीं। सवाल है कि क्या यह बात उनपर भी लागू नहीं होती? उनपर आरोप है कि उन्होंने अरुणाचल और असम के कांग्रेस
नेताओं का अपमान किया, जिसका परिणाम पार्टी को
झेलना पड़ा।
इन सबसे बड़ी चुनौती इस
बात की है कि वे किस नई दृष्टि को लेकर आगे बढ़ेंगे? बीजेपी की आलोचना
में वे पुराने समाजवादी नारे लगा रहे हैं। क्या वे इन नारों के सहारे बीजेपी को
हरा सकेंगे? अभी तक ऐसा कोई संकेत
नहीं है, जिससे लगे कि मोदी की
लोकप्रियता कम हुई है। क्या वे मोदी जैसी लोकप्रियता हासिल कर पाएंगे?
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